हिन्दी कहानी का इतिहास

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प्रारम्भिक युग[सम्पादन]

हिन्दी में कहानी वस्तुतः द्विवेदी-युग से प्रारम्भ होती है। भारतेन्दु-काल में और उसके पूर्व जो कहानियाँ लिखी गयीं, वे पश्चिमी ढंग की आधुनिक कहानी से काफी भिन्न हैं। वैसे तो ब्रज-भाषा की वैष्णव वार्ताओं तथा दृष्टांतों, राजस्थानी बातों ‘गिलक्राइस्ट' या लल्लूलाल द्वारा सम्पादित ‘लतायफ’ आदि की लघु कहानियों में कहानी के बहुत से तत्व हैं। राजस्थानी बातें तो कहानियाँ ही हैं, परन्तु आधुनिक कहानी से विषयवस्तु और शैली दोनों दृष्टि से पृथक्क है। इंशा अल्ला खाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ (1805 ई. के लगभग) भी दास्तान शैली की लम्बी कहानी ही है। वास्तविक मानव-जीवन से दूर, अतिमानव प्रसंगों से युक्त कथाकृति से हिन्दी कहानी-परम्परा का आरम्भ नहीं माना जा सकता। इसकी रचना शुद्ध हिन्दी की छटा दिखाने के लिए की गयी थी। 1860 ई. के आस-पास उस समय के शिक्षा-संचालकों की प्रेरणा से ‘बुद्धफलोदय', ‘सूरजपुर की कहानी’, ‘धरमसिंह का वृतान्त’, ‘तीन देवां की कहानी’ आदि शिक्षात्मक कहानियाँ लिखी गयी थीं, जो प्रायः अंगेजी या उर्दू से अनूदित हैं। राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ की लिखी और लिखवायी हुई ‘गुलाब और चमेली का किस्सा’, ‘वीर सिंह वृतान्त’ आदि रचनाएँ भी प्रायः अनूदित या रूपान्तरित हैं। हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियाँ आख्यायिका शैली की हैं। उनमें उल्लेखनीय हैं : पं. माधवप्रसाद मिश्र रचित ‘मन की चंचलता (1900 ई. के लगभग), किशोरीलाल गोस्वामी कृत ‘इन्दुमती’ (1900 ई. के लगभग), ‘गुलबहार’, मास्टर भगवानदास कृत ‘प्लेग की चुड़ैल’, आचार्य रामचन्द्र शुक्लप्रणीत ‘ग्यारह वर्ष का समय’, गिरिजादत्त वाजपेयीकी ‘पंडित और पंडितानी’ और ‘पति का पवित्र प्रेम’, बंगमहिला की ‘दुलाई वाली’ तथा ‘कुम्भ में छोटी बहू’, पार्वती नन्दन की ‘मेरा पुनर्जन्म’ और वृन्दावनलाल वर्मा द्वारा लिखित ‘राखीबन्द भाई’। इनमें कई कहानियाँ बंगला और अंग्रेजी की कहानियों के अनुकरण पर लिखी गई हैं। कुछ काफी लम्बी हैं और शुद्ध कहानी की श्रेणी में नहीं आती। इन कहानियों में से प्रथम द्विवेदी-युग के प्रारम्भ में ‘सुदर्शन’ में तथा शेष कहानियाँ ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थीं। डॉ. श्रीकृष्णलाल किशोरी लाल गोस्वामीकी ‘इन्दुमती’ को हिन्दी की प्रथम कहानी मानते हैं। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल का कहना है कि शुक्ल जी की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ नामक कहानी ही हिन्दी की पहली कहानी है। लगभग इसी समय (1909 ई. से) प्रसाद जी की प्रेरणा से ‘इन्दु’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इसमें प्रकाशित प्रसाद जी की ‘ग्राम’ शीर्षक कहानी हिन्दी जगत में नए युग का प्रारम्भ करती है।

