हिंदी सिनेमा एक अध्ययन/2स्वतंत्रयोत्तर हिंदी सिनेमा
स्वतंत्रयोत्तर हिंदी सिनेमा
[सम्पादन](खुशवंत कौर द्वारा प्रकाशित)
अनुक्रमांक – 386
पी.जी.डी.ए.वी (संध्या) कॉलेज
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा का परिचय
[सम्पादन]आजादी के बाद का सिनेमा हिंदी सिनेमा के इतिहास का स्वर्णिमिक अध्याय माना जाता है। वह आजाद मानसिक क्षमता की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है। आजादी के बाद जो भारत हमें मिला वह हमारे सपनों का भारत नहीं था, जिस भारत को हमने पाया वह लहूलुहान था, करा रहा था। सामंती विचारधारा के लोगों ने और अवसरवादियो ने इस समय का प्रयोग अपनी तिजोरिया भरने और जो कुछ बिखर है उसे अपने लिए समेटने में किया। सिनेमा ने भारतीय जनमानस को मानसिक संबध देने और आपसी भाईचारा बढ़ाने में बहुत सहयोग किया इसीलिए कहा गया है कि आजादी के बाद एक दूसरे के बीच वैमनस्य की नींव पड़ गई। जो देश की राष्ट्रीयता एवं संस्कृति के लिए बड़ा खतरा था। अतः कौमी एकता और सांप्रदायिकता सौहार्द उत्पन्न करने के लिए सिनेमा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ’पड़ोसी´ जैसी फिल्म के माध्यम से सिनेमा ने सांप्रदायिक ताकतों पर गहरा प्रहार किया तथा यह संदेश देने का प्रयास किया कि पड़ोसी सिर्फ पड़ोसी होते हैं ना कि हिंदू या मुसलमान। आजादी के तत्काल बदल बनने वाली फिल्मों ने न केवल राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित थी बल्कि इनमें सामाजिक सवालों के रोमानी संवेदनाओं का भी पुट था, इन फिल्मों में हमें देशभक्ति की भावना अधिक दिखाई देती है क्योंकि इस दौर की फिल्मों में आजादी की गूंज भी सुनाई दे रही थी। फिल्मी गीतों में आजादी के जश्न और वीरों की शहादत के गीत एक साथ गए जा रहे थे- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान राष्ट्रीय आंदोलन ने फिल्म जगत को राष्ट्रीय एकता की भावना से आंदोलन कर दिया था। परिणाम आते हैं राष्ट्रीयता का संचार करने वाली फिल्में बनने लगी और उनमें राष्ट्रभक्ति के गीत लगातार गूंजने लगे। "शहीद" (1965) फिल्म के गीत - 'वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो' और प्रदीप के लिखे- 'दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है' जैसे गीत आज भी 15 अगस्त और 26 जनवरी को अनिवार्य रूप से सुनने को मिलते हैं। भारत की आजादी ने कलाओं को मुक्त किया। अब व्यक्ति आजाद था। मानसिक गुलामी से मुक्त होकर कलाकार अपना सृजन करने लगे हालांकि सिनेमा को बहुत अधिक समय नहीं हुआ था लेकिन उसने अपना प्रभाव बहुत तेजी से जनता पर बना लिया था। 1950 के बाद की फिल्मों में भारतीय समाज की तमाम भी संगतियों और उपलब्धियां को एक साथ प्रस्तुत किया गया। फिल्मी गीतों ने जनमानस पर जादू सा असर किया।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा के प्रमुख निर्देशक
