हिन्दी एकांकी का इतिहास/प्रसादोत्तर युग
प्रसादोत्तर-युग हिन्दी एकांकी के विकास की तीसरी अवस्था है जिसका समय सन् 1938 से 1947 ई. (स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व) तक रहा। इसके भी हम दो उप-सोपान मान सकते हैं :
- (१) 1938 ई. से 1940 ई. तक और
- (२) 1941 ई. से 1947 ई. तक।
प्रथम सोपान अर्थात् इस काल के प्रारम्भिक समय में हिन्दी एकांकी में अपने समय की विभिन्न समस्याओं एवं परिस्थितियों पर तर्क-वितर्क मिलता है। तभी कुछ विचित्र एवं क्रांतिकारी परिस्थितियों ने विषय, शैली, और दृष्टिकोण को भी नया मोड़ दिया। हिन्दी के अनेक एकांकीकार इस समय पाश्चात्य नाट्य शैलियों एवं विकसित प्रवृत्तियों से प्रभावित हो उनका अनुकरण कर रहे थे। इब्सन, विल्यिम आर्चर, बर्नार्ड शॉ आदि ख्याति प्राप्त पाश्चात्य लेखकों का प्रभाव हिन्दी एकांकीकारों पर पड़ ही रहा था। अतः इस युग के एकांकीकारों ने परम्परागत एकांकी-तत्त्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ अभिनव शिल्प-रूपों को भी स्थान दिया तथा विषय की दृष्टि से एकांकी को मात्र मनोरंजन की वस्तु न बनाकर उसमें मानव जीवन की सामयिक समस्याओं एवं विरूपताओं का चित्रण प्रारम्भ कर दिया। अर्थात् इस समय हिन्दी एकांकी आदर्शवाद के एकांगी घेरे से निकल कर यथार्थवाद की ओर बढ़ा। सन् 1940 से 1947 तक का समय भारत के लिए आपत्तियों का समय था। युद्ध की विभीषिकाएं, बंगाल का अकाल, आजादी की हुंकार, विदेशी शासकों के लोमहर्षक अत्याचार, चोर बाजारी आदि इन्हीं सात वर्षों के भीतर की ही बातें हैं। इन सबने हमारे चिन्तन और हमारी कला को प्रभावित किया। एकांकी भी इनसे अछूता नहीं रह सका। कृत्रिमता की बजाय स्वाभाविक और सहज जीवन को प्रतिबिम्बित करने वाले एकांकी की रचना प्रारम्भ हुई। इन एकांकियों में नाटकीय अभिनय के स्थान पर सरल अभिनयात्मक संकेत दिये जाने लगे। इसमें परम्परागत रंगमंच-विधान सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया और उससे सहजता, सरलता, स्वाभाविकता एवं यथार्थ के दर्शन होने लगे। शिल्प विधान के अनावश्यक आडम्बर बन्धन से इस युग का एकांकी साहित्य मुक्त हो गया। संकलन त्रय को वस्तुतः इसी समय एकांकी का अनिवार्य अंग माना जाने लगा। अब एकांकी केवल साहित्यिक विधा ही न रह गयी अपितु इस युग में रंगमंच की स्थापना के साथ उसके स्वरूप में भी अन्तर परिलक्षित हुआ। इस समय तक ‘हंस’ तथा ‘विश्वमित्र’ आदि पत्रिकाओं में एकांकी नाटक एकांकी के नाम से प्रकाशित होने प्रारम्भ हो गये तथा इनकी प्रारम्भिक भूमिकाओं में एकांकी के शिल्प आदि पर विचार प्रस्तुत किये जाने लगे। जिस प्रकार भारतेन्दु-युग और प्रसाद-युग में हिन्दी एकांकी की विविध प्रवृत्तियाँ उभरी थीं उसी प्रकार प्रसादोत्तर युग में भी हिन्दी एकांकी की विविध प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं। वास्तव में प्रस्तुत युग में भी पूर्वयुगीन प्रवृत्तियों को ही आधार बनाकर एकांकियों की रचना हुई किन्तु उनको आदर्शवाद के स्थान पर यथार्थवादी आधारभूमि पर निर्मित किया गया।
