हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल)/घनानंद
- रीतिकाव्य-संग्रह; जगदीश गुप्त; साहित्य भवन प्रा. लि.; इलाहाबाद; प्रथम संस्करण; १९६१ ई.
- छंद संख्या- ३, १४, १६, १८, २३, २४
रावरो रुप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।
एक ही जीव हुतौ सु तौ बारयौ सुजान सकोच औ सोच सहारियै।
रोकी रहै न,दहै घनआनंद बावरी रीझ के हथनि हारियै।।3।।
स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सौहै अमावस-अंक उज्यारी।
धूप के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग-सीतलता-सुख-कारी।
कै छवि छायो सिंगार निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी।
कैसी फ़बी घनआनँद चोपनि सों पहिरी चुनि साँवरी सारी॥14।।
एरे बीर पौन!,तेरो सबै ओर गौन, बीरी
तो सों और कौन,मनैं ढरकोहीं बानि दै।
जगत के प्रान,ओछे बड़े सों समान घन
आनंद निधान,सुखदान दुखियानि दै।
जान उजियारे गुन भारे अन्त मोही प्यारे,
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै।
बिरह बिथा की मूरि आँखिन में राखौ पूरि,
धूरि तिनि पायनि की हाहा नैकु आनि दै।।6।।
परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ।
घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥
18।।
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
23।।
मेरोई जीव जौ मारत मोहिं तौ प्यारे कहा तुम सों कहनो है।
आँखिन हूँ पहचानि तजी,कुछ ऐसेई भागनि को लहनो है।
आस तिहारियै हौं ‘घनआनन्द कैसे उदास भए दहनो है।
जान हवै होत इते पै अजान जो ,तौ बिन पावक ही दहनो है।।
24।।