हिन्दी कहानी/पुरस्कार
पुरस्कार
जयशंकर प्रसाद
आर्द्रा नक्षत्र आकाश में काले काले बादलों की घूमड़, जिसमें देव-दुंदुभी का गंभीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण पुरुष झांकने लगा था। देखने लगा महाराज की सवारी।
शैलमाला के अंचल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामधारी शुण्ड उन्नत दिखाई पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।
प्रभात की हेम किरणों से अनुरंजीत नन्हीं नन्हीं बूंदों का एक झोंका स्वर्ण मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष ध्वनि की। रथों, हाथियों और अश्वारोहीयों की पंक्ति थी। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी।
गजराज बैठ गया, सीढ़ियों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुंदरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल कलश और फूल, कुसुम तथा खीलों से भरे खाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े।
महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी। पुरोहित वर्ग ने स्वस्त्ययन किया । स्वर्ण रंजीत हल की मूठ पकड़कर महाराज ने जूते हुए सुंदर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारीयों ने खीलों और फूलों की वर्षा की।
कौशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था। एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ाता उस दिन इंद्र पूजन की धूम-धाम होती गोठ होती। नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनंद मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से संपन्न होता, दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते।
मगध का एक राज कुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था। बीजों का एक थाल लिए कुमारी मधुलिका महाराज के साथ थी। बीज होते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधुलिका उनके सामने थाल कर देती।
यह खेत मधुलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधुलिका को ही मिला।
वह कुमारी थी, सुंदरी थी। कौशेय वसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे संभालती और कभी अपनी रूखी अलकों को। कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौयों में गुँथे जा रहे थे किंतु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं कि।
सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे-विस्मय से, कुतूहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधुलिका को। आह !कितना भोला सौंदर्य ! कितनी सरल चितवन !
उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया। महाराज ने मधुलिका के खेत को पुरस्कृत किया, थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएं। वह राजकीय अनुग्रह था। मधुलिका ने थाली सिर से लगा ली
किंतु साथ ही उन स्वर्ण मुद्राओं को महाराज पर न्योछावर कर के बिखेर दिया। मधुलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे।
महाराज की भृकुटी भी जरा चढ़ी थी कि मधुलिका ने सविनय कहा - "देव ! यह मेरे पितृ पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। " महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मंत्री ने तीखे स्वर से कहा- "अबोध ! क्या बक रही है ?
राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार ! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारीणी हुई इस धन से अपने को सुखी बना।"
"राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है मंत्रिवर ! महाराज को भूमि समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है ; किंतु मूल्य स्वीकार करना असंभव है" - मधुलिका उत्तेजित हो उठती है उठी थी।
महाराज के संकेत करने पर मंत्री ने कहा- "देव ! वाराणसी युद्ध के अंयतम वीर सिंहमित्र की एकमात्र कन्या है। " महाराज चौक उठे- "सिंहमित्र की कन्या ! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधुलिका कन्या है ?"
"हाँ, देव !" मंत्री ने सविनय कहा। "इस उत्सव के परंपरागत नियम क्या हैं , मंत्रीवर ? " - महाराज ने पूछा।
"देव, नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यंत अनुग्रह पूर्वक अर्थात भू संपत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है। "
महाराज को विचार संघर्ष से विश्राम की अत्यंत आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे। जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गए, किंतु मधुलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधुक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।
रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ। वह अपने विश्राम भवन में जागरण कर रहा था आंखों में नींद न थी। प्राची में जैसे गुलाली खिल रही थी, वही रंग उसकी आंखों में था। सामने देखा तो मुँडेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाए अंगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था। वहां देखते-देखते नगरतोरण पर जा पहुंचा। रक्षकगण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।
युवक कुमार तीर से निकल गया। सिंधुदेश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था। घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक वृक्ष के नीचे पहुंचा, जहां मधुलिका अपने हाथ पर सिर भरे हुए निद्रा का सुख ले रही थी।
अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवी लता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित, भ्र्मर निस्पंद थे। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने के लिए ; परंतु कोकिल बोल उठी।
जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया-छि , कुमारी के सोए हुए सौंदर्य पर दृष्टिपात करने वाले दृष्ट तुम कौन ? मधुलिका की आंखें खुल पड़ी। उसने देखा, एक अपरिचित युवक। वह संकोच से उठ बैठी। "भद्रे ! तुम ही न कल के उत्सव की संचालिका रही हो ?"