भारतेन्दु युग में लेखकों का ध्यान नाटक, निबन्ध और उपन्यास की ओर अधिक था। कहानी को उन्होंने अधिक महत्व नहीं दिया। द्विवेदी युग के प्रारम्भ में भी इस ओर कम ध्यान दिया गया। अनुवाद-कार्य, भाषा के परिष्कार और गद्य के अन्य रूपों पर साहित्यकारों ने अधिक बल दिया। इन सब कारणों से प्रसाद और प्रेमचन्द से पूर्व कहानी साहित्य की रचना बहुत कम हुई। उसमें वास्तविक साधारण जीवन का यथार्थ विचित्र न उभर सका। इन्हीं दिनों संस्कृत और अंग्रेजी नाटकों की कथाओं के आधार पर लम्बी आख्यायिकाएँ भी लिखी गयीं। अधिकतर कथानक-प्रधान (घटना-प्रधान), उपदेशात्मक-कल्पनात्मक, विस्मयपूर्ण, व्यंग्यविनोदमय कहानियाँ लिखी गईं। शैली की दृष्टि से प्रेमचन्द से पहले की हिन्दी कहानियाँ प्रायः तीन प्रकार की हैं : ऐतिहासिक शैली में, आत्मकथात्मक और यात्रा शैली में लिखित। द्विवेदी-युग में पारसनाथ त्रिपाठी, बंगमहिला और गिरिजाकुमार घोष ने बंगला की कई सुन्दर कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया। आधुनिक ढंग की अंग्रेजी कहानियों का अनुवाद भी द्विवेदी-युग में प्रारम्भ हुआ।

प्रसाद-प्रेमचन्द युग[सम्पादन]

सन् 1916 ई. के आस-पास प्रेमचन्द और प्रसाद कहानी के क्षेत्र में आए। इसके बाद हिन्दी कहानी पर अंग्रेजी और बंगला कहानीकारों का प्रभाव कम होने लगा। द्विवेदी-युग की ‘सरस्वती’, ‘सुदर्शन’, ‘इन्दु’, ‘हिन्दी गल्प-माला’ आदि पत्रिकाओं का हिन्दी-कहानी के प्रारम्भिक विकास में बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन पत्रिकाओं में सैकड़ों मौलिक और अनूदित कहानियाँ प्रकाशित हुई, जिनमें विविध विषय और शैलियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। कहानी का वास्तविक विकास प्रेमचन्दके समय से ही प्रारम्भ होता है। उनके समय से ही आख्यायिका के स्थान पर सच्ची कहानी का प्रारम्भ हुआ। कहानी में घटना की प्रधानता के स्थान पर पात्र और भावना की प्रधानता हुई। वास्तविक मानव-जीवन और मनोविज्ञान से उनका सम्बन्ध स्थापित हुआ। प्रसाद जीकहानी क्षेत्र में प्रेमचन्दसे कुछ पहले आए थे। वे मूलतः कवि हैं और बाद में नाटककार। उनकी कहानियों में भी काव्यात्मकता और नाटकीयता है। उनकी कहानियों को लक्ष्य में रखते हुए उन्हें यथार्थपरक, आदर्शवादी या रोमांटिक आदर्शवादी कहा जा सकता है। प्रसाद की कहानियों के संग्रह हैं : ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाश : दीप’, ‘आंधी’, ‘इन्द्रजाल’ तथा ‘छाया’। प्रसादने अधिकतर भावनाप्रधान, कल्पनापरक कहानियाँ लिखी, जो प्रायः सांस्कृतिक पृश्ठभूमि पर आधारित हैं। उन्होंने चरित्र-प्रधान कहानियाँ भी लिखी हैं। नाटकीयता, अर्थ की गंभीरता, भावुकतापूर्ण वातावरण, काव्यात्मक भाषा और सांकेतिक व्यंजना उनकी कहानियों की अन्य विशेषताएँ हैं। प्रसादप्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रेमी थे।

