हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/आदिकाल/विद्यापति(14वीं शती)

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विद्यापति इनकी तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका एवं पदावली। कीर्तिलता ऐतिहासिक महत्त्व का छोटा-सा प्रबंध-काव्य है। विद्यापति ने इसे 'कहाणी' कहा है। मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यक्तियों को आधार बनाकर जो काव्य लिखे गए हैं, वे ऐतिहासिकता से रहित होकर कथानक-रूढ़ियों, किंवदंतियों, अनुश्रुतियों आदि के विषय बन गए हैं। इसी प्रकार घटनाओं को भी तोड़ा-मरोड़ा गया है कीर्तिलता इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अपवाद है। उसकी ऐतिहासिकता बहुत-कुछ सुरक्षित है। इसमें विद्यापति ने कीर्तिसिंह द्वारा अपने पिता का बदला लेने का वर्णन बहुत यथार्थपरक ढंग से किया है। कीर्तिलता को कवि ने 'अवहट्ट' भाषा में रचा है। 'अवहट्ट' देशी भाषा यानी मैथिल-युक्त विकसित अपभ्रंश है। इसके गद्य में तत्सम शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ है।


पदावली विद्यापति के यश का आधार है। पदावली ऐसी रचना है, जो काव्योत्कर्ष और साहित्य का इतिहास, दोनों दृष्टियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें राधा-कृष्ण अपना अलौकिकत्व छोड़कर लौकिक व्यक्तियों के समान प्रेम-भावना से विह्वल होते हैं। लोक में जिस प्रकार किशोरी दुर्निवार प्रियमिलन और लोकलाज के कारण तीव्र अंतर्द्वद्व झेलती है, उसी प्रकार राधा को चित्रित किया गया है। कवि का मन वयःसंधि का चित्रण करने में विशेष रूप से रमा है। इसलिए इस बात को लेकर काफ़ी विवाद है कि पदावली भक्तिपरक रचना हैया शृंगारपरक। वस्तुतः जयदेव का गीतगोविंद, विद्यापति की पदावली और सूरदास का सूरसागर एक ही कोटि की रचनाएँ हैं, जिनमें भक्ति का आधार शृंगार है। पदावली के एक पद की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

सरस बसंत समय भल पावलि दछिन पवन बह धीरे।

सपनहु रूप बचन इक भाषिय मुख से दूरि करु चीरे।।

तोहर बदन सम चाँद होअथि नाहिं कै यो जतन बिह केला।

कै बेरि काटि बनावल नव कै तैयो तुलित नहिं भेला।।

भनइ विद्यापति सुन वर जोवित ई सम लछमि समाने।

राजा सिवसिंह रूप नरायन 'लखिमा देइ' प्रति भाने ।।