[सम्पादन]स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा में कई महान निर्देशकों ने योगदान दिया। कुछ प्रमुख निर्देशकों में शामिल हैं - सत्यजीत रे, मरिनल सेन, ऋतिक घातक, बिमल राय , ऋषिकेश मुखर्जी , गुरु दत्त, श्याम बेनेगल । इन निर्देशकों ने वास्तविक भारतीय जीवन को प्रस्तुत करने के साथ-साथ नई शैलियों और तकनीकों का प्रयोग किया। सत्यजीत रे एक प्रमुख निर्देशक थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों में भारतीय ग्रामीण जीवन और मध्यवर्गीय परिवारों का यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत किया। मरिनल सेन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को केंद्र में रखकर अपनी फिल्में बनाते थे। उनकी फिल्मों में वर्ग संघर्ष, शोषण और असमानता जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाया गया। श्याम बेनेगल ने भारतीय इतिहास, संस्कृति और समाज पर आधारित फिल्में बनाईं। उनकी फिल्में सामाजिक और राजनीतिक चेतना को प्रस्तुत करती थीं, गुरु दत्त एक और प्रभावशाली निर्देशक थे। उन्होंने फिल्मों में गहरे मनोवैज्ञानिक और पारिवारिक मुद्दों को प्रस्तुत किया। उनकी फिल्में जैसे काजल, वज्र और कभी कभी प्रशंसित हैं।आदि ।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा की विशेषताएं
[सम्पादन]स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा की मुख्य विशेषताएं हैं - यथार्थवाद, सामाजिक चेतना, राजनीतिक आंदोलन, मनोवैज्ञानिक गहराई और कला और तकनीक में नवीनता। इस अवधि के सिनेमा ने वास्तविक भारतीय जीवन को प्रस्तुत करने का प्रयास किया, चाहे वह गांव का जीवन हो या शहर का। इसमें तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को भी प्रमुखता से उठाया गया।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा एवं सामाजिक संदेश
[सम्पादन]हिंदी फिल्मी गीतों का समृद्ध इतिहास रहा है। 1950 का दशक आदर्श डोर है इस दौर में फिल्मकारो के दिमाग में भी देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। यह महबूब खान, दिलीप कुमार, राज कपूर, विमल राय, के अब्बास, गुरुदत्त, चेतन आनंद, देव आनंद, का चरम दौर था। इसी दशक में सत्यजीत राय ने भी अपनी सजन चेतन से पूरे भारतीय चिंतन को प्रभावित किया। इस दौर की शुरुआत में "आवारा" जैसी बेहतरीन फिल्म, "मदर इंडिया" और "जागते रहो" जैसी फ़िल्में भी इसी दौर में बनी।
1955 मैं राज कपूर की फिल्म "श्री 420" आई। इस फिल्म में नायक अमीर होने के लिए गलत रहकर चल पड़ता है लेकिन अभिनेत्री अपने आदर्श से जरा भी नहीं डिगती और अंदर है नायक भी आदर्श की ओर लौट आता है। इस दौर की फिल्मों में आदर्श की जीत बहुत आम परिघटना थी प्रगतिशील चेतना का विकास भी इसी समय हुआ फिल्मकारों ने समाज में रोटी कपड़ा मकान के लिए संघर्ष करते जनजीवन को पर्दे पर उतरने का कार्य किया। सिनेमा विद्या की विशेषता यह है कि वह बिना कहे भी सब समझा देने में सक्षम है इस दौर की फिल्मों में आम आदमी की पीड़ा केंद्र में आ गई।
यथार्थवादी की शुरुआत
[सम्पादन]फिल्मी गीतों का 1950 में प्रदर्शित फिल्म "दहेज" ने भारतीय सिनेमा में यथार्थ की ऐसी तस्वीर प्रस्तुत की जिसकी आवश्यकता आज भी समाज को है। दहेज जैसी गंभीर समस्या पर बनी यह फिल्म अपने समय की क्रांतिकारी फिल्म मानी जाती है। ऐसी समाज में जहां स्त्रियों को अपने मन से हंसते कभी अधिकार नहीं था उसे समय में उसके हित के लिए बनाई गई है। फिल्म हिंदी सिनेमा का मील का पत्थर साबित होती है।