"उत्सव ! हाँ , उत्सव ही तो था। " "कल उस सम्मान .." "क्यों आपको कल का स्वप्न सता रहा है ? भद्र ! आप क्या मुझे इस अवस्था में संतुष्ट न रहने देंगे ?" "मेरा ह्रदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि। "
"मेरे उस अभिनय का मेरी विडंबना का। मनुष्य कितना निर्दय है , अपरिचित ! क्षमा करो जाओ अपने मार्ग। " "सरलता की देवी ! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूं, मेरे हृदय की भावना अवगुंठन में रहना नहीं जानती। उसे अपनी .. "
" राजकुमार मैं कृषक बालिका हूँ। आप नंदन बिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीनेवाली। आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दुख से विकल हूँ ; मेरा उपहास न करो। " "मैं कौशल नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूँगा। "
"नहीं, वह कौशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं उसे बदलना नहीं चाहती, चाहे उससे मुझे कितना ही दुःख हो। "तब तुम्हारा रहस्य क्या है?"
"यह रहस्य मानव हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव ह्रदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का ह्रदय किसी राजकुमारी की ओर न खींचकर एक कृषक बालिका का अपमान करने न आता। " मधुलिका उठ खड़ी हुई।
चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्नकिरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मधुलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत न हुई ? उसके ह्रदय में टीस सी होने लगी वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी।
मधुलिका ने राजा का प्रतिपादन, अनुग्रह नहीं लिया। वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ी रहती। मधूक वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्णकुटीर थी। सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी।
मधुलिका का वही आश्रम था। कठोर परिश्रम से जो रुखा-सुखा अन्य मिलता, वही उसकी सांसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।
दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कांति थी। आसपास के कृषक उसका आदर करते वह एक आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।
शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप। मधुलिका का छाजन टपक रहा था। ओढ़ने की कमी थी। वह ठिठुर कर एक कोने में बैठी थी। मधुलिका अपने अभाव को आज बढाकर सोच रही थी।
जीवन से सामंजस्य बनाए रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परंतु उनकी आवश्यकता और कल्पना भावना के साथ बढ़ती-घटती रहती है। आज बहुत दिनों बाद उसे बीती हुई बात स्मरण हुई-दो, नहीं-नहीं 3 वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक वृक्ष के नीचे प्रभात में तरुण राजकुमार ने क्या कहा था ?
वह अपने हृदय से पूछने लगी-उन चाटुकारी शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी-क्या कहा था ? दुःखदग्ध हृदय उन स्वप्न सी बातों का स्मरण रख सकता था ! और स्मरण ही होता, तो भी कष्टों कि इस काली निशा में वह कहने का साहस करता ? हाय री विडंबना !
आज मधुलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। दारिद्र्य की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है। मगध की प्रसाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र-उन सूखे डंठलो के रंध्रों से, नभ में बिजली के आलोक में नाचता हुआ दिखाई देने लगा।
खिलाड़ी शिशु जैसे, श्रावण की संध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही मधुलिका मन ही मन कह रही थी। अभी वह निकल गया। "वर्षा ने भीषण रूप धारण किया। गड़गड़ाहट बढ़ने लगी, ओले पड़ने की संभावना थी। मधुलिका अपनी जर्जर झोपड़ी के लिए कांप उठी।
सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ- "कौन है यहाँ ? पथिक को आश्रय चाहिए। "
मधुलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया। बिजली चमक उठी। उसने देखा एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है। सहरसा वह चिल्ला उठी -'राजकुमार!'
'मधुलिका ? - आश्चर्य से युवक ने कहा। एक क्षण के लिए सन्नाटा सा छा गया। मधुलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर, चकित हो गई- "इतने दिनों के बाद आज फिर!"
अरुण ने कहा- "कितना समझाया मैंने- परंतु ....." मधुलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी। उसने कहा - "और आज आपकी यह क्या दशा है?"
सिर झुका कर अरुण ने कहा-" मैं, मगध का विद्रोही निर्वासित, कोशल में जीविका खोजने आया हूँ। " मधुलिका उस अंधकार में हंस पडी। मगध के विद्रोही राजकुमार का स्वागत करें एक अनाथिनी कृषक बालिका, यह भी एक विडंबना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूं।"
शीतकाल की निस्तब्ध रजनी कुहरे से चाँदनी हाड़ कपा देने वाला समीर, तो भी अरुण और मधुलिका पहाड़ी गहवर के द्वार पर वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं। मधुलिका की वाणी में उत्साह था; किंतु अरुण जैसे अत्यंत सावधान होकर बोलता।
"मधुलिका ने पूछा- "जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो तो फिर इतने सैनिकों को साथ रखने की आवश्यकता है?" "मधुलिका ! बाहुबल तो वीरों की आजीविका है। यह मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता ? और करता ही क्या?"
