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हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास/हिन्दी भाषा: क्षेत्र और बोलियाँ

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हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास/हिन्दी का अंतरराष्ट्रीय सन्दर्भ

हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास
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हिंदी भाषा : क्षेत्र एवं बोलियां

हिन्दी भारत के बहुसंख्यक लोगों की भाषा है और उत्तर भारत के दस राज्यों में बोली - समझी जाती है । इन राज्यों के नाम हैं - 1 हिमाचल प्रदेश , 2 . हरियाणा , 3 . दिल्ली 4 . उत्तरांचल , 5 . उत्तर प्रदेश , 6 . राजस्थान , 7 . मध्य प्रदेश 8 . छत्तीसगढ़ , 9 . बिहार , 10 . झारखण्ड । इन दस राज्यों को हिन्दी क्षेत्र कहते हैं ।

हिंदी का विकास शौरसेनी, मगधी और अर्धमगधी अपभ्रंश से माना जाता है। इनसे पांच उप भाषाओं का जन्म हुआ। १. पश्चिमी हिंदी, २. पहाड़ी, ३. राजस्थानी, ४. बिहारी, एवं ५. पूर्वी हिंदी और इन्हीं से विभिन्न बोलियां विकसित हुईं।

१. पश्चिमी हिंदी:

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पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत हरियाणवी, खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुंदेली आदि को शामिल किया जाता है। ग्रियर्सन कन्नौजी को बोली ना मानकर ब्रजभाषा की उप बोली मानते हैं।

१. हरियाणवी- हरियाणवी को जाटू, बांगरू और देशवाली आदि नामों से भी जाना जाता है। ग्रियर्सन इसे यमुना के बांगर क्षेत्र की बोली होने के कारण बांगरू कहने के पक्ष में है। अन्य मत के अनुसार हरि का यान यहां से गुजरा था इसलिए इस क्षेत्र को हरियाणा कहा जाता है।

हरियाणवी कर्नाल, रोहतक, पानीपत, सोनीपत, कुरुक्षेत्र, जिंध, हिसार आदि जिलों में बोली जाती है। केंद्र हरियाणी जो गोहाना, बहादुर गढ़, दादरी और हिसार में बोली जाती है। बांगरू का क्षेत्र कैथल, जींद, कुरुक्षेत्र और करनाल है। अहीरवटी का क्षेत्र महेंद्रगढ़, नारनौल तथा रेवाड़ी जाती है।

1971 ई. के जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 62,790 है। हरियाणवी बोली में लोक साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। गरीबदास यहां के प्रमुख कवि हैं।

२. खड़ी बोली- खड़ी बोली पश्चिमी हिंदी की प्रमुख बोली है, जिसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ। हिंदुस्तानी, दक्खिनी हिंदी, साहित्यिक हिंदी और उर्दू का आधार खड़ी बोली ही मानी जाती है।
डॉ भोलानाथ तिवारी, राहुल सांकृत्यायन ने इसे 'कौरवी' नाम दिया। आज भारत में खड़ी बोली बोलने वालों की संख्या अन्य बोलियां बोलने वालों की अपेक्षा कहीं अधिक है। और इसका क्षेत्रफल अन्य बोलियों की अपेक्षा अत्यंत विस्तृत है। यही कारण है कि आज भारत का राजकाज चलाने के लिए भारत की राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली इसी खड़ी बोली या हिंदी भाषा को संविधान में स्वीकृति मिली है।

भाषा के अर्थ में खड़ी बोली का प्रयोग सर्वप्रथम लल्लू लाल (प्रेम सागर) तथा सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान) ने किया। ग्रियर्सन के अनुसार खड़ी बोली का क्षेत्र रामपुर बिजनौर, मुरादाबाद, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, देहरादून का मैदानी भाग अंबाला तथा पटियाला माना है। ब्रज तथा दिल्ली में भी इस बोली को बोलने वालों की संख्या अत्यंत अधिक है।
इसकी मुख्य उप बोलियां हैं- पश्चिम हिंदी (यह पंजाबी से प्रभावित है), पूर्वी खड़ी बोली, पहाड़ताली, बिजनौरी।
सन 1971 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 59,89,128 थी, परंतु बाद में यह संख्या बढ़कर करोड़ों हो गई। खड़ी बोली लोक साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध है और इसमें साहित्य की रचना अधिक हुई है।

