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हिंदी सिनेमा एक अध्ययन/कला विधा के रूप में सिनेमा और उसकी सैद्धांतिकी

विकिपुस्तक से

कला का संबंध सृजन से है और मनुष्य ने अपने आरम्भिक समय से इस सृजनात्मकता का परिचय दिया है। मानव सभ्यता के विकास के साथ कलारूपों का भी विकास होता गया। कला द्वारा मस्तिष्क और कल्पना को शिक्षित करने का अर्थ ऐसे मस्तिष्क का निर्माण करना है जो मानवता के बेहतरीन सोपानों को पार करे, जहाँ से मनुष्य संकुचित विचारों से ऊपर उठ सकता है। सिनेमा कई कलाओं की समुचित विधा है। नृत्य, गीत, संगीत, अभिनय, चित्रकला सभी कलाएं इसमें समाहित हैं इसीलिए सिनेमा आम जनता से आसानी से संवाद करने में सफल हुआ। सिनेमा आज के दौर का एक महत्वपूर्ण कला माध्यम है और इस कला माध्यम का अपने समाज से गहरे स्तरों पर जुड़ाव है।

सिनेमा का सामान्य परिचय

सिनेमा हमारी संस्कृति का हिस्सा है। हमारे जन-जीवन को अगर कोई कला व्यापक स्तर पर प्रभावित कर पायी तो वो भी सिनेमा है। सिनेमा के आरंभ से ही व्यावसायिक और अव्यावसायिक फिल्में बनती रही हैं। उन्हीं फिल्मों को दर्शकों और आलोचकों ने याद रखा जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक चेतना को गहराई से प्रभावित किया। सिनेमा सिर्फ आनंद नहीं विचार भी है। सवाल यह है कि आप देखने के लिए किस तरह की फिल्में चुनते हैं। सिनेमा समाज को वैचारिक रूप से मजबूती भी प्रदान करता है। सबसे लोकप्रिय कला माध्यम के रूप में हम सिनेमा को देखते हैं। फिल्में समाज और समय का जीवंत दस्तावेज़ होती हैं। चरित्र प्रधान या किसी घटना पर बनी फिल्मों का निर्माण सामाजिक बदलाव की पूर्ति के उद्देश्य से किया जाता है।

नब्बे के बाद हिंदी सिनेमा में कई तरह के ग्रुप्स बने। कुछ लोगों के लिए सिनेमा सिर्फ व्यवसाय था, ये वे लोग थे जिन्हें सिनेमा बनाना अपनी पुरानी पीढ़ी से विरासत में मिला था। दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने लंबे संघर्ष के बाद अपना स्थान बनाया और वह एक ही तरह की फिल्में बनाकर पैसा कमाते हैं। रामगोपाल वर्मा, डेविड धवन, राजकुमार संतोषी, करण जौहर, आदित्य चोपड़ा जैसे निर्देशक इसी श्रेणी में आते हैं। तीसरे वे लोग हैं जिनके लिए सिनेमा एक आंदोलन है। वह सिनेमा से समाज को बदलना चाहते हैं। अनुराग कश्यप,तिग्मांशु धूलिया, दिवाकर बनर्जी, शुजीत सरकार, अनुराग बासु जैसे लोगों ने सिनेमा को ग्लोबल से लोकल बनाया लेकिन उन्हें ख्याति ग्लोबल मिली। इन फ़िल्मकारों ने ऐसे-ऐसे विषयों को उठाया जिससे अन्य लोगों को घिन आती थी। जो विषय तथाकथित सभ्य समाज के लिए अनफिट बैठते थे। नए लोगों ने प्रयोग किया और सफलता भी पायी।

युवा पीढ़ी हिंदी सिनेमा के केंद्र में रही। सिनेमा की कहानी में भी और देखने वालों में भी। चूंकि फ़िल्मकार इस सच्चाई से अवगत हैं इसलिए उन्होंने युवाओं के प्रति ईमानदारी बरती। आज जो लोग फिल्में बना रहे हैं उनके केंद्र में भी युवा पीढ़ी है। युवा, श्री इडियट्स, रंग दे बसंती, स्टूडेंट ऑफ द ईयर, दिल दोस्ती एक्सट्रा आदि फिल्में युवा मन को छूने वाली हैं। युवाओं को केन्द्रित कर हर वर्ष दर्जनों फिल्मों का निर्माण होता है। आने वाले समय में सिनेमा युवाओं के लिए कुछ बेहतर ही करेगा- "सिनेमा युवा जीवन के मुद्दों एवं समस्याओं को लेकर बेहद ईमानदार भूमिका निभाता रहा है। युवा हिंदी सिनेमा ने अपनी व्यावसयिक समस्याओं और सीमाओं के बावजूद लोकपक्षधरता एवं सार्थकता से समझौता नहीं किया है, भारत में सबसे ज्यादा युवा आबादी है एवं सबसे ज्यादा साल में फ़िल्में बनती हैं। उम्मीद है, युवा वर्ग सिनेमा के क्षेत्र में परती जमीन को उर्वर बनायेगा।" फिल्में कभी एक जैसी निर्मित नहीं हो सकती हैं। हिंदी फिल्म उद्योग बहुत बड़ा है। यहाँ विभिन्न भाषाओं, परिवेशों से लोग आते हैं और अपने ढंग से काम करते हैं। यह जरूर है कि नई पीढ़ी पर उम्मीद किया जाना चाहिए। वही बेहतर सिनेमा बना पाएगी। उसके पास नई दृष्टि और काम करने का नया ढंग है।