क्यों ? हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते हैं तो तुम.....|" "भूल ना करो; मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ। नए राज्य की स्थापना कर सकता हूँ, निराश क्यों हो जाऊं ? अरुण के शब्दों में कंपन था, वह जैसे कुछ कहना चाहता था, पर कह न सका था सकता था।
"नवीन राज्य ! ओहो ! तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं। भला कैसे ? कोई ढंग बताओ तो मैं भी कल्पना का आनंद ले लूं। "
कल्पना का आनंद नहीं मधुलिका मैं तुम्हें राजरानी के समान सिंहासन पर बिठाऊँगा ! तुम अपने छीने हुए खेत की चिंता करके वह भयभीत हो। "
एक क्षण में सरल मधुलिका के मन में प्रमाद का अंधड़ बहने लगा द्वंद मच गया। उसने सहसा कहा- "आह मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी, राजकुमार !"
अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला - "तो मेरा भ्रम था, तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो ?"
युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वहां हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं। अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया। कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया।
तुरंत बोल उठा-तुम्हारी इच्छा हो तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल सिहासन पर बिठा दूं। मधुलीके ! अरुण की खड्ग का आतंक देखोगी ?" मधुलिका एक बार कांप उठी। वह कहना चाहती थी - नहीं ; किंतु उसके मुंह से निकला -" क्या ?"
"सत्य मधुलिका, कोशल नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिंतित हैं। यह मैं जानता हूँ। तुम्हारी साधारण -सी प्रार्थना वे अस्वीकार न करेंगे। और मुझे यह भी विदित है कि कोशल के सेनापति अधिकांश सैनिकों के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गए हैं। "
मधुलिका की आंखों के आगे बिजलियाँ हंसने लगीं। दारुण भावना से उसका मस्तक झंकृत हो उठा। अरुण ने कहा, "तुम बोलती नहीं हो ?"
" जो कहोगे वह करुँगी। मंत्रमुग्ध-सी मधुलिका ने कहा।
स्वर्णमंच पर कोशल नरेश अर्धनिंद्रित अवस्था में आंखें मुकुलित किए हैं। एक चामरधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है। चमर के शुभ आंदोलन उस कोष्ट में धीरे-धीरे संचालित हो रहे हैं। तांबूल वाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है।
प्रतिहारी ने आकर कहा- "जय हो देव ! एक स्त्री कुछ प्रार्थना करने आई है। "
आंखें खोलते हुए महाराज ने कहा- " स्त्री ! प्रार्थना करने आई है ? आने दो। "
प्रतिहारी के साथ मधुलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा- 'तुम्हें कहीं देखा है?"
"तीन बरस हुए देव ! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी। " " ओह ! तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताए, आज उसका मूल्य माँगने आई हो, क्यों अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी !"
"नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए। " " मूर्ख ! फिर क्या चाहिए ? "
"उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वही मैं अपनी खेती करूंगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी तो बनाना होगा। "
महाराज ने कहा- "कृषक बालिके ! वह बड़ी ऊबड़-खाबड़ भूमि है। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है। "
"तो फिर निराश लौट जाऊं ? " "सिंहमित्र की कन्या ! मैं क्या करूं ? तुम्हारी यह प्रार्थना .." " देव ! जैसी आज्ञा हो ! "
" जाओ, तुम श्रमजीवीयों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ। " " जय हो देव ! "- कहकर प्रणाम करती हुई मधुलिका राज मंदिर के बाहर आई।
दुर्ग की दक्षिण, भयावने नाले के तट पर घना जंगल है। आज मनुष्यों के पद संचार से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे हुए मनुष्य स्वतंत्रता से इधर-उधर घूमते थे। झाड़ियों को काटकर पत्र बन रहा था।
नगर दूर था फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधुलिका का अच्छा-सा खेत बन रहा था। तब इधर की किसको चिंता होती ?
एक घने कुंज में अरुण और मधुलिका एक-दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। संध्या हो चली थी। उसने निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कल कर रहे थे।
प्रसन्नता से अरुण की आँखें चमक उठी। सूर्य की अंतिम किरण झुरमुट में घुसकर मधुलिका के कपोलों से खेलने लगीं। अरुण ने कहा -"चार प्रहर और विश्राम करो, प्रभात में ही इस जीर्ण कलेवर कोशलराष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतंत्र राष्ट्र का अधिपति बनूंगा मधुलिके ! "
" भयानक ! अरुण, तुम्हारा साहस देख मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों से तुम.." " रात के तीसरे प्रहर में मेरी विजय यात्रा होगी। " " तो तुमको इस विजय पर विश्वास है ? "
" अवश्य ! तुम अपनी झोपड़ी में यह रात बिताओ, प्रभात से तो राज मंदिर ही तुम्हारा लीला निकेतन बनेगा। "
मधुलिका प्रसन्न थी ; किंतु अरुण के लिए उसकी कल्याण कामना सशंक थी। वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर देता।
सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा "अच्छा अंधकार अधिक हो गया। अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राणपण से इस अभियान के प्रारंभिक कार्यों को अर्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए ; तब रात्रि भर के लिए विदा मधुलिके ! "
मधुलिका उठ खड़ी हुई कटीली झाड़ियों से गुजरती हुई क्रम से बढ़ने वाली अंधकार ने अंधकार में वह झोपड़े की ओर चली।
पथ अंधकारमय था और मधुलिका का हृदय भी निविड़तम से घिरा था। उसका मन सहरसा विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई। जितनी सुख कल्पना थी, वह जैसे अंधकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो ? फिर सहसा सोचने लगी - वह क्यों सफल हो ?