प्रसादोत्तर युग में यद्यपि एकांकी की अनेक प्रवृत्तियों को प्रश्रय मिला है तथापि सामाजिक एकांकी की प्रवृत्ति पर लगभग सभी युगीन एकांकीकारों ने अपनी लेखनी चलाई। प्रस्तुत युग के प्रमुख एकांकीकार डा.रामकुमार वर्मा ने तो अनेक सामाजिक समस्या प्रधान एकांकियों की रचना करके हिन्दी एकांकी साहित्य को बहुमूल्य धरोहर प्रदान की है। इन्होंने जीवन की वास्तविकताको अपने एकांकियों का आधार बनाया। इस दृष्टि से इनके ‘एक तोले अफीम की कीमत’, ‘अठारह जुलाई की शाम’, ‘दस मिनट’, ‘स्वर्ग का कमरा’, ‘जवानी की डिब्बी’, ‘आंखों का आकाश’, ‘रंगीन स्वप्न’, आदि एकांकी सामाजिक एकांकी की प्रवृत्ति का प्रतिनिधि त्व करते हैं। वर्मा जी के समान उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’का ध्यान भी विविध वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं की ओर गया। इनकी एकांकी रचनाओं में : ‘चरवाहे’, ‘चिलमन’, ‘लक्ष्मी का स्वागत’, ‘पहेली’, ‘सूखी डाली’, ‘अन्धी गली’, ‘तूफान से पहले’, आदि सामाजिक दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें लेखक ने युगीन सामाजिक रूढ़ियों, परम्पराओं, विरूपताओं विकृतियों, एवं अज्ञानताओं का बड़ा ही प्रभावोत्पादक किन्तु व्यंग्यात्मक चित्र उपस्थित किया है। युगीन एकांकीकार भुवनेश्वर-रचित ‘श्यामा एक वैवाहिक विडम्बना’, ‘स्ट्राइक’, ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ तथा ‘प्रतिमा का विवाह’ आदि प्रसिद्ध हैं। इसमें सामाजिक बाह्याडम्बर, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, यौन विषयक समस्याओं एवं प्राचीन अप्रगतिशील मान्यताओं का चित्रण किया गया है जो मानव जीवन के विकास पथ को अवरुद्ध किए हैं। श्री जगदीश चंद्र माथुरका दृष्टिकोण भी सामाजिक जीवन की समस्याओं के प्रति स्वस्थ एवं उदार रहा है। वे उन एकांकियों को सफल नहीं मानते जो समाज से निरपेक्ष होकर मात्र साहित्यिक विधा बनकर रह जाते हैं। उन्होंने ‘ओ मेरे सपने’ के पूर्व निवेदन में लिखा है कि ‘कौन ऐसा लेखक होगा कि जिसकी कलम पर सामाजिक समस्याएँ सवार न होती हों अनजाने ही या डंके की चोट के साथ ?’ इस विचार के अनुसार उनके ‘मेरी बाँसुरी’, ‘खिड़की की राह’, ‘कबूतर खाना’, ‘भोर का तारा’, ‘खंडहर’, आदि एकांकी उल्लेखनीय हैं। इनमें सामाजिक बन्धनों के प्रति तीव्र विद्रोही भावना व्यक्त हुई है। श्री शम्भुदयाल सक्सेनारचित ‘कन्यादान’, ‘नेहरू के बाद’, ‘मुर्दो का व्यापार’, ‘नया समाज’, ‘नया हल नया खेत’, ‘सगाई’, ‘मृत्युदान’ आदि एकांकी सामाजिक समस्याओं को प्रस्तुत करते हैं। सक्सेना जी पर गाँधीवादी जीवन का प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है। यही कारण है कि इनकी रचनाओं में सादा जीवन का महत्त्व, मानवतावादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा, नैतिक उन्नयन के प्रति आग्रह, बाह्याडम्बर के प्रति घृणा एवं कर्त्तव्य के प्रति जागरूकता के दर्शन होते हैं। हरिकृष्ण प्रेमी ने ‘बादलों के पार’, ‘वाणी मन्दिर’, ‘सेवा मन्दिर’, ‘घर या होटल’, ‘निष्ठुर न्याय’ आदि एकांकी रचनाओं में विविध सामाजिक समस्याओं का अंकन किया है जिनमें विधवा समस्या, ‘नारी की आध ुनिकता’, वर्ग वैषम्य, जातीय बन्धन की संकीर्णता, प्राचीन परम्पराओं एवं मान्यताओं की अर्थहीनता, पुरुष की वासना लोलुपता एवं दुश्चरित्रता आदि का चित्रण प्रमुख रूप के किया है। भगवतीचरण वर्माकृत ‘मैं और केवल मैं’, ‘चौपाल में’ तथा ‘बुझता दीपक’, में पीड़ित मानव की अन्तर्वेंदना का करुण स्वर उभर कर सामने आया