३. ब्रजभाषा- ब्रज भाषा का उद्भव लगभग सन् 1000 से माना जाता है। 'ब्रजभाषा' शब्द का प्राचीनतम प्रयोग गोपालाकृत 'रसविलास टीका'(1587 ई.) में मिलता है। इसे अंतर्वेदी के नाम से भी जाना जाता है कुछ लोग इसे माथुरी या नागभाषा भी कहते हैं। प्रारंभ में इसे पिंगल या मारवा कहा जाता था। 'ब्रज' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चारागाह के अर्थ में हुआ है लगभग 18वीं शताब्दी से यह शब्द भाषा के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।

ग्रियर्सन के अनुसार इसका क्षेत्र- आगरा, मथुरा, अलीगढ़, मैनपुर, एटा, बदायूं, बरेली, गुड़गांव जिले की पूर्वी पट्टी बांसवाड़ा, भरतपुर एवं धौलपुर आदि है।
लल्लू लाल के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र भरतपुर, बुंदेलखंड, बांसवाड़ा, ब्रज तथा ग्वालियर है। इसकी उप बोलियां-- माथुरी, डांगी, भरतपुरी, गांववारी, कठेरिया, धोलपुर, जदोवारी तथा सिकर वाड़ी है।

साहित्यिक दृष्टि से ब्रजभाषा अन्य गोलियों की तुलना में सर्वाधिक समृद्ध है। इसकी लिपि देवनागरी है। भक्ति काल में ब्रज भाषा का प्रयोग जोरो से हुआ। सूरदास तथा तुलसीदास जैसे महान कवियों ने ब्रज भाषा में अपने विचारों को वाणी देकर इस भाषा की गरिमा को बढ़ा दिया।

1971 ई. की जनगणना के अनुसार- इसके बोलने वालों की संख्या 25864 है। ग्रियर्सनके अनुसार ब्रज भाषा बोलने वालों की संख्या 79 लाख है। डॉ धीरेंद्र वर्मा इनकी संख्या एक करोड़ तेईस लाख मानते हैं।

४. कन्नौजी- देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली कन्नौजी कन्नौज क्षेत्र की बोली है। इसे कन्नौजी, कनउजी, कनौजिया भी कहते हैं। डॉ धीरेंद्र वर्मा इसे ब्रजभाषा की हीं एक बोली पूर्वी ब्रज की संज्ञा देते हैं। पीलीभीत और इटावा की कन्नौजी ब्रज से मिलती-जुलती है तो कानपुर की कन्नौजी पर बुंदेली का प्रभाव है। पचरुआ, भुक्सा बुक्सा, तिरहारी, इटावी, संडीली, इटावी पीलीभीती, शाहजहांपुरी, बंगराही आदि कन्नौजी की उपबोलियां बताई जाती हैं।

मतिराम, बीरबल, भूषण, चिंतामणि आदि इस बोली के प्रमुख कवि हैं। हालांकि इन कवियों की रचनाओं पर ब्रज की छाप है परंतु इस ब्रज पर कन्नौजी की छात्र स्पष्ट देखी जा सकती है। कमलूदास आदि कुछ कवियों ने कुछ रचनाएं इस बोली में लिखी हैं।
ग्रियर्सन ने 19वीं शताब्दी के आरंभ में किए गए अपने भाषा सर्वेक्षण में कन्नौजी बोलने वालों की संख्या 44,81,500 बताई है।

५. बुंदेली- बुंदेलखंड की बोली बुंदेली बुंदेलखंडी है। यह शौरसेनी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से विकसित हुई। बुंदेली का क्षेत्र नरसिंहपुर, जालौन, सिंबनी, दमोह, झांसी, बांदा, हमीरपुर ग्वालियर, ओरछा, सागर, जबलपुर, तथा होशंगाबाद तक फैला हुआ है। बुंदेलखंड मुख्यतः बुंदेले राजपूतों का क्षेत्र है। वैसे बुंदेली के कई मिश्रित रूप दतिया, पन्ना छिंदवाड़ा, चरखारी तथा बालाघाट तक है।

