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हिंदी सिनेमा 2024/शोले

विकिपुस्तक से

निर्देशक-रमेश सिप्पी,लेखक-सलीम-जावेद,पटकथा-सलीम-जावेद,निर्माता-गोपाल दास सिप्पी निलकमल दुबे, अभिनेता- १-धर्मेन्द्र २-संजीव कुमार ३-हेमामालिनी ४-अमिताभ बच्चन ५-जया बच्चन ६-अमज़द ख़ान ७-छायाकार ७-द्वारका दिवेचा, संपादक-एम् एस शिंदे,संगीतकार-राहुल देव बर्मन,प्रदर्शन तिथि-15 अगस्त 1975, लम्बाई-204 मिनट,देश-भारत,भाषा-हिन्दी,लागत-₹ 3 करोड़,कुल कारोबार-₹ 15 करोड़ २०१२ में, बॉक्स ऑफिस इंडिया ने शोले की समायोजित शुद्ध सकल कमाई १.६३ अरब रुपये (२५ मिलियन अमेरिकी डॉलर) दर्शायी, जबकि भारतीय फिल्मों के कारोबार पर २००९ की एक रिपोर्ट में अंग्रेजी समाचारपत्र टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसकी समायोजित सकल कमाई ३ अरब रुपये (४६ मिलियन अमेरिकी डॉलर) बतायी थी। इसके बाद फिल्म को 11 अक्टूबर 1975 को दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बंगाल और हैदराबाद जैसे अन्य वितरण क्षेत्रों में रिलीज़ किया गया । यह 1975 की सबसे अधिक कमाई करने वाली हिंदी भाषा की फिल्म बन गई , और फिल्म रैंकिंग वेबसाइट बॉक्स ऑफिस इंडिया ने फिल्म को एक फैसला सुनाया है। ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर का. फ़िल्म की कहानी बहुत ही साधारण है, पर रमेश सिप्पी के निर्देशन ने इसमें अलग ही जान डाल दी थी। सेवानिवृत्त पुलिस अफ़सर ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार), डाकू गब्बर सिंह (अमजद ख़ान) को गिरफ्तार करते हैं, पर वो जेल से भागने मे कामयाब हो जाता है। बदला लेने के लिए वह ठाकुर के परिवार का ख़ून कर देता है। ठाकुर गब्बर को जिंदा पकड़ने के लिए दो बहादुर लोफर जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेन्द्र) की मदद लेता है। रामगढ़ में इनकी मुलाक़ात राधा (जया बच्चन) और बसंती (हेमा मालिनी) से होती है। और फिर शुरू होती है गब्बर को जिंदा पकड़ने की कवायद। विद्वानों ने फिल्म के कई विषयों का उल्लेख किया है, जैसे कि हिंसा की महिमा, सामंती विचारों का परिवर्तन, सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने वालों और संगठित होकर लूट करने वालों के बीच बहस, समलैंगिक गैर रोमानी सामाजिक बंधन और राष्ट्रीय रूपरेखा के रूप में फिल्म की भूमिका। डिसानायके और सहाय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि, हालांकि फिल्म में कई तत्व हॉलीवुड की वॅस्टर्न शैली की फिल्मों से लिये गए थे, विशेष रूप से इसके दृश्य, परन्तु फिर भी यह फिल्म सफलतापूर्वक "भारतीयकृत" थी। उदाहरण के तौर पर, विलियम वैन डेर हाइड ने शोले में एक नरसंहार दृश्य की तुलना वन्स अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट के एक दृश्य से की थी। हालांकि दोनों फिल्में तकनीकी शैली में समान थी, पर शोले ने भारतीय परिवारों के मूल्यों और मेलोड्रामैटिक परंपरा पर जोर दिया, जबकि वेस्टर्न फिल्में दृष्टिकोण में अधिक भौतिकवादी और स्र्द्ध थी। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ हिंदी सिनेमा में मैथिली राव ने नोट किया कि शोले वेस्टर्न शैली को "सामंतीवादी विचार" में ढाल देती है।