है। श्री रामवृक्ष बेनीपुरीरचित ‘नया समाज’, ‘अमर ज्योति’, तथा ‘गाँव का देवता’ आदि रचनाएं सामाजिक समस्या प्रधान हैं। श्री सद्गुरुशरण अवस्थी ने भारतीय संस्कृति के आदर्शों को उपयुक्त एवं उचित तर्को की कसौटी पर कसकर उनको समाज के लिए उपयोगी सिद्ध किया जिनमें बुद्ध, तर्क एवं विवेक का प्राधान्य है। इस दृष्टि से ‘हाँ में नहीं का रहस्य’, ‘खद्दर’, ‘वे दोनों’ आदि विशेष महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त विद्यालंकाररचित ‘प्यास’ तथा ‘दीनू’, श्री यज्ञदत्त शर्माकृत ‘छोटी-बात’, ‘साथ’, ‘दुविधा’, एस.सी. खत्री रचित,‘बन्दर की खोपड़ी’, ‘प्यारे सपने’, श्री सज्जाद जहीररचित ‘बीमार’ आदि रचनाओं में सामाजिक जीवन के सत्य को उभारते हुए और उनका सर्वपक्षीय चित्रण किया गया है।
प्रसादोत्तर युग राजनीतिक क्रांति का युग था। गाँधी जी का प्रभाव राजनीतिक जीवन में विशेष रूप से पड़ रहा था। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार का दमन चक्र भी राजनीतिक क्रांति को कुचलने के लिए तीव्र गति से चल रहा था। एकांकीकारों ने तत्कालीन राजनीतिक समस्याओं एवं गतिविधियों का चित्रण करना तथा देशवासियों में देशप्रेम एवं स्वतंत्रता की भावना को प्रबल करना अपना महान कर्त्तव्य समझा। श्री भगवती चरण वर्मा ने ‘बुझता दीपक’ में राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस के उच्च पदाधिकारियों अथवा नेताओं के खोखलेपन पर भी व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। श्री हरिकृष्ण प्रेमीने अपनी राजनीतिक रचनाओं में राष्ट्र के नवनिर्माण, देशभक्तों भारतीय नेताओं एवं जनता के स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किये जाने वाले कार्यों, हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष, साम्प्रदायिक एकता की आवश्यकता, दासता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए कृत संकल्प देशभक्तों की चारित्रिक महानता आदि को चित्रित किया है। इस दृष्टि से इनकी ‘राष्ट्र मन्दिर’, ‘मातृ-मन्दिर’, ‘मान-मन्दिर’ तथा ‘न्याय मन्दिर आदि उल्लेखनीय रचनाएं हैं। श्री लक्ष्मी नारायण मिश्ररचित ‘देश के शत्रु’ शीर्षक एकांकी में उन स्वार्थलोलुप व्यक्तियों पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया गया है जो अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति हेतु देश के प्रति अपने कर्त्तव्य को भुलाकर देशद्रोही बन बैठे हैं। जगदीश चंद्र माथुररचित ‘भोर का तारा’ शीर्षक एकांकी में देशभक्त कवि के महान बलिदान की कहानी है। डा. सुधीन्द्ररचित ‘खून की होली’, ‘नया वर्ष’, ‘नया संदेश’, ‘राखी’, ‘संग्राम’ आदि तथा चन्द्रगुप्त विद्यालंकाररचित ‘कासमोपोलिटन क्लबों’ आदि रचनाएँ राजनीतिक भावना से ओतप्रोत हैं। इस प्रकार युगीन एकांकीकारों ने राजनीतिक भावना से प्रभावित होकर राष्ट्रीयता का स्वर अपनी रचनाओं में प्रस्फुटित किया है।