डॉ धीरेंद्र वर्मा इसे स्वतंत्र बोली नहीं मानते। उनके अनुसार ब्रिज, कन्नौजी तथा बुंदेली एक ही बोली के तीन प्रादेशिक रूप हैं। बुंदेली के उपबोलियां हैं-- आदर्श बुंदेली पवारी, खटोला, लोघांती, गुंडारी, तिरहारी, बनाफरी, भदावरी, कुंभारो एवं लोधी।

1961 की जनगणना के अनुसार इस बोली को बोलने वालों की संख्या 54147 थी। ग्रियर्सन ने यह संख्या 6869201 बताई है। इसको देवनागरी में लिखा जाता है, परंतु कुछ लोग इसे मुड़िया, महाजनी, कैथी लिपि में भी लिखते हैं। इस बोली में साहित्य की रचना नहीं हुई। क्षेत्र में बहुत बड़े बड़े साहित्यकार जन्मे किंतु उन्होंने या तो ब्रज में या अवधि में साहित्य की रचना की जिनमें गोरेलाल, तुलसीदास, ठाकुर, केशवदास, पद्माकर आदि साहित्यकार है।

२. पहाड़ी हिंदी:

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पहाड़ी हिंदी जैसा कि नाम से हीं स्पष्ट है पहाड़ी प्रदेश अर्थात हिमालय की तराई में स्थित पर्वत श्रृंखलाओं में बोली जाने वाली पहाड़ी मिश्रित हिंदी। यह नाम ग्रियर्सन ने दिया है। पूर्वी पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी और मध्य पहाड़ी इन तीन वर्गों में इस बोली को विभाजित किया गया है।-

१. पूर्वी पहाड़ी- पूर्वी पहाड़ी का क्षेत्र नेपाल है। यहां की बोली को गोरखाली अथवा खसकुश भी कहा जाता है। 1961 की जनगणना के अनुसार भी नेपाली को पूर्वी पहाड़ी के अंतर्गत ही रखा गया था।

२. पश्चिमी पहाड़ी- कुल्लू, मंडी, शिमला, चंबा और लाहुल सिटी के आसपास का क्षेत्र अर्थात पंजाब के उत्तरी पूर्वी पहाड़ी प्रदेश में यह बोली प्रचलित है। 1961 की जनगणना के अनुसार पश्चिमी पहाड़ी में 62 बोलियां आती है। जिनमें प्रमुख हैं-- चंबयाली, मंडयाली, सिरमौरी, भरमौरी, जौनसारी, कोटगढ़ी, मढवाही, पंगवाली, शिराज की शिराजी, सुकेती, बघाती तथा देहरादून की पहाड़ी और महलोगी आदि।

इन बोलियों को नागरी उर्दू और टाकरी लिपि में लिपिबद्ध किया जाता है। इन सभी बोलियों में भरपूर लोक साहित्य प्राप्त हैं।

३. मध्यवर्ती पहाड़ी- इसके अंतर्गत गढ़वाली और कुमायूंनी मुख्य बोलियां हैं।-
३.१ गढ़वाली- मुख्यतः गढ़वाल प्रदेश में बोली जानेवाली बोली गढ़वाली है । अल्मोड़ा , टीहरी , सहारणपुर , बिजनौर , मुरादाबाद तथा हरिद्वार और इसके आसपास का क्षेत्र अर्थात् केदार खंड मध्य काल में बहुत से गढ़ों का प्रदेश होने के कारण गढ़वाल कहलाया ।

इसकी उपबोलियां - लोबयाली बधाणी , दसौलया, नगपुरिया, टेहरी और राठी इसके स्थानीय रूप हैं - जौनपुरी , रमोल्या , बाड़हरी गंगाड़ी तथा बड़ियार गड्डी आदि । ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 6,70,824 थी। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली गढ़वाली लोक - साहित्य की दृष्टि से पूर्ण संपन्न हैं । जबकि इसमें साहित्य रचना बिलकुल नहीं हुई है ।

