हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल)/बिहारी

विकिपुस्तक से
  • रीतिकाव्य-संग्रह, जगदीश गुप्त, ग्रंथम, कानपुर, १९८३ ई.
    • छंद संख्या- ९, १३, १८, २१, ५८, ६६, ६७
बिहारी के
छंद

तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।9॥

( अर्थ )-हे प्रवीण राधे !सुन, [ तू तो ऐसी सुंदर है कि और की कौन कहे, इंद्र की अप्सरा] उर्वशी को [ भी ] में तुझ पर वार हूँ । तू [ तो मोहन के उर में उरबसी [ भूषण ] के समान हो कर बसी है [ फिर दूसरी उनके उर में कैसे बस सकती है ] ॥[१]

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।13॥

( अर्थ )-न [ तो इसमें ] अभी पराग ( पुष्प-रज अर्थात् जवानी की रंगत ), न मधुर मधु (मीठा मकरंद अर्थात् सरसता), [ और] न विकास ( खिलावट अर्थात् यौवन के कारण अंगों में प्रफुल्लता ) [ ही ] है। हे भ्रमर, [ तू ऐसी कंज की ] कली ही से बँधा है। ( अपने सब कर्तव्य छोड़ कर उसी में लवलीन हो रहा है ), [ तो ] आगे [ चल कर जब उसमें पराग, मकरंद तथा विकास का आगमन होगा, तो फिर तेरी ] क्या दशा होगी ॥[२]

अंग अंग नग जगमगत दीपसिखा-सी देह।
दिया बढ़ाऐं हू रहै बड़ो उज्यारो गेह॥18॥

( अवतरण )—सखी नायक से नायिका की छवि की प्रशंसा करती है।

( अर्थ ) [ उसके ] अंग अंग के [ आभूषणों के ] नग [ उसकी ] दीपसिखा सी देश से जगमगारी हैं । [ अतः ] दीपक बुझा देने पर भी घर में बड़ा उजाला ( प्रकाश ) रहता है ।

जिस घर गें बहुत से दर्पण लगे रहते हैं, उसमें एक ही दीपक रखने से, सब दर्पण मैं उसका प्रतिबिंब पड़ने के कारण, बहुत प्रदिश हो जाता है ।[३]

गदराने तन गोरटी ऐपन आड़ लिलार।
हूठ्यौ दै इठलाइ दृग करै गँवारि सु मार॥21॥

गदराने = पकने पर छाए , जवानी पर आए हुए ॥ गोटी= गोरे शरीर वाली’॥ पेपन =

चावल और हलदी को पानी में पीस कर बनाया हुआ एक प्रकार का अवलेपन ॥ इठयौ वार नियाँ जब इठलाती अथवा किसी को बिराती हैं, तो दोन हाथों को मुट्ठी बाँध कर कटिस्थल पर रख लेती हैं। इस क्रिया को झूठा देना कहते हैं ॥ वार = चोट, आक्रमण ॥

( अवतरण ) किसी गंवार स्त्री को इठलाते देख कर नायक स्वगत कहता है

( अर्थ ) [ यह ] गदराए हुए तन वाली गोरी गँवारी, जिसके ललाट पर घेपन का आड़ा तिलक लगा हुआ है, हूँठा के, इठला कर दृगों से [ कैसी ] सू ( सच्ची, अचूक ) वार करती है ।[४]

स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।58॥

भूषन भार सँभारिहै, क्यों यह तन सुकुमार।
सूधे पाय न परत हैं, सोभा ही के भार॥66॥

( अवतरण )-नायिका अपने यौवन तथा रूप की ऍड से लचकती हुई पाँव रखती है, जिससे सब क्रिया के करने में विलंब होता है। अतः दूती, जो उसको शीघ्र अभिसार कराया चाहती है, उसके सौकुमार्य की प्रशंसा करती हुई, बड़ी चातुरी से, उसको भूषणादि सजित करने के बछड़े में देर लगाने से वारण करती है--

( अर्थ )-[ तू ] इस सुकुमार तन पर भूषण का भार क्योँकर संभालेगी? [ तेरे ] पाँव [ तो ] शोभा ही के भार से धरा ( पृथ्वी ) पर सीधे नहीं पड़ते ॥[५]

कहत सबै, बेंदी दिये, ऑंक हस गुनो होत।
तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥67॥

संदर्भ[सम्पादन]

  1. जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'(सं.)-बिहारी रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृ १७
  2. जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'(सं.)-बिहारी रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृ २२
  3. जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'(सं.)-बिहारी रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृ ३४
  4. जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'(सं.)-बिहारी रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृ ४३
  5. जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'(सं.)-बिहारी रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६,, पृ १३४