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हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल) सहायिका/कबीर के दोहों की व्याख्या

विकिपुस्तक से

कबीर के दोहे को व्याख्या -

      साखी
  सांच कौ  अंग

१) कबीर पुंजी साह की,तूं जिनि खोवे ख्वार।

  खरी बिगूचनि होइगी,लेखा देती बार।।

व्याख्या -कबीरदास जी भौतिक संसार में रमे मनुष्य को सचेत करते हैं कि जो पूंजी (धन दौलत) उसके पास है वह ईश्वर द्वारा ही प्राप्त हुआ है उसको उस पर घमंड नहीं करना चाहिए, दूसरों को नीचा नहीं समझना चाहिए, भेदभाव नहीं करना चाहिए, भेद- भाव,दुशकम नहीं करना चाहिए वरना इसके कारण उसको ईश्वर के सामने लज्जित होना पड़ेगा। बार-बार ईश्वर उसको चेतावनी देता है कि जो हमारे पास है उस पर हमें झूठा अभिमान नहीं दिखाना चाहिए।

     भेष कौ अंग

२) कबीर माला काठ की,कहीं समझावे तोही।

  मन ना फिरावै आपणा,कहां फिरावै मोहि।।


व्याख्या- कबीर दास का नाम समाज सुधारकों में अगृड़ी रूप से लिया जाता है। वह धर्म में फैले कुरीति और अंधविश्वास को सिरे से नकारते हुए कहते हैं कि लकड़ी की माला फिराने से कुछ नहीं होगा, माला फिराते फिराते तो युग बीत जाता‌ है। इसलिए वह कहते हैं यह दिखावे व्यर्थ हैं- जैसे बाल मड़वाना, तिलक लगाना, व्रत रखना, ईत्यादि।इन सबको छोड़ देना चाहिए और अपना मन फिर आना चाहिए,अपना हृदय ईश्वर में लगाना चाहिए। यह करने से मन में शुभ विचार आते हैं और मन हमेशा खुश रहता है।यह सब आडंबर हैं अपने हृदय को अपने मास्तिक को स्वच्छ साफ और निश्चल रखिए ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होगी और उसे ढूंढने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना, अपने अंदर स्वय खोजना है। ईश्वर अपने अंदर ही विराजमान है बस उसे ढूंढने की जरूरत है अपने हृदय में।

३) कबीर माला पहर्या कुछ नहीं,गाठि हिरदा की

  खोइ।          
  हरि चरनौं चित्त राखिए,तौ अमरापुर होइ।।

व्याख्या- कबीरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि मनुष्य माला पहनता है, सर मुंडवाता है, तरह-तरह के दिखावे करता है,भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वांग रचता है ।यह सब करते हुए भी उसके हृदय में वासना, लालच, छल, कपट होता हैैै वह दूसरों के बारे में बुरा सोचता है दूसरों की बुराइयांं करता है,वह बाहर से खुद को अच्छा दिखाता है परंतु उसके दिल में खोट होती है। कबीर ऐसे पाखंडीी भक्त को समझाते हुए कहते हैं की लकड़ी की माला फेरने या सिर मुंडवाने की बजाय उसे अपने मन को साफ तथा निर्मल करना चाहिए मन और हृदय में परिवर्तन लाना चाहिए अन्यथा यह सब नाट्कीय उपक्रम बेकार साबित होंगे तथा मनुष्य को अमृत्व की प्राप्ति तभी होगी जब वह भगवान के चरणों में अपने आपको सच्चे मन से अर्पित कर दें।

४) कबीर केसों कहा बिगाड़ियां, जे मुडै सौ बार

  मन कौ काहे न मूंडिए,जामै बिषै बिकार।।

व्याख्या-कबीरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि लोग भिन्न भिन्न प्रकार के आडंबर रचते हैं, ढोंग करते हैं, कोई माला पहनता है तो कोई बली चढाता है, तो कोई अपने बालों को मुडवाता है, कबीरदास जी इन व्यक्तियों को समझाते हुए कहते हैं कि उसके केसो(बालों) ने उनका क्या बिगाड़ा है जो वह उसे बार-बार मुंडा देते हैं। यह सब तो दिखावा है दूसरों को दिखाने के लिए। सबसे जरूरी है अपने मन को मोड़ना, मन को मनाना जिसमें सबसे ज्यादा बुराइयां भरी हुई है। हम इतना कुछ करते हैं फिर भी हमारा मन हमें नचाता रहता है, हम खुश नहीं रहते, हैं मन शांत नहीं रहता। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने मन को खत्म कर दें, क्योंकि जब तक यह रहेगा तरह-तरह की बुराइयां मन में आएंगी। अतः कबीरदास जी दोहे में कहना चाहते हैं बाल मुंडवाने से अच्छा हम अपने मन को खत्म करें क्योंकि इसे जितना मिलेगा उसे और चाहिए होगा, तो इसका कोई अंत नहीं है। सारे विषै विकार मन में ही होते हैं तो हमें पहले इसको बदलने की जरूरत है ना कि दिखावा करने कि।

      संमृथाई कौ अंग
५) कबीर साइ सू सब होत है, भदै थै कुछ 
   नांही।  
   राई थै पर्वत करे, पर्वत राय माहि।।

व्याख्या-कबीरदास जी इस दोहे में ईश्वर की शक्ति पर प्रकाश डालते हैं। वह कहते हैं कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है, सब कुछ उसके हाथ में ही हैं। वह राजा को रंक तो रंक को राजा भी बना सकता है। उसमें इतनी शक्ति है। वह कहते हैं कि ईश्वर ही सब कुछ होता है, हम सेवक उसके सामने कुछ नहीं है। कबीर ईश्वरीय शक्ति को संसार और जीवन का एकमात्र आधार मानते हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर अपनी इच्छा से राई को पर्वत बना देता है, तो पर्वत को राई में परिवर्तित कर देता है। ऐसे में ईश्वर की सत्ता के समक्ष मनुष्य का हम तुछ और हास्यास्पद है।

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वस्तुत: प्रस्तुत साखियां लोकजीवन, लोगधर्म, और लोकाचार की सीमा को चीरते हुए, क्षण भंगुर सुख- सुविधाओं और कमृकाण्डी पाखंडों में उलझे मनुष्य को सचेत कर उसको प्रभु भक्ति और जीवन के सच्चे रसते की ओर सादगी पूर्ण आचरण के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।



            धन्यवाद