३.२ कुमायूंनी- कुमायूं क्षेत्र जो माध्यमिक पहाड़ी क्षेत्र कहलाता है । उसके आसपास बोली जानेवाली बोली कुमायूंनी है । कुमायूं शब्द का संबंध कूर्मांचल या कूर्माचल से है । इस बोली का प्रयोग - नैनीताल , पिथौरागढ़ , चमोली , उत्तरकाशी आदि जिलों में किया जाता है । कुमायूंनी की अनेक उपबोलियां हैं - कुमैयां , गंगोला , दनपुरिया , चोगरखिया , सोरियाली , अस्कोटी आदि । गढ़वाल के चारों ओर नेपाली , तिब्बती और पश्चिमी हिंदी का क्षेत्र है । कुमायूंनी लिखने में नागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है ।

ग्रियर्सन के अनुसार कुमायूंनी बोलने वालों की संख्या 436,788 थी । कुमायूंनी में कुछ साहित्य - रचना हुई है । इसके रचनाकारों में सिवदत्तसत्ती , गुमानी पंत और कृष्णपांडे के नाम मुख्य रूप से लिए जा सकते हैं ।

३. राजस्थानी हिंदी:

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राजस्थानी मुख्य रूप से राजस्थान की भाषा है । राजस्थान के पूर्व में बुंदेली , पश्चिमी में सिंधी , उत्तर में हरियाणी , पंजाबी और लहंदा तथा दक्षिण में मराठी और भीली बोली जाती है।
ग्रियर्सन ने राजस्थानी उपभाषा को पाँच बोलियों में विभाजित किया है - पश्चिमी राजस्थानी ( मारवाड़ी ) उत्तर - पूर्वी राजस्थानी ( मेवाती ) मध्य - पूर्वी राजस्थानी ( जयपुरी ) दक्षिण - पूर्वी राजस्थानी ( मालवी ) तथा दक्षिणी राजस्थानी ( निमाड़ी ) ।

डॉ. भोलानाथ तिवारी उत्तर - पूर्वी राजस्थानी और दक्षिणी राजस्थानी को पश्चिमी हिंदी में रखते हैं तो डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी इसे दो भागों में पश्चिमी राजस्थानी और पूर्वी राजस्थानी में बाँटने के पक्षधर हैं । अधिकतर विद्वान राजस्थानी के अंतर्गत जयपुरी मारवाड़ी , मालवी और मेवाती बोलियों को स्वीकार करते हैं। इन बोलियों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है।-

१. जयपुरी- जयपुरी बोली शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर रूप से विकसित है । ग्रियर्सन इसे मध्यपूर्वी राजस्थानी कहते हैं । राजस्थान के लोग इस बोली को ढुंढाड़ी कहते हैं - इसके दो अन्य नाम है - झाड़साही बोली और काई कुँई की बोली। यह जयपुर के अतिरिक्त किशनगढ़ , इंदौर , अलवर के अधिकांश भाग , अजमेर और मेवाड़ा के उत्तर पूर्वी भाग में बोली जाती है । भाषा सर्वेक्षण के अनुसार जयपुरी की 13 उपबोलियाँ मानी गई है मानक जयपुरी , तोडावरी , चौरासी , काठेड़ा , किशनगढ़ी तथा राजावटी आदि । इस बोली की लिपि भी नागरी तथा राजावटी आदि है।

ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 16,87,899 थी । जयपुरी में साहित्य की रचना कम ही हुई है । दादू पंथ का कुछ साहित्य इस बोली में मिलता है ।

२. मारवाड़ी- मारवाड़ी मुख्य रूप से मारवाड़, मेवाड़ , बीकानेर , जैसलमेर पूर्वी सिंध , दक्षिणी पंजाब तथा उत्तर - पश्चिमी जयपुर में बोली जाती है । डिंगल वस्तुतः साहित्यिक मारवाड़ी है । यह नागरी लिपि में लिखी जाती है ।

ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या लगभग 65 लाख है । साहित्यिक दृष्टि से यह बोली काफी समृद्ध है । मीराबाई इस बोली की सर्वप्रमुख रचनाकार है ।