आलोच्य युग में कुछ देशद्रोही वैयक्तिक स्वार्थों के कारण ब्रिटिश शासकों का साथ दे रहे थे। ऐसे देश-द्रोहियों को देशभक्ति की शिक्षा देने की दृष्टि से एकांकीकारों ने ऐतिहासिक पात्रों के आदर्श एवं त्यागमय चरित्र को प्रस्तुत करके प्राचीन भारतीय गौरव की ओर ध्यान भी आकर्षित करवाया। डॉ. वर्मा के ऐतिहासिक एकांकियों में ‘चारुमित्रा’, ‘पृथ्वीराज की आँखें’, ‘दीपदान’, ‘रात का रहस्य’, ‘प्रतिशोध’, ‘राज श्री’, आदि प्रमुख हैं। जगदीशचन्द्र माथुर ने ‘कलिंग विजय’, तथा ‘शारदीया’, शीर्षक एकांकियों की रचना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर की है तथा भारतीय सांस्कृतिक वातावरण का प्रभावोत्पादक स्वरूप चित्रित किया है। राष्ट्रीय ऐतिहासिक भावना पर ‘सिकन्दर’, ‘जेरुसलम’ आदि एकांकियों की रचना करके भुवनेश्वर प्रसाद ने अपने देश प्रेम का परिचय दिया है।
हरिकृष्ण प्रेमीरचित ‘मान मन्दिर’, ‘न्याय मन्दिर’, ‘मातृ भूमि का मान’, ‘प्रेम अन्धा है’, ‘रूपशिखा’ आदि राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत ऐतिहासिक रचनाएं हैं। श्री यज्ञदत्त शर्मारचित ‘प्रतिशोध’ तथा ‘हेलन’ में भारत के गौरवमय अतीत की झाँकी प्रस्तुत की गई है। डा. सत्येन्द्ररचित ‘कुणाल’, ‘प्रायश्चित, ‘विक्रम का आत्ममेघ’ में प्राचीन कथानक लेकर स्वस्थ तथा तार्किक विचारधारा का प्रतिपादित किया गया है। भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा, अतीत कालीन भारतीय गौरव की महत्ता तथा नागरिकों के चारित्रिक बल की अभिवृिद्ध करने वाले आदर्श पात्रों की सृष्टि करके लेखक ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में सहयोग प्रदान किया है। गिरिजाकुमार माथुररचित ‘विषपान’, ‘कमल और रोटी’, ‘वासवदत्ता’ आदि में देशभक्तिपूर्ण आत्म वलिदान तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किये गये शौर्यपूर्ण कार्यों का चित्रण है। श्री रामवृक्ष बेनीपुरीरचित ‘संघमित्रा’, ‘सिंहल विजय’, ‘नेत्रदान’, ‘तथागत’, आदि इतिहास प्रसिद्ध घटनाओं पर आधारित हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रसादोत्तर युग में अनेक एकांकीकारों ने बहुत बड़ी संख्या में ऐतिहासिक पृश्ठभूमि के आधार पर एकांकियों की रचना करके प्राचीन भारतीय गौरव को वर्तमान के समक्ष रखा है।
धर्म-प्रधान देश के नागरिक होने के कारण भारतीय हिन्दी एकांकीकारों ने अपने एकांकियों की रचना धार्मिक आधार पर करने की प्रवृत्ति इस युग में भी नहीं छोड़ी। श्री शम्भुदयाल सक्सेनाने विशेष रूप से धार्मिक पौराणिक प्रसंगों पर आधारित एकांकियों की रचना की है। इन्होंने प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा करने की दृष्टि से उन गौरवशाली चित्रों को उपस्थित किया जिन्होंने भारतीय हिन्दू संस्कृति की मर्यादा को बनाये रखा। इनके द्वारा रचित ‘सीताहरण’, ‘शिला का उद्धार’, ‘उतराई’, ‘सोने की मूर्ति’, ‘विदा’, ‘वनपथ’, ‘तापसी’, ‘पंजवटी’ आदि एकांकी प्रमुख हैं। लगभग सभी एकांकियों में हिन्दू संस्कृति की महत्ता भारतीय आर्य सभ्यता के उच्चादर्शों, बौद्ध धर्म की भव्यता तथा भारतीय नैतिक दृष्टिकोण की श्रेष्ठता के स्वरूप का चित्रण किया गया है। डा. रामकुमार वर्माने ‘अन्धकार’ तथा ‘राजरानी सीता’, शीर्षक एकांकियों में पाप, पुण्य, प्रेम तथा वासना संबंधी प्रश्नों को उठाते हुए यह चित्रित किया है कि प्रेम के बिना वासना असम्भव है। लक्ष्मीनारायण मिश्ररचित ‘अशोक वन’, शीर्षक एकांकी में लेखक ने सीता के आदर्श चरित्र की विशेषताओं, पतिव्रत, चारित्रिक बल, तार्किक बुद्ध तथा सात्विक प्रवृत्ति की आकर्षक झांकी प्रस्तुत करके नीति एवं मर्यादा पर विशेष बल दिया है।