प्रेमचन्द का आधुनिक काल के यथार्थवादी जीवन पर अधिक आग्रह था। वे यथार्थवादी हैं। प्रेमचन्द ने लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी कहानियाँ ‘मानसरोवर’ (6 भाग) तथा ‘गुप्त धन’ (2 भाग) में संगृहीत हैं। ‘प्रेम-पचीसी’, ‘प्रेम-प्रसून’, ‘प्रतिमा’, ‘सप्तसुमन’ आदि नामों से भी उनकी कहानियों के संग्रह छपे हैं। प्रेमचन्द की प्रारम्भ की कहानियों में घटना की प्रधानता और वर्णन की प्रवृत्ति है। चरित्र-चित्रण और मनोविज्ञान की ओर उचित ध्यान नहीं दिया गया। भाषा अपरिपक्व तथा व्याकरण : सम्बन्धी दोषों से युक्त है। वस्तुतः प्रेमचन्द प्रारम्भ में उर्दू के लेखक थे और वहाँ से हिन्दी में आए थे। उनकी प्रारम्भिक राष्ट्रीय कहानियाँ ‘सोजे वतन’ संग्रह में प्रकाशित हुई थी। आगे चलकर प्रेमचन्द ने चरित्र-प्रधान, मनोविज्ञान-मूलक, वातावरण-प्रध ान, ऐतिहासिक आदि कई प्रकार की कहानियाँ लिखीं और वास्तविक-जीवन तथा मानव-स्वभाव के मार्मिक चित्र प्र्रस्तुत किए। प्रेमचन्द की भाषा सरल, व्यावहारिक है और उनके संवाद स्वाभाविक तथा सजीव हैं। साधारण घटनाओं और बातों को मार्मिक बनाने में वे कुशल हैं। प्रेमचन्द नवीन जीवन-रुचि रखने वाले मानवतावादी लेखक थे। प्रारम्भ में प्रेमचन्द गांधी और ताल्स्ताय से प्रभावित रहे। बाद में वे मार्क्स और लेनिन की विचारधारा की ओर झुक गए थे।

प्रसाद-प्रेमचन्द-युग के प्रारम्भ के कहानीकारों में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और पं. ज्वाला दत्त शर्मा के नाम भी उल्लेखनीय हैं। गुलेरी जी की 'उसने कहा था' शीर्षक कहानी हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। इस कहानी में भावुक वीर तथा कर्त्तव्य-परायण लहनासिंह के पवित्र प्रेम और बलिदान का चित्रण है। सुन्दर ढंग से विकसित होने वाला, सुगठित, कुतूहलपरक नाटकीय कथानक, सजीव वातावरण, मार्मिक अन्त, संवादों तथा घटनाओं की योजना द्वारा पात्रों का स्वाभाविक चरित्र-चित्रण, पात्रानुकूल संवाद, मुहावरेदार सरल-जीवन्त भाषा और सांकेतिक अभिव्यक्ति इस कहानी की मुख्य विशेषताएँ हैं। गुलेरी ने केवल तीन कहानियाँ लिखी हैं, परन्तु तीन कहानियों के बल पर वे हिन्दी के इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान बना गए हैं। सुदर्शन, विश्वम्भरनाथ ‘कौशिक’, पांडेय बेचन शर्मा, ‘उग्र’, ‘चतुरसेन शास्त्री’, ‘रायकृष्णदास’, ‘चण्डीप्रसाद, ‘हृदयेश’, ‘गोविन्द वल्लभ पंत’, ‘वृन्दावन लाल वर्मा’, ‘जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’, ‘राधिकारमण प्रसाद सिंह’, ‘सियारामशरण गुप्त’ और भगवतीप्रसाद वाजपेयी, प्रेमचन्द-प्रसाद-काल के अन्य उल्लेखनीय कहानीकार हैं।