३. मालवी- मालव प्रदेश अर्थात् , उज्जैन के आसपास के क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली मालवी शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर रूप से विकसित हुई है । इसे पहले आवन्ती भी कहते थे । आवन्ती का विकसित रूप ही वस्तुतः मालवी है ।

यह बोली मुख्यतः इन्दौर , देवास , रतलाम , होशंगाबाद , उज्जैन , और भोपाल और आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है । मालवी की प्रमुख लिपि नागरी है किंतु महाजनी और मुड़िया प्रभावित नागरी का भी इस के लेखन के लिए प्रयोग किया जाता है ।

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी इसे पश्चिमी हिंदी और राजस्थानी दोनों के समीप मानते हैं । मालवी की प्रमुख उपबोलियाँ - सोंडवाड़ी , डांगी , धोलेवाड़ी , पाटनी , करियाई रांगडी , रतलामी , डंगेसरी और उमठवाड़ी हैं ।

1961 की जनगणना के अनुसार इस बोली के बोलने वालों की संख्या 1142,478 है जबकि ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 43,50,507 थी । मालवी में लोक साहित्य के साथ साहित्य की भी रचना हुई है । ' चन्द्रसखी ' इसकी प्रसिद्ध कवयित्री हैं ।

४. बिहारी हिंदी:

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मागधी अपभ्रंश से ' बिहारी ' का विकास हुआ है। पूर्वी बिहारी और पश्चिमी बिहारी इन दो रूपों में इसे बाँटा जा सकता है। पूर्वी बिहारी की दो उपबोलियाँ हैं - मगही और मैथिली , परंतु ग्रियर्सन ने मगही को मैथिली की ही एक बोली माना है । भोजपुरी पश्चिमी बिहारी की बोली है। डॉ. सुनीति कुमार ने भोजपुरी को मगही और मैथिली से बिल्कुल भिन्न माना है ।

ग्रियर्सन ने बिहारी बोलने वालों की संख्या लगभग तीन करोड़ सत्तर लाख मानी थी । बिहारी की बोलियों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित हैं-

१. मैथिली- इस भाषा का प्रयोग मुजफरपुर , मुंगेर , उत्तरी भागलपुर , पूर्वी चंपारन , पूर्णिया , दरभंगा , नेपाल के सरलारी, रौताहट , मोहतरी , सप्तरी तथा मोरंग जिलों में किया जाता है । इसकी प्रमुख बोलियाँ पूर्वी मैथिली, दक्षिणी मैथिली छिकछिकी ( मगही तथा बंगला से प्रभावित ) अरबी , फारसी मिश्रित जोलाही मैथिली तथा केंद्रीय मैथिली । मैथिल ब्राह्मण इस बोली को लिखने के लिए मैथिली लिपि का प्रयोग करते हैं , परंतु सामान्यत : इसे नागरी लिपि में ही लिखा जाता है । कुछ लोग कैथी लिपि का प्रयोग भी करते हैं।

ग्रियर्सन के अनुसार 1971 ई. की जनगणना के अनुसार इनकी संख्या 61,21,922 है । इस बोली का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ ' वर्ण रत्नाकर ' है , जो शेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा रचित है । उमापति , विद्यापति , महीपति आदि इस बोली के प्रमुख साहित्यकार हैं।

२. मगधी- गया , पटना , मुंगेर , हजारीबाग , पलामू , राँची और भागलपुर जिलों के कुछ भागों में बोली जाने वाली ' मगही ' ' मागधी ' भी कहलाती है । ' मगही ' ' मागधी ' का ही विकसित रूप है । इसकी लिपि मुख्यतः कैथी तथा नागरी है परंतु कहीं - कहीं पूर्वी मगही बंगला तथा उड़िया में भी लिखी जाती है ।

ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 65,04,817 थी । सन् 1971 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 66,38,495 है । इसका परिनिष्ठित रूप ' गया ' में सुनने को मिलता है । इसमें केवल लोक साहित्य ही मिलता है । इसके प्रमुख कवि ' गोपीचंद ' तथा ' लोरिक ' मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं । यह बोली अपने आसपास के क्षेत्र की बोलियों से प्रभावित होने के कारण कई क्षेत्रों में यह मैथिली , उड़िया और बंगला से प्रभावित है । इसके मिश्रित रूपों में मैथिली प्रभावित मगही और भोजपुरी प्रभावित मगही दो प्रमुख रूप हैं ।