प्रो. सद्गुरुशरण अवस्थीरचित ‘कैकेयी’, ‘सुदामा’, ‘प्रींद’, ‘शम्बूक’, ‘त्रिशंकु’ आदि एकांकियों में प्राचीन पौराणिक एवं धार्मिक पात्रों को मौलिक ढंग से नवीन तर्क, विचार, आदर्श एवं नैतिक तत्वों सहित प्रस्तुत किया है। तथा इन पात्रों के माध्यम से प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का गौरव गुणगान किया है। अवस्थी जी ने अतीत की व्याख्या आधुनिक तथा नवीन दृष्टिकोण से की है।
आलोच्य युग में अनेक एकांकीकारों ने अनेक हास्य व्यंग्य प्रधान एकांकियों की रचना करके विभिन्न समसामयिक समस्याओं की अभिव्यक्ति एवं समाधान प्रस्तुत किया है। इन एकांकीकारों ने उन विभिन्न समस्याओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। जो सामाजिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक जीवन के लिए अभिशाप बनी हुई थीं। उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ने विशेष रूप से इस श्रेणी के एकांकियों की रचना की। इनकी ‘कइसा साब काइसी बीबी’, ‘जोंक’, ‘पक्का गाना’, ‘घपले’ आदि रचनाएँ हास्य व्यंग्य प्रधान हैं। भगवती चरण वर्मारचित ‘दो कलाकार’ तथा ‘सबसे बड़ा आदमी’, में हास्यमय वातावरण की सृष्टि करते हुए व्यंग्यात्मक प्रहार किये गये हैं। गिरिजाकुमार माथुर‘बरात चढ़े’, ‘मध्यस्थ’, ‘पिकनिक’, श्री पृथक््वीनाथ शर्मारचित ‘मुक्ति’ तथा डा.रामकुमार वर्मारचित ‘रूप की बीमारी’ आदि रचनाएं हास्य व्यंग्य प्रधान हैं।
मनोवैज्ञानिक एकांकी की प्रवृत्ति का जन्म भी प्रसादोत्तर युग में हुआ। पाश्चात्य एकांकीकारों के प्रभावस्वरूप हिन्दी एकांकीकारों ने भी पात्रों के मन की गहराइयों में पहुंचकर उनके मनोभावों के चित्रण को परमावश्यक समझा। जगदीशचन्द्र माथुररचित ‘मकड़ी का जाला’ शीर्षक एकांकी में अतीत की घटनाओं को स्वप्न के माध्यम से चित्रित करते हुए अवचेतन मन की ग्रंथियों का अत्यन्त कलात्मक ढंग से चित्रण किया है ‘भुवनेश्वर प्रसाद’रचित ‘ऊसर’, ‘प्रतिमा का विवाह’ तथा ‘लाटरी’ आदि मनोविश्लेषण प्रधान मनोवैज्ञानिक रचनाएं हैं। इन रचनाओं पर प्रफायड के मनोविज्ञान का स्पष्ट प्रभाव है। श्री शम्भुदयाल सक्सेनारचित ‘जीवन धारणी’, ‘नन्दरानी’, ‘पंचवटी’ आदि, गिरिजाकुमार माथुररचित ‘अपराधी’, श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’रचित ‘छटा बेटा’, ‘भंवर’, ‘अंधी गली’, ‘मेमना’, ‘सूखी डाली’ आदि मनोवैज्ञानिक रचनाएं हैं। इन एकांकियों में मन की अतृप्त इच्छाओं, महत्वकांक्षाओं तथा मन की दलित अनुभूतियों का सजीव चित्रण किया गया है।
इस प्रकार, प्रसादोत्तर युग में पहुंचकर, हर दृष्टि से एकांकी साहित्य का एक स्वतंत्र अस्तित्व परिलक्षित होता है। अनेक पाश्चात्य नाटककारों जैसे इब्सन, शॉ, गाल्सवर्दी, चेखव आदि एकांकीकारों की रचनाओं का हिन्दी अनुवाद प्रारम्भ हो गया था। इन अंग्रेजी एकांकियों के हिन्दी अनुवादों की माँग रेडियो के क्षेत्र में अधिक थी। प्रो. अमरनाथ गुप्त ने ए. ए. मिलन के एकांकी का हिन्दी अनुवाद किया। कामेश्वर भार्गव द्वारा ‘पुजारी’ शीर्षक हिन्दी अनुवाद प्राप्त हुआ जो ‘विशप्स कैन्डिलस्टिक्स’ का हिन्दी अनुवाद है। इसके अतिरिक्त हैराल्ड व्रिगहाउस की रचनाओं के भी हिन्दी अनुवाद हुए। इस प्रकार आलोच्य युगीन एकांकीकारों ने विभिन्न नवीन प्रयोगों के द्वारा हिन्दी एकांकी साहित्य को समृिद्धशाली बनाया गया।