सुदर्शन और कौशिक प्रेमचन्द की शैली के कहानीकार हैं। दोनों ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को अपनाकर सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और पारिवारिक कहानियाँ लिखी हैं। चरित्र-चित्रण और भाषा की दृष्टि से भी ये दोनों प्रेमचन्द के निकट हैं। सुदर्शन ने मानव-जीवन के विविध पक्षों और अनेक सामाजिक सत्यों का चित्रण किया है। कौशिक जी ने अपनी कई कहानियों में पारिवारिक जीवन के सुन्दर चित्र प्रस्तुत किए हैं। उनकी ‘ताई’ नामक चरित्र प्रधान कहानी हिन्दी जगत् में प्रसिद्ध है। चरित्र-परिवर्तन उनकी कहानी में स्वाभाविक रूप से होता है। संवादों द्वारा पात्रों की मनःस्थिति पर कहीं-कहीं उन्होंने अच्छा प्रकाश डाला है। सुदर्शन के कहानी-संग्रहों के नाम हैं : ‘परिवर्तन’, ‘सुदर्शन-सुधा’, ‘तीर्थयात्रा’, सुदर्शन-सुमन’, ‘पुष्पलता’, ‘सुप्रभात’, ‘नगीना’, ‘फूलवती’, ‘पनघट’। कौशिक जी की कहानियाँ ‘गल्पमन्दिर’, ‘चित्रशाला’, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘कल्लोल’ आदि शीर्षकों से प्रकाशित हुई है।

उग्र जी (‘चाकलेट’, ‘चिनगारियां’, ‘इन्द्रधनुष’, ‘निर्लज्जा’, ‘दोजख की आग’, ‘बलात्कार’, ‘सनकी अमीर’, ‘पीली इमारत’, ‘चित्र-विचित्र’, ‘यह कंचन सी काया’, ‘कला का पुरस्कार’ आदि के लेखक) की कहानियों में समाज और राजनीति का मार्मिक अंकन हुआ है। रूढ़ियों तथा राजनीतिक एवं राष्ट्रीय दुष्प्रवृत्तियों पर उन्होंने तीव्र रोष प्रकट किया है। उसके पात्र सजीव-सबल होते हैं, संवाद प्रायः छोटे तथा स्पष्ट और भाषा वक्र होने पर भी सरल। उग्र जी ने कई तरह की कहानियाँ लिखी हैं : भावुकता तथा कल्पना से पूर्ण प्रतीकात्मक, समस्यामूलक और नाटकीय रेखाचित्र जैसी। चतुरसेन (राजकण, अक्षय आदि) ने अधिकतर सामाजिक परिस्थितियों का अंकन किया है। राधाकृष्णदास (‘सुधांशु’ आदि) भावप्रधान कहानियों के लेखक हैं। वे प्रसाद-पद्धति के कहानीकार हैं। रायकृष्णदासने ऐतिहासिक और सामाजिक दोनों प्रकार की कहानियाँ लिखी हैं। लघु प्रकृति-चित्र भी उन्होंने कहीं-कहीं दिए हैं। उनकी भाषा संस्कृतपरक और प्रांजल है। चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ (‘नन्दन निकुंज’, ‘वन माला’ आदि) की कहानियाँ भी लगभग इसी प्रकार की भाषा-शैली में लिखी गयी हैं : भावुकता, उच्च भावों की व्यंजना, स्वल्प कथानक और अलंकृत भाषा उनकी विशेषताएं हैं। पं. गोविन्दवल्लभ पंतमें भी भावुकता तथा कल्पना की रंगीनी है, साथ ही यथार्थ की कटुता भी प्राप्त होती है। उनकी कहानियों में रोचकता भी काफी है। श्री वृन्दावनलाल वर्मा (‘कलाकार का बल’ आदि) मुख्यतः उपन्यासकार हैं। उनकी कहानियों में कल्पना तथा इतिहास का समन्वय होता है और सरल, स्वाभाविक भाषा : शैली होती है। प्रायः सभी कहानियाँ वर्णनपरक, बहिर्द्वन्द्वपूर्ण तथा आदर्शोन्मुख हैं। राधिकारमणप्रसाद सिंह की शैली भी काव्यात्मक तथा जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ (किसलय, मृदुदल, मधुमयी आदि) की कहानियाँ भी मार्मिक तथा करुणापूर्ण हैं। राधिकारमणप्रसाद सिंह की शैली भी काव्यात्मक तथा अलंकृत ही है। उनकी कहानियों का वातावरण प्रायः भावात्मकता तथा मार्मिकता से पूर्ण होता है। सियारामशरण गुप्तकी कहानियों में सरल रोचक शैली में कोमल भावों की अभिव्यक्ति हुई है। भगवती प्रसाद वाजपेयी (पुष्करिणी, खाली बोतल, हिलोर आदि) की कहानियों में प्रायः घटनाओं की सांकेतिक व्यंजना रहती है। उन्होंने असाधारण परिस्थितियों में पड़े हुए नर-नारियों के चरित्र का मनोवैज्ञानिक निरूपण किया है। इस समय के अन्य उल्लेखनीय कहानीकार हैं : विनोद शंकर व्यास, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’तथा शिवपूजन सहाय। सुमित्रानन्दन पंतऔर निराला जीने भी कुछ कहानियाँ लिखी हैं। उपर्युक्त कहानीकारों में कौशिक, सुदर्शन, वाजपेयी आदि प्रेमचन्द के आदर्शों से प्रभावित हैं और राधिकारमण प्रसाद सिंह, रायकृष्णदास, विनोदशंकर व्यास, द्विजआदि प्रसाद के आदर्शों से। कुछ कहानीकार अपना पृथक्क् व्यक्तित्व रखते हैं और उन्हें इन दोनों में से किसी वर्ग में नहीं रखा जा सकता।

