हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल)/सूरदास

विकिपुस्तक से
सूरसागर- गोकुल लीला
सूरदास


सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरे पैया ।
कबहुँक सुंदर बदन विलोकति, उर आनंद भरि लेत बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ।
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति , इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥20॥

भावार्थ:-
 इस पद मे सूरदास जी ने वात्सल्य का अनोखा वर्णन किया है इस पद मे माता यशोदा कान्हा को चलाना सिखा रही है।कान्हा जब चलते समय धरती पर डगमग जाते है तो माता यशोदा उनको अपनी ऊँगली पकड़ा देती है जब वह अपने डगमगते चरणों से वह पृथ्वी पर चलते है तो माता यशोदा उनकी नजर उतारती है जिसके कारण वह आनंद से जी उठती है, वह आनंद का पूर्ण अनुभव करती है और अपने कुल देवता को मानने लगती है,वह नजर उतराते हुए अपने लाल की लम्बी आयु की प्रार्थना करती है वह कहती है कि भगवान मेरा लाल को लम्बी आयु मिले,वह बलराम को आवाज लगाकर कहती है कि अब तुम दोनों इसी आँगन मे मेरे सामने खेलों। इस पद मे सूरदास जी ने वात्सल्य, माता पुत्र के प्रेम को दिखाया हे कि माता अपने बालक को बिना किसी लोभ के प्रेम करती है सूरदास जी के लिए राम चन्द्र शुक्ल जी ने कहा है कि सूरदास वात्सल्य का कोना-कोना जानते हैं ।सूरदास जी कहते है कि मेरे स्वामी की यह लीला है की मेरे प्रभु की कृपा बढा गई है।।20।।

मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी ?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी ।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढँत-गुहत न्हवावत जैहै नागिन सी भुइँ लोटी ।
काचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥26॥

भावार्थ:-
 इस पद मे सूरदास जी ने कृष्ण की बाल लीला का वर्णन किया है यह पद रामकली राग में है यह पद बहुत सरस है इस पद मे कान्हा की उस बाल लीला का वर्णन है जब माता यशोदा कान्हा को पीने के लिए दूध देती थी और कान्हा दूध पीने मे नखरे दिखाते थे तब माता यशोदा कान्हा को दूध पिलाने के लिए लालच देती थी ताकि कृष्ण दूध पीले,कान्हा मइया से बोलते है कि मइया कब बढेगी चोटी मेरी,कितने दिन दूध पीते हो गए ,लेकिन अभी भी है यह छोटी की छोटी है,तू कहती थी कि मेरी चोटी दाऊ की तरह लम्बी और मोटी हो जाएगी, वह कहते हैं कि तू मुझे रोज सुबह जल्दी उठातीं थी और निहारती थी, और मेरी कँघी करके मेरी चोटी गूँथथी थी और वह चोटी नागिन सी
बलखाती तू अकेली-अकेली खुद माखन रोटी खेलती है और मुझे कच्चा दूध पिलाती है। वह कहते हैं कि दाऊ की चोटी चिंरजीवी जिए। सूरदास जी कहते है कि कृष्ण और दाऊ की जोड़ी हमेशा बनी रहे ।

हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौं नाचत , मनहिं मनहिं रिझावत ।
बाँह उठाइ काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ।
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ मैं, लौनी लिए खवावत ।
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत ॥27॥

मैया मैं नहिं माखन खायौ ।
ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरै मुख लपटायौ ।
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचे धरि लटकायौ ।
हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसें करि पायौ ।
मुख दधि पोंछि, बुद्धि एक कीन्ही, दोना पीठि दुरायौ ।
डारि साँटि मुसुकाइ जसोदा, स्यामहिं कंठ लगायौ ।
बालबिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ ।
सूरदास जसुमत कौ यह सुख, सिव बिरञ्चि नहिं पायौ ॥60॥

भावार्थ:-
इस पद मे सूरदास जी ने कृष्ण की उस बाल लीला का वर्णन करते हैं जब वह माखन चुराकर खाया करते थे। कृष्ण इस पद मे कहते हैं मइया मैंने माखन नही खाया यह माखन जो तू मेरे मुँह पर लगा देख रही है वह माखन तो मेरे दोस्तों ने मेरे मुँह पर लगा दिया है। मै माखन कैसे खाऊँगा मै छोटा सा नन्हा सा बालक हूँ ।तू तो माखन इतना ऊँचा लटका देती है तू भी माखन निकालने के लिए किसी साधन का प्रयोग करती है,तो मै कैसे निकाल पाऊँगा मेरे छोटे-छोटे हाथ व पैर है।तूने माखन इतना ऊँचा लटका रखा है।कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछ छिपा लिया ।कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन मुस्कराने लगी और कन्हैया की बात सुनकर उन्होंने छडी फेंक कर उन्हें गले से लगा लेती है, कन्हैया माता यशोदा को कहते हैं कि मै सौतेला हूँ न इसलिए तू मेरे साथ ऐसा व्यवहार करती है ।सूरदास जी को जिस सुख की अनुभूति हुई वह सुख शिव व ब्रह्मा को भी दुर्लभ है । श्रीकृष्ण ने बाल लीलाओ के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि भक्ति का प्रभाव कितना महत्वपूर्ण है ।

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सन्दर्भ[सम्पादन]

सूरसागर-सार, संपा. डॉ. धीरेंद्र वर्मा; साहित्य भवन, १९९० ई.