३. भोजपुरी- भोजपुरी के कुछ लोग ' पूरबी ' या भोजपुरिया ' भी कहते हैं । बिहार के शाहबाद जिले के ' भोजपुर ' नामक कस्बे के नाम पर इस बोली का नामकरण हुआ है । बिहार के सारन , शाहबाद , राँची , जसपुर , चम्पारन, पलामू का कुछ भाग , मुजफरपुर का कुछ भाग , गाजीपुर , बलिया , जौनपुर , मिर्जापुर , आजमगढ़ , वाराणसी , गोरखपुर आदि जिलों में बोली जाती है । भोजपुरी मुख्यत : चार रूपों में बोली जाती है - उत्तरी भोजपुरी ( थारू भोजपुरी भी इसके अंतर्गत आती है ) , दक्षिणी भोजपुरी ( परिनिष्ठित रूप ) , पश्चिमी भोजपुरी तथा नगपुरिया भोजपुरी । बँगरही , मधेसी , सरवरिया , सारनबोली तथा गोरखपुरी इस बोली के स्थानीय रूप है । भोजपुरी मुख्यतः नागरी लिपि में लिखी जाती है किंतु कभी - कभी कैथी लिपि का भी प्रयोग किया जाता है ।

इसके बोलने वालों की संख्या ग्रियर्सन के अनुसार दो करोड़ चार लाख है । 1971 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 143,40,564 है । इस बोली में लोक साहित्य ही मिलता है । गोरखनाथ चौबे , रामविचार पांडेय , राहुल सांकृत्यायन , चंचरीक आदि कुछ लोगों ने अवश्य ही थोड़ा - बहुत इस बोली में लिखा है ।

५. पूर्वी हिंदी:

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डॉ. धीरेंद्र वर्मा के अनुसार पूर्वी हिंदी का विकास मागधी अपभ्रंश से हुआ है । पूर्वी हिंदी के अंतर्गत अवधी , बघेली तथा छत्तीसगढ़ी तीन बोलियाँ रखी गई है । डॉ. ग्रियर्सन बघेली के जनमत को ध्यान में रखते हुए ही बोली मानते हैं । उन्होंने छत्तीसगढ़ी और अवधी को ही मुख्य रूप से पूर्वी हिंदी की उपबोलियाँ स्वीकार किया है। उनके अनुसार पूर्वी हिंदी बोलने वालों की संख्या 2,45,11,647 है।

१. अवधी- डॉ. ग्रियर्सन ने हिंदी क्षेत्र को दो भागों में विभाजित किया- पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी । पूर्वी हिंदी की उत्पति उन्होंने अर्ध - मागधी अपभ्रंश से मानी है । अवधी का मुख्य केंद्र अयोध्या है । अवधी को कुछ विद्वान पूर्वी उत्तरखंडी या बैसवाड़ी या कौसली कहने के पक्ष में है । अयोध्या से ' अवध ' शब्द विकसित हुआ और इसी के आधार पर इस बोली को ' अवधी ' की संज्ञा से अभिहित किया गया । अधिकांश विद्वान इसे ' अवधी ' नाम देने के ही पक्ष में हैं । कौसली को पूर्वी हिंदी का पूर्ण रूप माना जा सकता है , ग्रियर्सन इसे अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत मानते हैं तो डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे कौसली से निकली बताते हैं । कुछ विद्वान जिनमें बाबूराम सक्सेना का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । इसे ' पालि ' से उद्भूत भी मानते हैं ।

अवधी का मुख्य केंद्र लखनऊ , उन्नाव , बस्ती , रायबरेली , लखीमपुर , गोंडा , बहराइच , फैजाबाद , सीतापुर , बारबंकी , सीतापुर , हरदोई का कुछ भाग , इलाहाबाद और मिर्जापुर तथा जौनपुर है । अवधी की उपबोलियों की संख्या तेरह मानी गई है । इसे प्रायः नागर लिपि में लिखा जाता है ।