भूमंडलीकरण के बाद हिंदी सिनेमा बनाने वालों और देखने वालों दोनों की दृष्टि बदली है। आगे मैं कुछ ऐसी फिल्मों की चर्चा करने जा रहा हूँ जिसमें समाज का नया चेहरा देखने को मिलता है। ये फिल्में हिंदी सिनेमा की पारंपरिक छवि को तोड़ते हुए ऐसे विषयों पर बनी हैं जिन्हें अभी तक किसी फ़िल्मकार द्वारा दिखाने की हिम्मत नहीं की गई थी।

कला रूप में सिनेमा की सैद्धांतिक समीक्षा

सिनेमा आज एक कला के रूप में सर्वमान्य हो चुका है, जिसकी एक लम्बी प्रक्रिया चली जिसमें पश्चिम के सिने सिद्धान्तों की महत्वपूर्ण भूमिका है, सिनेमा को कला के रूप में प्रतिष्ठित करने में पश्चिम और पूर्व के मिले-जुले प्रयासों की बड़ी भूमिका है। शुरूआती चरण में सिनेमा को कला के रूप में देखना केवल एक 'फिल्म सराहना' मानी जाती थी। यह क्रम पचासवें दशक के पहले तक चलता रहा। अन्य कलाओं की तरह सिनेमा भी देशकाल, सामाजिक संरचना और व्यक्ति की समस्याओं से सीधे जुड़ा रहता है। आज हम जो सिनेमादेखते हैं वह कोई चमत्कार या क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं है बल्कि सिनेमा की खोज एक लम्बे वैज्ञानिक आविष्कार का नतीज़ा है। "पिछले डेढ़ सौ वर्षों में इस समाज, सभ्यता तथा संस्कृति के साथ कई चीजें जुड़ी हैं। इन नयी चीजों में समाज, संस्कृति तथा सभ्यता को गहराई से प्रभावित करने वाले दुनिया के सर्वाधिक बड़े और अनूठे कला माध्यमों से सिनेमा का जुड़ना काफी महत्वपूर्ण रहा। सिनेमा आज के दौर का एक महत्वपूर्ण कला माध्यम है और इस कला माध्यम का अपने समाज से गहरे स्तरों पर जुड़ाव है। सिनेमा बुनियादी रूप से समाज से अलग नहीं होता। सिनेमा बुनियादी रूप से समाज से अलग नहीं होता। "सिनेमा चाहे मनोरंजन के लिए हो या व्यवसाय के लिए या कला के उत्कर्ष की अभिव्यक्ति के लिए उसमें अपने दौर का समाज किसी न किसी रूप में व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकता। यह अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष और अतिरंजित रूप में भी हो सकती है और प्रत्यक्ष और रचनात्मक रूप में भी। सिनेमा ने सामाजिक यथार्थ को खूबसूरती से प्रस्तुत किया है। सिनेमा को केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि सिनेमा समाज को गहराई तक प्रभावित भी करता है और खुद प्रभावित भी होता।

सिनेमा ने सामाजिक यथार्थ को खूबसूरती से प्रस्तुत किया है। सिनेमा को केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि सिनेमा समाज को गहराई तक प्रभावित भी करता है और खुद प्रभावित भी होता है। कला मनुष्य की सृजनात्मकता की परिचायक है। मनुष्य ने कभी अपनी अभिव्यक्ति तो कभी मनोरंजन के लिए अनेक कलाओं का निर्माण किया। अन्य कलाओं में सिनेमा सबसे लोकतांत्रिक है और हर वर्ग तक आसानी से पहुँचने में सक्षम भी है।

