हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/जैन मतावलंबी कवि

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जैन मत के प्रभाव में अधिकांश काव्य गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में रचा गया। यह प्रायः प्रमाणिक रूप में उपलब्ध है। जैन मतावलंबी रचनाएँ दो प्रकार की है- एक, जिनमें नाथ सिद्धों की तरह अंतस्साधना, उपदेश, नीति सदाचार पर बल और कर्मकांड का खंडन है। ये प्रायः दोहों में रचित मुक्तक हैं। दूसरी, जिनमें पौराणिक, जैन साधकों की प्रेरक जीवन-कथा या लोक प्रचलित कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार किया है। जैन पौराणिक काव्य एवं चरित काव्य इसी श्रेणी के काव्य हैं।


जैन आचार्य हेमचंद्र (12वीं शती) के प्राकृत व्याकरण और मेरुतुंग (13वीं शती) के प्रबंध चिंतामणि में जैनेतर रचनाएँ भी संकलित हैं। सदाचार, उपदेश, रहस्य-साधना वाली मुक्तक रचनाएँ सिद्धों की रचनाओं से बहुत मिलती हैं। इनमें भी सहज पर बल दिया गया है। जोइंद (10वींशताब्दी), रामसिंह (लगभग 12वीं शताब्दी) आदि इस कोटि के प्रमुख जैन कवि हैं। पौराणिक काव्य-धारा में अपभ्रंश के महान कवि 'स्वयंभू' आते हैं, जिन्होंने रामकथा को आधार बनाकर पउम चरिउ की रचना की। स्वयंभू आठवीं शती के कवि हैं। पउम चरिउ जायसी के पद्मावत और तुलसीदास के रामचरितमानस की ही तरह कड़वकबद्ध है। अपभ्रंश के अन्य प्रसिद्ध कवि पुष्पदंत (10वीं शती) ने महापुराण की रचना की। इसके अतिरिक्त जेन अपभ्रंश कवियों ने भारी संख्या में चरितकाव्य लिखे हैं। इनमें पुष्पदंत का नागकुमार चरित, जसहर चरिउ तथा कनकामर मुनि (11वीं शती) का करकंडचरित अधिक प्रसिद्ध हैं। भविष्यदत्त कथा नामक प्रसिद्ध अपभ्रंश कथाकाव्य धनपाल (10वीं शती) की ऐसी रचना है, जिसमें लोकप्रचलित कथा को भी सरल बनाए रखा गया है और जैन मत में दीक्षित होने की प्रेरणा भी दी गई है।


इस काल का लिखा गया वैष्णव साहित्य बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध है। लेकिन लक्ष्मीधर द्वारा चौदहवीं शताब्दी में संकलित प्राकृत पैंगलम् के अनेक छंदों में विष्णु के विभिन्न अवतारों से संबंधित पंक्तियाँ मिलती हैं। इसी प्रकार हेमचंद्र (12वीं शती) के प्राकृत व्याकरण में संकलित अपभ्रंश दोहों में भी कृष्ण, राधा, दशमुख आदि की चर्चा आती है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस काल के साहित्य में विष्णु के विभिन्न अवतारों को लेकर प्रचुर मात्रा में रचनाएँ हुई थीं, जो अब उपलब्ध नहीं हैं।


बहुत कुछ यही स्थिति शृंगारपरक लौकिक काव्यों की भी है सौभाग्यवश राउल वेल (11वीं शती) और संदेशरासक (13वीं शती) नामक दो शुद्ध लौकिक शृंगारी काव्य प्रामाणिक तौर पर उपलब्ध हो गए हैं। संदेशरासक का महत्त्व इस से भी आँका जाना चाहिए कि वह किसी भारतीय भाषा में रचित इस्लाम धर्मावलंबी कवि की प्रथम रचना है संदेशरासक तीन प्रक्रमों में विभाजित 223 छंदों का संदेश काव्य है। राउर वेल का रचयिता 'रोडा' नामक कवि है, जिसने किसी राजा के अंत:पुर में रहने वाली विभिन्न प्रदेशों की रानियों का वर्णन किया है।


प्राकृत पैंगलम् के छंदों को देखने से पता चलता है कि आश्रयदाता राजाओं को आधार बनाकर काव्य रचने की परंपरा भी इस काल में विद्यमान थी। प्राकृत पैंगलम् में विद्याधर द्वारा रचित किसी राजा संभवतः 'जयचंद' की. एवं अनुमानतः शाङ्गधर द्वारा रचित हम्मीर की प्रशंसा में लिखे पद्य मिलते हैं।


हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश के जो दोहे संकलित हैं, उनसे एक तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दोहा उस समय का लोकप्रिय छंद था। दसरे, वीरता और शृंगार नीति-विषयक दोहों में रचित कृतियाँ भी लोकप्रिय थीं। इन दोहों की अभिव्यक्ति इतनी निश्छल और सहज है कि इन्हें लोक-साहित्य की कोटि में रखा जा सकता है। यहाँ धर्म, वीर, शृंगार और नीतिपरक दोहों के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं-

धर्मः प्राइव मुणिहँवि भंतडी ते मणिअडा गणंति

अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति

(प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते हैं। अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते।)


वीरः पाइ विलग्गी अंबडी सिरु ल्हसिउँ खंघस्स्।

तोवि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउँ कंतस्स।

(पाँव में अंतड़ियाँ लगी हैं, सिर कंधे से लटक गया है तो भी हाथ कटार पर है। ऐसे की मैं बलि जाती हूँ।)


श्रृंगारः पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम मइँ विन्निवि विन्नासिआ निद्द न एम्ब न तेम्ब।

[प्रिय के संगम में नींद कहाँ! प्रिय के परोक्ष में (सामने न रहने पर)। नींद कहाँ! मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई, नींद न यों न त्यों।]


नीतिः जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु ।

तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जउँ सुअणस्सु।।

(जो अपना गुण छिपाए, दूसरे का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ। सृजन पर मैं बलि जाऊँ।)


दोहा, पद्धड़िया, गेयपद अपभ्रंश काल के प्रमुख छंद हैं।