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हिन्दी आत्मकथा का इतिहास

विकिपुस्तक से

आत्मकथा स्वानुभूति का सबसे सरल माध्यम है। आत्मकथा के द्वारा लेखक अपने जीवन, परिवेश, महत्त्वपूर्ण घटनाओं, विचारधारा, निजी अनुभव, अपनी क्षमताओं और दुर्बलताओं तथा अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। आत्मकथा का मूल तत्व यथार्थ है। जिस आत्म कथा में यथार्थ की कमी होती है, वह सफल आत्मकथा नहीं होती है।

आरंभिक-युग

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हिन्दी में आत्मकथाओं की एक लंबी परंपरा रही है। हिंदी की प्रथम आत्मकथा बनारसीदास जैन कृत ‘अद्धर्कथा’ (1641 ई.) है। आत्मकथा की मूलभूत विशेषताओं : निरपेक्षता ओैर तटस्थता को इसमें सहज ही देखा जा सकता है। इसमें लेखक ने अपने गुणों और अवगुणों का यथार्थ चित्रण किया है। पद्य में लिखी इस आत्मकथा के अतिरिक्त पूरे मध्यकाल में हिंदी में कोई दूसरी आत्मकथा नहीं मिलती।

अन्य कई गद्य विधाओं के साथ आत्मकथा भी भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में विकसित हुई। भारतेंदु ने अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से इस विधा का पल्लवन किया। उनकी स्वयं की आत्मकथा ‘एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती’ का आरंभिक अंश ‘प्रथम खेल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। उनकी संक्षिप्त-सी आत्मकथा की भाषा आम-बोलचाल के शब्दों से निर्मित हुई है, जो एक तरह से बाद की आत्मकथाओं के लिए आधार दृष्टि का काम करती है। भारतेंदु के अतिरिक्त इस काल के आत्मकथाकारों में सुधाकर द्विवेदीकृत ‘रामकहानी’ और अंबिकादत्त व्यासकृत ‘निजवृतांत’ को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। कलेवर की दृष्टि से इन आत्मकथाओं को भी संक्षिप्त कहा जा सकता है। व्यास जी की आत्मकथा मात्र 56 पृष्ठों की है। इसमें उन्होंने सरल भाषा का प्रयोग करते हुए अपने जीवन संघर्षों को स्वर दिया है।

स्वामी दयानंद सरस्वती की आत्मकथा सन् 1875 में प्रकाश में आई। इस आत्मकथा में दयानंद सरस्वती के जीवन के विविध पक्षों यथा-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा और निर्भीकता आदि का सजीव चित्रण हुआ है। सत्यानंद अग्निहोत्रीकृत ‘मुझ में देव जीवन का विकास’ का पहला खण्ड सन् 1909 में और दूसरा खण्ड सन् 1918 में प्रकाशित हुआ। इस आत्मकथा में आत्मश्लाघा की प्रधानता है। सन् 1921 में भाई परमानंदकी आत्मकथा ‘आपबीती’ प्रकाशित हुई। इसे किसी क्रांतिकारी की प्रथम आत्मकथा माना जा सकता है। इसमें लेखक ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपने योगदान, अपनी जेल यात्रा और अपने ऊपर पड़े आर्य समाज के प्रभाव को रेखांकित किया है। सन् 1924 में स्वामी श्रद्धानंद की आत्मकथा ‘कल्याणमार्ग का पथिक’ प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने अपने जीवन संघर्षों और आत्मोत्थान का वर्णन किया है।

स्वतंत्रता-पूर्व युग

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हिंदी के आत्मकथात्मक साहित्य के विकास में ‘हंस’ के आत्मकथांक का विशिष्ट योगदान है। सन् 1932 में प्रकाशित इस अंक में जयशंकर प्रसाद, वैद्य हरिदास, विनोदशंकर व्यास, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, दयाराम निगम, मौलवी महेशप्रसाद, गोपालराम गहमरी, सुदर्शन, शिवपूजन सहाय, रायकृष्णदास, श्रीराम शर्मा आदि साहित्यकारों और गैर-साहित्यकारों के जीवन के कुछ अंशों को प्रेमचंद ने स्थान दिया है।

इस काल की सबसे महत्वपूर्ण आत्मकथा श्यामसुंदर दास कृत ‘मेरी आत्मकहानी’ (सन् 1941) है। इसमें लेखक ने अपने जीवन की निजी घटनाओं को कम स्थान दिया है। इसकी बजाय काशी के इतिहास और समकालीन साहित्यिक गतिविधियों को भरपूर स्थान मिला है। लगभग इसी समय बाबू गुलाबराय की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा में लेखक ने व्यंग्यपूर्ण रोचक शैली में अपने जीवन की असफलताओं का सजीव चित्रण किया है।