1952 में जब प्रथम अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह मुंबई में आयोजित हुआ तब इसका अमित प्रभाव हमें भारतीय सिनेमा पर देखने को मिलता है 1955 में प्रदर्शित सत्यजीत रे की फिल्म "पाथेर पांचाली" ने विश्व स्तर पर भारतीय सिनेमा को स्थापित किया जिससे हिंदी सिनेमा को एक नई पहचान मिली। इसमें विश्व जगत से जुड़ने का रास्ता भी खोल दिया। भारतीय फ़िल्म जगत को अंतरराष्ट्रीय पहचान तब मिली जब इस फिल्म को अभूतपूर्व देसी विदेशी पुरस्कारों के साथ सर्वश्रेष्ठ मानव वृत्त चित्र के कांस्य पुरस्कार भी प्रदान किया गया। हिंदी सिनेमा में नव वास्तविकता वार्ड का प्रभाव तब दिखा जब विमल राय की "दो बीघा जमीन" , देवदास, मधुमति। राज कपूर की "बूट पॉलिश", "श्री 420"; शांतराम की "दो आंखें बारह हाथ" तथा "झनक झनक पायल बाजे", एवं महबूब खान की "मदर इंडिया" प्रदर्शित दर्शित की गई। यह वही समय था जब पहली बार भारत रूस के सहयोग से गुरुदत्त की "प्यासा" तथा "कागज के फूल"; बी. आर. चोपड़ा की "कानून" एवं अब्बास की "परदेसी" जैसी फिल्मों का निर्माण हुआ। फिल्मों का रंगीन होना और उसके बाद मनोरंजन तथा सितारों पर आधारित फिल्मों से फिल्म व्यवसाय में बहुत बड़े स्तर पर परिवर्तन देखने को मिलता है। इस समय की फिल्मों ने भारतीय जनता को मनोरंजन के साथ ही सामाजिक सरोकारों और समस्याओं से भी रूबरू किया इस समय प्रदर्शित "मदर इंडिया" में गांव की कुछ तस्वीर को दिखाया जिसे प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में पेश किया था। महाजन के हाथों किसनो की शोषण एवं उनकी पीढ़ी को बहुत ही मार्मिक ढंग से दिखाया गया। गांव की संस्कृति रीति रिवाज और परंपराओं को मधुर संगीत में लपेटकर सामने रखने के कारण यह फिल्म भारतीय सिनेमा में मिल का पत्थर बन गई। इस फिल्म में नर्गिस ने भारतीय नारी के चरित्र को इस गहराई से निभाया है कि वह किरदार भविष्य में आने वाली अभिनेत्री के लिए चुनौती बन गया और न केवल तब बल्कि आज तक बना हुआ है। 50 से लेकर 70 के दशक को भारतीय सिनेमा का गोल्डन एरा कह सकते हैं। यह वह समय था जब देश आजाद हुआ था पहली बार न केवल हमारा संविधान लिखा गया बल्कि प्रथम लोकसभा चुनाव और पंचवर्षीय योजनाओं के आश्रित विकास की चाहत के सपना लगातार दिखाई जाने लगे। यह सपने सही मायने में सिनेमा ने भी दिखाए, उसे स्टोर में जहां अपनी पंचशील के सिद्धांतों और समाजवाद के ककहरे को समाज के लोगों को सिखा रहे थे वहीं सत्यजीत रे ने अपनी नजर से सिनेमा को बदल दिया। "पाथेर पांचाली" कपूर संसार अपराजिता से उन्होंने देश में जत्थेदार यथार्थवाद सिनेमा की कई लकीर खींची तो वही नेहरू के समाजवाद को राज कपूर ने असल पहचान दिलाई।
इसी दौरान सोहराब मोदी, विमल राय, राज कपूर, गुरु दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी, ने अपनी सिनेमा द्वारा सामाजिक मुद्दों से इतर यथार्थवादी फिल्मों का युग शुरू किया। स्टोर में गुरुदत्त की प्यासा को कैसे भूल सकते हैं जो आदर्शवाद को अपने अंदाज में ठेंगा दिखा रहे थे। इस फिल्म के गीत "जिन्हें नाज़ है हिंद पर वह कहां है" ने तो उसे दौर में नेहरू को कोपभवन में जाने को मजबूत कर दिया था।