वर्तमान युग : तीन पीढ़ियाँ[सम्पादन]

वर्तमान समय में हिन्दी में कई पीढ़ियाँ एक साथ कहानी लिखने में लगी रही हैं। प्रेमचन्द काल के उत्तरार्ध में इस क्षेत्र में आने वाले कुछ कहानीकार हैं : जैनेन्द्र (‘फांसी’ ‘स्पर्धा’, ‘वातायन’, ‘पाजेब’, ‘जयसंधि’, ‘एकरात’, ‘दो चिड़ियां’ आदि), यशपाल (‘वो दुनिया’, ‘ज्ञान दान’, ‘अभिशप्त’, ‘पिंजड़े की उड़ान’, ‘तर्क का तूफान’, ‘चित्र का शीर्षक’, ‘यशपाल : श्रेष्ठ कहानी’) इलाचन्द जोशी (‘रोमांटिक छाया’, ‘आहुति’, ‘दिवाली और होली’, ‘कंटीले फूल लजीले कांटे’), अज्ञेय (‘त्रिपथगा’, ‘कोठरी की बात’, ‘परम्परा’, ‘जयदोल’ आदि) भगवतीचरण वर्मा (‘दो बाँके’, ‘इन्स्टालमेंट आदि), चन्द्रगुप्त विद्यालंकार (‘चन्द्रकला’, ‘वापसी’, ‘अमावस’, ‘तीन दिन’)। ये कथाकार जो उस समय नयी पीढ़ी के कहानीकार माने जाते थे अब पुराने हो चुके हैं। इनके बाद कहानीकारों की दो और पीढ़ियां विकसित हो चुकी हैं। इन तीनों पीढ़ियों के कहानीकारों ने हिन्दी कहानी का विषय-वस्तु तथा शिल्प दोनों दृष्टियों से पर्याप्त विकास किया है।

जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय ने चरित्रप्रधान मनोवैज्ञानिक कहानियाँ लिखी हैं। मार्मिक दृष्यों का चयन, एक ही दृष्य या घटना के सहारे कथानक का निर्माण करके देशकाल के संकलन का निर्वाह, असाधारण परिस्थितियों में पड़े मानवों का सूक्ष्म मनोविश्लेषण, विचारात्मकता और यत्र-तत्र वक्र-अस्पष्ट भाषा जैनेन्द्र की कहानीकला की विशेषताएं हैं। इलाचन्द्र जोशीकी कहानियों में मनोवैज्ञानिक सत्यों का मार्मिक उद्घाटन है। साधारण-असाधारण दोनों प्रकार के पात्रों का चित्रण उन्होंने किया। जोशी जी का कहना है कि मनोविश्लेषण करते हुए व्यक्ति के अहं पर प्रहार करना ही मेरा लक्ष्य है। अज्ञेयने मनोवैज्ञानिक तथा सामयिक सत्य की व्यंजना करने वाली कहानियों के साथ समाज के मध्यम-वर्ग के दैनिक जीवन की विशेषताओं और उनकी साधारण तथा कारुणिक स्थितियों के खण्डचित्र प्रस्तुत करने वाली कहानियाँ भी लिखी हैं और राजनीतिक विद्रोह से सम्बन्धित कहानियाँ भी। इनकी कई कहानियाँ पात्रों के पिछले जीवन की अस्फुट चित्र : कल्पनाओं के रूप में हैं। कुछ अधूरापन-सा होने पर भी अज्ञेय की कहानियाँ प्रभावपूर्ण होती हैं।

यशपाल प्रगतिशील लेखक थे। जीवन के संघर्षो और विविध परिस्थितियों का उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर सजीव अंकन किया है। उनकी कहानियों में वर्तमान समाज की विशेषताओं पर तीव्र व्यंग्य-प्रहार है। भगवतीचरण वर्माकी शैली बड़ी सरस और आकर्षक है। इनकी कहानियों में पात्र कम होते हैं, परन्तु वे पूर्णतः सजीव और विश्वसनीय हैं। आप आधुनिक मानव और उसके जीवन को अच्छी तरह समझते हैं। सामाजिक तथा ऐतिहासिक : दोनों प्रकार की कहानियाँ उन्होंने लिखी हैं। चन्द्रगुप्त विद्यालंकारने दैनिक जीवन की साधारण घटनाओं को लेकर प्रभावपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं। उन्होंने मनोवैज्ञानिक अध्ययन करते हुए कुछ शाश्वत सत्यों और साथ ही सामयिक सत्यों की सुन्दर व्यंजना की है। उनकी कुछ कहानियों में एक सुगठित कथानक न होकर कई सम्बद्ध कथा-खण्ड प्रस्तुत किए गये हैं, जिनके द्वारा उन्होंने किसी सत्य की व्यंजना की है। इन कहानीकारों ने चरित्रप्रधान, प्रभाववादी, मनोविश्लेषणपरक, भावना-प्रधान, वातावरण-प्रधान, किसी शाश्वत या सामयिक सत्य की व्यंजना करने वाली कई प्रकार की कहानियाँ लिखी हैं। ऐतिहासिक शैली के अलावा, आत्मकथा, पत्र, डायरी आदि अनेक शैलियों का प्रयोग किया गया है।