सिनेमा को हमेशा मनोरंजन का माध्यम समझा गया इसलिए गंभीर कला के रूप में उसे कभी स्वीकार नहीं किया गया। एक समय के बाद सिनेमा ने यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण कर इस तथ्य को तोड़ दिया कि सिनेमा मात्र व्यापार है। सत्यजीत रे, विमल रॉय, राजकपूर, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी आदि फिल्मकारों ने यह साबित किया कि सिनेमा व्यापार और व्यवसाय के साथ सामाजिक समस्याओं और संवेदनाओं को बेहतर ढंग से व्यक्त करने में सक्षम है। सिनेमा के व्यापारी होने की धारणा से ही बौद्धिकों ने इसे साहित्य का हिस्सा मानने से इन्कार कर दिया जबकि सिनेमा बनने की प्रक्रिया साहित्य से ही आरम्भ होती है। राही मासूम रज़ा ने इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा है- "फिल्म कला है या व्यापार? मैं फिल्म को साहित्य का अंग मानता हूँ। आज के मानव में आत्मा की पेचीदगी को अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य के पास उपन्यास और फिल्म के सिवा कोई साधन नहीं है। मैं यहाँ यह बहस नहीं छोड़ना चाहता कि कविता का क्या बनेगा।... काव्य को साहित्य मानता हूँ और मैं उपन्यास और फिल्म को भी काव्य का ही एक रूप मानता हूँ। जैसे-जैसे जीवन पेचीदा होता गया, वैसे ही वैसे काव्य वरण बदलता गया। महाकाव्य उपन्यास बनाऔर नाटक फिल्माकुछ लोग यह कहते हैं कि अच्छी फिल्म केवल वही हो सकती है जो असाहित्यिक हो मैं यह बात नहीं मानता। आप कह सकते हैं कि फिल्म दृष्टि की कला है इसलिए वह साहित्य नहीं हो सकती। साहित्य भी अब दृष्टि की ही कला है। हमने जिस दिन लिखना सीखा था साहित्य ने तो उसी दिन बोलना बंद कर दिया था। हम भी एक किताब हैं जिसे डायरेक्टर हमारे सामने खोलता भी जाता है और पढ़े लिखे हैं तो उसके सुनाए बिना भी हम इस किताब को पढ़ सकते है।""

सिनेमा कला की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह अपने समाज के तत्कालीन प्रभाव को सचित्र दिखाने में सक्षम है। सिनेमा एक बार में करोड़ों लोगों तक पहुँचकर किसी समस्या या संवेदना को व्यक्त कर सकता है जो कोई अन्य माध्यम नहीं कर सकता है।

कला और सिनेमा का संबंध यूं ही विवादित नहीं है दरअसल सिनेमा का एक बहुत बडा. गुण मनोरंजन भी है जबकि कला के बारे में बौद्धिक वर्ग का यह विचार रहा है कि कला मानव जीवन की जीविका और मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि वह उसके मानसिक विकास का प्रमाण है और उसके सृजनात्मकता का चरमोत्कर्ष भी। मनुष्य ने जैसे-जैसे मानसिक विकास किया विभिन्न कलाओं के माध्यम से अपनी रचनात्मकता का परिचय भी दिया। आरंभिक समय में पत्थरों पर फिर कागज पर फिर कैनवास पर और फिर पर्दे पर। सिनेमा नें अपने सामाजिक सरोकारों को हमेशा अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और उसे प्रदर्शित करने का साहस भी किया।

सिनेमा की व्यावहारिक समीक्षा

अपनी नवीन विचारधारा और क्रांतिकारी तेवर के कारण पूरे विश्व में जाने जाने वाले फ्रांस ने ही सिनेमा विधा को भी जन्म दिया। लूमियर बन्धु ह्यआगस्ट और लुईह तथा जॉर्ज मिलिए तीनों फ्रांस के नागरिक थे। लूमियर बन्धु पिछले कई वर्षों से छायांकन के क्षेत्र में अभिनव प्रयोगों में जुटे थे। अपने प्रारंभिक प्रयोगों मे सफलता पाने के बाद उन्हें चलचित्रों का माध्यम यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए सर्वश्रेष्ठ लगा। 28 दिसम्बर 1895 को पेरिस में पहली बार जब उन्होंने स्टेशन पर आ रही रेलगाड़ी, फैक्टरी से छूटने के बाद घर जाने के लिए बाहर आते मज़दूरों तथा बगीचों में पानी देते माली के चलचित्र प्रदर्शित किए तो इन फिल्मों में स्थान/समय तथा परिवेश का प्रमाणिक प्रस्तुतीकरण पूर्ण यथार्थ को जी लेने का एहसास कराता था।