सन् 1946 में राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। सन् 1949 में दूसरा तथा सन् 1967 में उनकी मृत्यु के उपरांत इसके तीन भाग और प्रकाशित हुए। इस बृहत् आकार की आत्मकथा की विशेषता इसकी वर्णनात्मक शैली है।

सन् 1947 के आरंभ में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा इसी शीर्षक से प्रकाशित हुई। इस बृह्दकाय आत्मकथा में राजेंद्र बाबू ने बड़ी सादगी और निश्छलता से स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश की दशा का वर्णन किया है।

स्वातंत्रयोत्तर युग

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सन् 1948 में वियोगी हरि की आत्मकथा ‘मेरा जीवन प्रवाह’ प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा के समाज सेवा से संबंधित अंश में समाज के निम्न वर्ग का लेखक ने बहुत मार्मिक वर्णन किया है। यशपाल कृत ‘सिंहावलोकन’ का प्रथम भाग सन् 1951 में प्रकाशित हुआ। इसका दूसरा भाग सन् 1952 और तीसरा सन् 1955 में आया। यशपाल की आत्मकथा की विशेषता उसकी रोचक और मर्मस्पर्शी शैली है। सन् 1952 में शांतिप्रिय द्विवेदी की आत्मकथा ‘परिव्राजक की प्रजा’ प्रकाशित हुई। इसमें लेखक ने अपने जीवन के प्रारंभिक इकतालीस वर्षों की करुण कथा का वर्णन किया है। सन् 1953 में यायावर प्रवृत्ति के लेखक देवेंद्र सत्यार्थी की आत्मकथा ’चाँद-सूरज के बीरन’ प्रकाशित हुई। इसमें लेखक ने अपने जीवन की आरंभिक घटनाओं का चित्रण किया है।

सन् 1960 में प्रकाशित पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ बहुत चर्चित हुई। इसमें उनके जीवन की विद्रूपताओं के बीच युगीन परिवेश की यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है।

हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा हिंदी की सर्वाधिक सफल और महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है। ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ (सन् 1969), ‘नीड़ का निर्माण फिर’ (सन् 1970), ‘बसेरे से दूर’ (सन् 1977) और ‘दशद्वार से सोपान तक’ (सन् 1985) चार भागों में विभाजित उनकी आत्मकथा इस विधा को नए शिखर पर ले गई। प्रथम खंड में बच्चन जी ने अपने बचपन से यौवन तक के चित्र खींचे हैं। द्वितीय भाग में आत्मविश्लेषणात्मक पद्धति को अधिक स्थान मिला है। तीसरे भाग में लेखक ने अपने विदेश प्रवास का वर्णन किया है तथा चौथे और अंतिम भाग में बच्चन ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों के अनुभवों को संचित किया है। अत्यंत विस्तृत होने के बावजूद बच्चन जी की आत्मकथा की विशेषता उसका सुव्यवस्थित होना है। उनके गद्य की भाषा सहज-सरल है। बच्चन की आत्मकथा ने अनेक साहित्यकारों को अपने जीवन को लिपिबद्ध करने के लिए प्रेरित किया। उनके बाद प्रकाशित आत्मकथाओं में वृन्दावनलाल वर्मा की ‘अपनी कहानी’ ( (सन् 1970), देवराज उपाध्याय की ‘यौवन के द्वार पर’ (सन् 1970), शिवपूजन सहाय की ‘मेरा जीवन’ (सन् 1985), प्रतिभा अग्रवाल की ‘दस्तक ज़िंदगी की’ (सन् 1990) और भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’ (सन् 2003) प्रकाशित हुई। देश विभाजन की त्रासदी को भीष्म साहनी ने जीवंत भाषा में चित्रित किया है। उनकी शैली मर्मस्पर्शी है।

समकालीन आत्मकथा साहित्य में दलित आत्मकथाओं का उल्लेखनीय योगदान है। ओमप्रकाश बाल्मीकि कृत ‘जूठन’, मोहनदास नैमिशराय कृत ‘अपने-अपने पिंजरे’ और कौशल्या बैसंत्री कृत ‘दोहरा अभिशाप’ आदि आत्मकथाओं ने इस विधा को यथार्थ अभिव्यक्ति की नई ऊँचाई पर पहुँचाया है। वर्तमान समय में महिला और दलित रचनाकारों ने इस विधा को गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ा है। इस संदर्भ में मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल की तीन खंडों में प्रकाशित आत्मकथा जनसाधारण में अत्यंत लोकप्रिय हुई क्योंकि यह एक साधारण मनुष्य की असाधारण जीवन के दस्तावेज के रूप में है.

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हिंदी आत्मकथा साहित्य एक लंबी यात्रा के बाद आज उस मुकाम पर पहुँचा है जहाँ वह आत्मश्लाघा के दुर्गुण से मुक्त होकर व्यक्तिगत गुण-दोषों की सच्चाई को बयान करने में सक्षम है।