आधुनिक काल की इस पहली पीढ़ी के कुछ बाद और दूसरी पीढ़ी के कुछ पहले आने वाले उल्लेखनीय कथाकार हैं : उपेन्द्रनाथ अश्क, नागार्जुन, उषादेवी मित्रा, पहाड़ी, विष्णु प्रभाकर, अमृतराय, रांगेय राघव। दूसरी पीढ़ी के उल्लेख कथाकार हैं : फणीश्वरनाथ रेणु, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, अमरकांत, मोहन राकेश, नरेश मेहता, शिवप्रसाद सिंह, धर्मवीर भारती, मन्नू भण्डारी, कृष्णा सोबती, शैलेश मटियानी, मुद्राराक्षस।हिन्दी की बिल्कुल नई पीढ़ी के कहानीकारों में उल्लेखनीय हैं : निर्मल वर्मा, रामकुमार, विजय चौहान, कृष्ण बलदेव वैद। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ (राजेन्द्र यादव), ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ (धर्मवीर भारती), ‘धरती अब भी घूम रही है’ (विष्णु प्रभाकर), ‘जानवर और जानवर’, ‘नए बादल’ (मोहन राकेश), ‘गीली मिट्टी’ (अमृतराय), ‘कुमारी’ (रेणु), ‘भूदान’ (मार्कण्डेय), ‘चाय का रंग’ (देवेन्द्र सत्यार्थी), ‘जीने की सजा’ (आरिगपूडि), ‘नरक का न्याय’ (मोहरसिंह सेंगर), ‘प्यार के बन्धन’ (रावी), ‘मेरी तेतीस कहानियाँ’ (शैलेश मटियानी) आदि संग्रह चर्चा में रहे हैं। हिन्दी की नवीनतम कहानियों में कथा-तत्व की न्यूनता, कामकुण्ठाओं का विश्लेषण, व्यक्ति की पीड़ा, विवशता की अभिव्यक्ति, किसी मनः स्थिति का अंकन और आलोचना-प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है। वर्तमान युग में आँचलिक कहानियाँ भी लिखी गयी हैं। भावकथाएँ, गाथाएँ और लम्बी कहानियाँ पत्रिकाओं में दिखाई देती हैं।

हिन्दी में हास्य और व्यंग्यप्रधान कहानियाँ भी लिखी गई हैं। इस प्रकार की कहानियाँ जी. पी. श्रीवास्तव, हरिशंकर शर्मा, कृष्णदेव प्रसाद गौड़, अन्नपूर्णानन्द, हरिशंकर परसाई, शरद जोशीआदि ने लिखी हैं। जहूर बख्ष आदि ने बाल कहानियाँ लिखी हैं। नारी कहानीकारों में सुभद्रा कुमारी चौहान, सत्यवती मलिक, कमला चौधरी, शिवरानी देवी, तारा पाण्डेआदि ने अच्छा कार्य किया है।

आज के प्रयोगवादी युग में हिन्दी कहानी सभी रूपों में बढ़ रही है। कुछ कहानीकार कथानक-रहित कहानी लिखने का यत्न कर रहे हैं। कहानी बहुत अमूर्त्त (ऐबस्ट्रैक्ट) होती जा रही है। आज कहानी में प्रायः एक मनःस्थिति, क्षण-विशेष की अनुभूति, व्यंग्यचित्र या चिन्तन की झलक प्रस्तुत की जाती है। कहानी में विषय-वस्तु क्षीण, पात्र बहुत थोड़े (एक दो ही) और अस्पष्ट होते जा रहे हैं और पुराने ढंग की सरलता समाप्त होती जा रही है। नयी कविता की तरह नयी कहानी भी कहानीपन छोड़कर निबन्ध के निकट (कथात्मक निबन्ध के निकट) पहुंच रही है। भारतेन्दुकाल में जो कहानी घटना-प्रधान थी, प्रेमचन्द युग में जो चरित्र-प्रधान तथा मनोवैज्ञानिक हुई, जैनेन्द्र-अज्ञेय के उत्कर्ष-काल में जो कहानी घटना-प्रधान थी, प्रेमचन्द युग में जो चरित्र- प्रधान तथा मनोवैज्ञानिक हुई, जैनेन्द्र-अज्ञेय के उत्कर्ष-काल में जो मनोविश्लेषणमय तथा चिन्तनपरक बनी, वही अब कथानकपरक तो है ही नहीं, चरित्र-चित्रणपरक भी नहीं रही। विषय-वस्तु और शिल्प दोनों में वह काफी आगे बढ़ गई है। काशीनाथ सिंह, ज्ञान रंजन, सुरेश सेठ, गोविन्द मिश्र, मृदुला गर्ग, नरेन्द्र मोहन, मृणाल पाण्डेय, उदय प्रकाश, ओम प्रकाश वाल्मीकि, चित्र प्रभा मुदगल, प्रभा खेतान, नासिरा शर्मा आदि अनेक कथाकार हैं जिन्होंने बदलते मनुष्य, समाज, परिस्थितियों, समस्याओं को अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है।