1950 के दशक में हिंदी सिनेमा में कुछ ऐसे अध्याय जुड़े जिसने सिनेमा को लोकतांत्रिक बनाने में गहराई से कार्य किया। राज कपूर इसकी सबसे मजबूत कड़ी है। उनकी फिल्मों का नायक आम आदमी है, जो जीवन की बुनियादी आवश्यकता के लिए संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष व्यवस्था में बैठे लोगों से हैं।1950 का दशक हिंदी सिनेमा में बदलाव का दौर लेकर आता है जिसमें सिनेमा की विषय वस्तु भाषा और नायक के रंग ढंग में बदलाव देखने को मिला इस दौर में हिंदी सिनेमा को ऐसे नायक मिले जिन्हें विश्व स्तर पर सफलताएं मिली। पहले की अपेक्षा किस दशक में फिल्म ज्यादा बेहतर ढंग से सुलझाने लगी एवं साफ-साफ अपनी बात रखने लगी। इस समय की फिल्मों में भी गरीबी, भुखमरी, देशभक्ति, एकता, साझी- संस्कृति का रूप देखने को मिलता है। फिल्मकारों ने ऐसी विषयों को उठाने का साहस किया जो समाज का नंगा सच दिखती है। आजादी के बाद का भारत निरीह और बेकार हो गया। बेरोजगारी। अशिक्षा। और पलायन की समस्या इस दौर की फिल्मों का केंद्र है। ऐसी फिल्मों में भी भारत का असली चेहरा दिखता है।
1960 के दशक के बाद का हिंदी सिनेमा कई तरह के विषयों को लेकर प्रस्तुत हुआ सामाजिक मुद्दा हो या घर परिवार रिश्ते की टूटन और कलह विद्रोह हो या प्रेम सभी को पर्दे पर इस तरह चित्रित किया गया कि वह देखने के बाद मस्तिष्क में आजीवन चिंतित हो जाए। तथा इस समय की फिल्मों की एक खासियत और है की असली भारत की तस्वीर या कहीं तो लोग जीवन लोग भाषा लोकगीत खेत खलियान गांव किसान सभी के लिए स्पेस बनाया गया जो सुखद हैं। इस दौर का सिनेमा हमें अपने समाज को संवेदनाओं से जोड़े रखने में पूरी तरह से सफल हुआ हिंदी सिनेमा में आजादी के बाद इस समय अपने युवावस्था में पहुंच चुका था जो अपने सपनों को ऐसी दुनिया का निर्माण करने में व्यस्त हो गया जहां से कई तरह के प्रश्नों का जन्म होता है इस समय एक तरफ वह गंभीर फिल्में बन रही थी तो दूसरी तरफ लोकप्रिय और मनोरंजन करने वाली फिल्में भी बन रही थी। लेकिन दोनों अपने-अपने तरीके से सामाजिक यथार्थ को पूरी तरह से व्यक्त कर रही थी।
"गोदाम" जैसी कालजयी कृति पर बनी फिल्म में ग्रामीण जीवन की ममिक गाथा और उनके संघर्ष को बहुत ही तरीके से पेश किया गया। बाद में शहरी प्रभाव में हिंदी सिनेमा से गांव को लगभग खत्म ही कर दिया । गांव के नाम पर ऐसे स्थानों को दिखाया जाने लगा जो बनावटी से लगते हैं।
इस दशक की शुरुआत ही के आसिफ की फिल्म "मुगले आजम" से हुई जिसने बॉक्स ऑफिस पर नया रिकॉर्ड बनाया। अनारकली और सलीम की प्रेम कथा को मात्र कहानी की विस्तार के लिए थी निर्देशक का निशाना तो कहीं और था। इस समय का सिनेमा यथार्थ के नए आयाम के साथ प्रस्तुत हुआ यह वही समय था जब हमारे देश को अपने ही पड़ोसी राष्ट्र चीन (1962) एवं पाकिस्तान (1965) के धोखे से किए गए आक्रमणों का सामना करना पड़ा। इसी दौर में फिल्म उद्योग में मनोज कुमार जैसी कलाकार का आगमन हुआ जिसने अपने भारत नाम के किरदार के जरिए कई फिल्मों के पात्रों को अमर ही नहीं किया बल्कि पूरे देश में 'भारत' के नाम से मशहूर भी हो गए। 1965 में आई फिल्म "शहीद" में भगत सिंह के किरदार को उन्होंने लगभग जीवन साफ कर दिया था। 'मेरे देश की धरती' के अलावा 'मन्ना डे' द्वारा गया गया और प्राण पर फिल्माया गया गाना 'कसमे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या' का जिक्र किए बगैर उपकार पर कोई बात पूरी हो ही नहीं सकती।