श्रावस्ती दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाए ? मगध कोशल का चीर शत्रु ! ओह उसकी विजय ! कोशल नरेश ने क्या कहा था- ' सिंहमित्र की कन्या। ' सिंहमित्र, कौशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है ? नहीं-नहीं। ' मधुलिका ! मधुलिका ! ' जैसे उसके पिता उस अंधकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी रास्ता भूल गई।
एक रात पहर बीत चली, पर मधुलिका अपनी झोपड़ी तक न पहुँची। वह अधेडबुन में विक्षिप्त-सी चली जा, रही थी। उसकी आंखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अंधकार में चित्रित होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ में खड़ी हो गई। प्रायः एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था।
उसके बाएं हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड़ग। अत्यंत धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ में चल रही थी परंतु मधुलिका बीच पथ से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया ; पर मधुलिका अब भी नहीं हटी। सैनिक ने अश्व रोककर कहा- " कौन ? " कोई उत्तर नहीं मिला। तब तक दूसरे अश्वारोही ने कड़ककर कहा " तू कौन है स्त्री ? " कौशल के सेनापति कौशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे। "
रमणी जैसे विकार ग्रस्त स्वर में चिल्ला उठी-" बांध लो मुझे। मेरी हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है। " सेनापति हँस पड़े, बोले - " पगली है। "
" पगली नहीं, यदि पगली होती, तो इतनी विचार वेदना क्यों होती सेनापति मुझे बांध लो राजा के पास लो राजा के पास ले चलो। "
"क्या है स्पष्ट कह। " " श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जाएगा। दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा। "
सेनापति चौक उठे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा - " तू क्या कह रही है ? " " मैं सत्य कह रही हूं शीघ्रता करो। "
सेनापति ने अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं बीस अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े। मधुलिका एक अश्वारोही के साथ बांध दी गई।
श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केंद्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रांतों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह केवल कई गाँवों का अधिपति है फिर भी उसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्ण गाथाएँ लिपटी हैं। वही लोगों की ईर्ष्या का कारण है।
जब थोड़े से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग द्वार पर रुके तब दुर्ग के प्रहरी चौक उठे। उल्का के आलोक में उन्होंने सेनापति को पहचाना द्वारा खुला। सेनापति घोड़े की पीठ से उत्तरे। उन्होंने कहा - " अग्निसेन ! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे ? "
" सेनापति की जय हो ! दो सौ। " उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो ; परन्तु बिना किसी शब्द के। सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की और चलो। आलोक और शब्द न हो।
सेनापति ने मधुलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राज मंदिर की और बढ़े। प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख निद्रा के लिए प्रस्तुत हो रहे थे ; किन्तु सेनापति और साथ में मधुलिका को देखते ही चंचल हो उठे। सेनापति ने कहा - " जय हो देव ! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है। "
महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा - " सिंहमित्र की कन्या , फिर यहाँ क्यों ? - क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है ? कोई बाधा ? सेनापति ! मैंने दुर्ग के दक्षिण नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी संबंध में तुम कहना चाहते हो ? "
" देव ! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबंध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ में यह संदेश दिया है। "
राजा ने मधुलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जा से वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा - " मधुलिका, यह सत्य है ? "
" हाँ देव ! " राजा ने सेनापति से कहा - "सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो , मैं अभी आता हूँ। " सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा - " सिंहमित्र की कन्या ! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सुचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहले उन आततायियों का प्रबंध क्र लूँ। "
अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का के आलोक से अतिरंजित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन में उल्लास था। श्रावस्ती दुर्ग आज एक दस्यु के हाथ में जाने से बचा। आबाल वृद्ध नारी आनंद से उन्मत्त हो उठे।
उषा के आलोक में सभा मंडप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हुंकार करते हुए कहा - " वध करो ! " राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी। "प्राणदण्ड !" मधुलिका बुलाई गई। वह पगली - सी आकर खड़ी हो गई। कोशल नरेश ने पूछा - " मधुलिका , तुझे जो पुरस्कार लेना हो , मांग। " वह चुप रही।
राजा ने कहा - " मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ। " मधुलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा - " मुझे कुछ नही चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा - " नहीं , मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले। " " तो मुझे भी प्राणदंड मिले। " कहती हुई वह बन्दी अरुण के पास जा खड़ी हुई।