हिंदी सिनेमा 2024/मदर इंडिया
Name – kanchan pandey
Roll no.- 21/383
Section – 2
Semester – 6th (3rd year)
Paper – Hindi Cinema Aur Uska Adhyan
Course – BA prog. (History + Political Science)
-मदर इंडिया-
निर्देशक- महबूब खान
प्रदर्शन तिथि- 25अक्तुबर 1957
भाषा- हिन्दी
संगीतकार- नौशाद
रनटाइम- 172 मिनट
लेखक- महबूब ख़ान वजाहत मिर्ज़ा एस अली रज़ा
IMBD- 7.8/10
-विस्तार-
जब किसी 'बाहरी' व्यक्ति को हिन्दी सिनेमा से परिचित कराया जा रहा हो तो उसे जिन फिल्मों को देखने की सलाह दी जाती है, उनमें 'मदर इंडिया' (1957) अग्रणी है। कहा जाता है कि अगर आपने 'मदर इंडिया' नहीं देखी तो हिन्दी फिल्में नहीं देखीं।
आज पुरानी फिल्मों के रीमेक बनाने की होड़ लगी हुई है और ये रीमेक पुरानी फिल्मों के आसपास भी नहीं फटक पाते। सच पूछा जाए तो भारतीय सिनेमा में संभवतः एक ही महान रीमेक बनी है और वह है मेहबूब खान की 'मदर इंडिया'। यह मेहबूब की ही 1940 में आई फिल्म 'औरत' की रीमेक थी। आज यदि किसी हिन्दी रीमेक को 'महान' की संज्ञा दी जा सकती है तो वह 'मदर इंडिया' ही है।
यह दस्तावेज है मनुष्य, खास तौर पर भारतीय ग्रामीण स्त्री की जिजीविषा का। एक कैन्वस है, जिस पर ठेठ हिन्दुस्तानी जीवन की पेंटिंग रची गई है। एक महाकाव्य है, जो समय की सीमाओं से परे हो चुका है।
' मदर इंडिया' कहानी है राधा (नरगिस) की, जो नवविवाहिता के रूप में गाँव आती है और घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ उठाने में पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है।
सुखी लाला (कन्हैयालाल) से लिए गए कर्ज के जाल में परिवार मानो हमेशा के लिए फँस चुका है। खेती मौसम के रहमो-करम पर निर्भर है। गरीबी साया बनकर पीछे पड़ी हुई है। ऐसे में दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गँवाने के बाद स्वयं को बोझ मानकर शर्मिंदा पति श्यामू (राज कुमार) भी साथ छोड़ जाता है। अकेली राधा सारी विपरीत परिस्थितियों से लड़ती है। एक बच्चे को गँवाने के बाद दो बेटों को अकेले बड़ा करती है। इस सबके बीच वह अपने मूल्यों, अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करती।
' मदर इंडिया' में यादगार किरदारों, दृश्यों और गीतों की मानो लंबी श्रृंखला है, लेकिन जो दृश्य इस फिल्म का प्रतीक ही बन गया है, वह है बैल की जगह स्वयं हल खींचकर अपना खेत जोतती राधा उर्फ नरगिस का।
फिल्म के पोस्टरों पर भी यही चित्र हावी था। बुरे से बुरे हालात में भी हार न मानने और अपनी तकदीर स्वयं अपने हाथों से लिखने की जिद का प्रतीक है यह दृश्य। पति नहीं है तो क्या मैं तो हूँ, बच्चों के सिर पर पिता का साया नहीं है तो क्या माँ तो है, हालात साथ नहीं हैं तो क्या हौसला तो है...।
' दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा'। जीना है तो इस माटी से अन्ना उगाना ही है। हल खींचने के लिए बैल नहीं है तो क्या खेत को जोता न जाएगा! मैं हूँ, मेरे हाथ हैं, मेरा दमखम है, मेरा हौसला है...। इस हौसले, इस श्रम, इस हार मानने से इंकार को देखकर आखिर पत्थर बनी धरती को भी पसीजना पड़ता है और 'दुःख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे...' का मंजर सामने आता है