भूमंडलीकरण तौर में ऐसी फिल्मों का निर्माण भी हुआ जिनमें भारतीय प्रवासियों को लुभाने का प्रयास किया गया वह मंडली कारण की प्रक्रिया को स्वीकृति मिलते ही हिंदी फिल्मों को विदेशों में और विदेश की फिल्मों को भारत में प्रदर्शन करने का पूरा मौका मिला।
पंकज दास द्वारा गया गया 'चिट्ठी आई है' ने विश्व रिकॉर्ड बना दिया। इसी दौर में प्रदेश और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे जैसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें विदेश में रहने वाले भारतीय समाज की संवेदना और भावना को बेचने का प्रयास किया गया - 1990 का हिंदी फिल्मों का दशक आर्थिक उदारीकरण का था।
शाहरुख खान इस स्टोर की सबसे सफल फिल्म अभिनेता है। फॉरेन रिटर्न नायको को यह दौर था। 80 के हिंदी फिल्मों का दशक जमींदारी, स्त्री शोषण, भ्रष्टाचार, दोहरी शोषण, लालफीताशाही, सहित उन सभी मुद्दों पर आधारित होता था जो समाज को प्रभावित करते थे। उनका उद्देश्य सिर्फ व्यावसायिक ना होकर सामाजिक प्रतिबद्धता से भी जुड़ा होता था।
बेरोजगारी, अपराध ,और आतंकवाद जैसी समस्याओं को सत्य “हेरा फेरी” , “मिशन कश्मीर”, जैसी अनेक फिल्मों में दर्शाया गया है। 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा में जो परिवर्तन आए हैं वह अश्लीलता की अवधारणा लेकर अवतरित हो रहे हैं ऐसा नहीं है कैसे अश्लील फिल्में ही बन रही है आज भी उद्देश्य पूर्ण फिल्मी बन रही हैं, यथार्थ का समावेश अधिक हुआ है लेकिन दृश्य में जो अश्लीलता आई है वह 19वीं और 20वीं शताब्दी की फिल्मों में अश्लीलता इस हद तक देखने को नहीं मिलती थी। जैसे, अभी "एनिमल" फिल्म आई है, जो पिता को समर्पित की गई है परंतु इस फिल्म को अपने परिवार साथ बैठकर देखा नहीं जा सकता।
निष्कर्ष
[सम्पादन]स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा का भविष्य उज्ज्वल प्रतीत होता है। यह धारा निरंतर प्रगति कर रही है और अब जनता में भी काफी लोकप्रिय हो गई है। नए और प्रतिभाशाली निर्देशकों और लेखकों का उदय हो रहा है, जो इस सिनेमा को नई ऊर्जा और दिशा प्रदान कर रहे हैं। साथ ही, प्रौद्योगिकी के अग्रणी उपयोग और कम बजट फिल्मों के लिए बढ़ते वितरण माध्यमों ने इस सिनेमा के विस्तार में मदद की है। भविष्य में, यह सिनेमा भारतीय सिनेमा की एक प्रमुख धारा बनता रहेगा और दर्शकों तथा आलोचकों दोनों की प्रशंसा प्राप्त करता रहेगा।
हालांकि आज के समय में हिंदी सिनेमा में कुछ सुधार करने की आवश्यकता है, जैसे कि हम देख ही सकते हैं कि आज सिनेमा परिवार में भाई-भतीजावाद हो रहा है जिसके कारण योग्य कलाकार सिनेमा में शामिल नहीं हो पा रहा इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। तथा हिंदी सिनेमा में अश्लीलता को कम कर ऐसी फिल्मों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए जो समाज को सामाजिक संदेश देने में योगदान करें।