इसके बोलने वालों की संख्या एक करोड़ साढ़े इक्कीस लाख बताई जाती है । 1971 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 1.36,259 है । अवधी में साहित्य रचना पर्याप्त मात्रा में हुई है । सूफी प्रेमाख्यानक काव्यों में इस बोली को लिखने के लिए फारसी लिपि का प्रयोग भी किया है । इसके मुख्य कवि कुतबन , मंझन , जायसी , उस्मान आदि हैं । तुलसीदास रचित ' रामचरित मानस ' की रचना अवधी में हुई है अवधी का कुछ साहित्य कैथी लिपि में भी लिखा गया है । अवधी के कुछ अन्य प्रमुख कवि हैं- ईश्वर दास , सूरज दास , कासिम शाह , छेमकरण आदि तथा आधुनिक काल में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र का नाम लिया जा सकता है।

२. बघेली- बघेले राजपूतों के आधार पर रीवाँ के आसपास का क्षेत्र बघेलखंड कहलाता है और वहीं की बोली बघेली है । वास्तव में रीवाँ , जबलपुर , दमोह , बालाघाट , बांदा , फतेहपुर और हमीरपुर का कुछ भाग बघेली का क्षेत्र है । कुछ लोग बघेली को अवधी की एक उपबोली मानते हैं । परंतु ग्रियर्सन ने ऐसा नहीं माना और वे इस बोली के बोलने वालों की संख्या को ध्यान में रखते हुए उसे एक स्वतंत्र बोली मानते हैं ।

कुछ लोग इसे बघेलखंडी और कुछ रीवाई भी कहते हैं । ग्रियर्सन ने चांग , भरवार का कुछ भाग , जिला मण्डल का कुछ भाग , दक्षिणी मिर्जापुर का कुछ भाग तथा जबलपुर का कुछ भाग बघेली का प्रयोग क्षेत्र बताया है । बुंदेली , गहोरा , मरारी , कुम्भारी , ओझी , गोंडवानी , तिरहारी आदि बघेली की उपबोलियाँ हैं ।

ग्रियर्सन के अनुसार बघेली बोलने वालों की संख्या लगभग 46 लाख है । विद्वानों के अनुसार बघेली के मुख्यत : तीन रूप माने गए हैं - मानक बघेली, गौंडानी और मिश्रित बघेली। बघेली में साहित्य रचना नहीं हुई है , हाँ इसमें लोक साहित्य पर्याप्त मात्रा में मिलता है।

३. छत्तीसगढ़ी- छत्तीसगढ़ मुख्य क्षेत्र होने के कारण इस बोली का नाम छत्तीसगढ़ी पड़ा । इसका विकास अर्धमागधी अप्रभंश के दक्षिणी रूप से हुआ है । इस बोली पर नेपाली , बंगला तथा उड़िया का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पूर्वी सम्भलपुर के आसपास के क्षेत्र में इसे 'लरिया' के नाम से जाना जाता है । बालाघाट के लोग इसे खल्हार अथवा खलोटी भाषा भी कहते हैं।

छत्तीसगढ़ी विलास पुर , सम्भलपुर , रायपुर जिलों के पश्चिम भाग , नंद गांव , खैरागढ़ , चुईखदान, काँकेर सुरगुजा , कवर्धा तथा बालाघाट के पूर्वी भाग तथा बिहार के कुछ भागों बस्तर , सारंगढ़ तथा जशपुर में बोली जाती है । इसकी प्रमुख बोलियाँ- सदरी , कोरवा , बैगानी , सुरगुजिया , कलंगा , बिझवाली सतनामी , काँकेरी, भुलिया , हबली तथा बिलासपुरिया है । इसमें से बस्तर जिले में ' हलबी ' का प्रयोग होता है ।

ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या तैंतीस लाख बताई है । 1961 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 29620 आंकी गई है। ग्रियर्सन हलबी को मराठी की उपभाषा मानते हैं किंतु सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार यह छत्तीसगढ़ी की एक उपबोली है । छत्तीसगढ़ी में मुख्य रूप से लोक साहित्य हीं मिलता है ।