हिन्दी यात्रा-साहित्य का इतिहास
यात्रा-साहित्य का उद्देश्य : यात्रा करना मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। हम अगर मानव इतिहास पर नज़र डालें तो पाएँगे कि मनुष्य के विकास की गाथा में यायावरी का महत्वपूर्ण योगदान है। अपने जीवन काल में हर आदमी कभी-न-कभी कोई-न-कोई यात्रा अवश्य करता है लेकिन सृजनात्मक प्रतिभा के धनी अपने यात्रा अनुभवों को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर यात्रा-साहित्य की रचना करने में सक्षम हो पाते हैं। यात्रा-साहित्य का उद्देश्य लेखक के यात्रा अनुभवों को पाठकों के साथ बाँटना और पाठकों को भी उन स्थानों की यात्रा के लिए प्रेरित करना है। इन स्थानों की प्राकृतिक विशिष्टता, सामाजिक संरचना, सामाज के विविध वर्गों के सह-संबंध, वहाँ की भाषा, संस्कृति और सोच की जानकारी भी इस साहित्य से प्राप्त होती है।
आरंभिक युग
[सम्पादन]हिंदी साहित्य में अन्य गद्य विधाओं की भाँति ही भारतेंदु-युग से यात्रा-साहित्य का आरंभ माना जा सकता है। उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिकाओं में ‘हरिद्वार’, ‘लखनऊ’, ‘जबलपुर’, ‘सरयूपार की यात्रा’, ‘वैद्यनाथ की यात्रा’ और ‘जनकपुर की यात्रा’ आदि यात्रा-साहित्य प्रकाशित हुआ। इन यात्रा-वृतांतों की भाषा व्यंग्यपूर्ण है और शैली बड़ी रोचक और सजीव है। इस समय के यात्रा-वृतांतों में हम दामोदर शास्त्री कृत ‘मेरी पूर्व दिग्यात्रा’ (सन् 1885), देवी प्रसाद खत्री कृत ‘रामेश्वर यात्रा’ (सन् 1893) को महत्वपूर्ण मान सकते हैं किंतु यह यात्रा-साहित्य परिचयात्मक और किंचित स्थूल वर्णनों से युक्त है।
बाबू शिवप्रसाद गुप्त द्वारा लिखे गए यात्रा-वृतांत ‘पृथ्वी प्रदक्षिणा’ (सन् 1924) को हम आरंभिक यात्रा-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान दे सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता चित्रात्मकता है। इसमें संसार भर के अनेक स्थानों का रोचक वर्णन है। लगभग इसी समय स्वामी सत्यदेव परिव्राजक कृत ‘मेरी कैलाश यात्रा’ (सन् 1915) तथा ‘मेरी जर्मन यात्रा’ (सन् 1926) महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने सन् 1936 में ‘यात्रा मित्र’ नामक पुस्तक लिखी, जो यात्रा-साहित्य के महत्व को स्थापित करने का काम करती है। विदेशी यात्रा-विवरणों में कन्हैयालाल मिश्र कृत ‘हमारी जापान यात्रा’ (सन् 1931), रामनारायण मिश्र कृत ‘यूरोप यात्रा के छः मास’ और मौलवी महेशप्रसाद कृत ‘मेरी ईरान यात्रा’ (सन् 1930) यात्रा-साहित्य के अच्छे उदाहरण हैं।
स्वतंत्रता-पूर्व युग
[सम्पादन]यात्रा-साहित्य के विकास में राहुल सांकृत्यायान का योगदान अप्रतिम है। इतिवृत्त-प्रधान शैली होने के बावजूद गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से इनके यात्रा-वृतांतों की तुलना में कोई दूसरा लेखक कहीं नहीं ठहरता है। ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘किन्नर देश में’, ‘रूस में 25 मास’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘यात्रा के पन्ने’, ‘जापान, ईरान, एशिया के दुर्गम खंडों में’ आदि इनके कुछ प्रमुख यात्रा-वृतांत हैं। राहुल सांकृत्यायन के यात्रा-साहित्य में दो प्रकार की दृष्टि को साफ देखा जा सकता है। उनके एक प्रकार के लेखन में यात्राओं का केवल सामान्य वर्णन है और दूसरे प्रकार के यात्रा-साहित्य को शुद्ध साहित्यिक कहा जा सकता है। इस दूसरे प्रकार के यात्रा-साहित्य में राहुल सांकृत्यायन ने स्थान के साथ-साथ अपने समय को भी लिपिबद्ध किया है। सन् 1948 में इन्होंने ‘घुम्मकड़ शास्त्र’ नामक ग्रन्थ की रचना की जिससे यात्रा करने की कला को सीखा जा सकता है। इनका अधिकांश यात्रा-साहित्य सन् 1926 से 1956 के बीच लिखा गया।
स्वातंत्रयोत्तर युग
[सम्पादन]राहुल सांकृत्यायन के बाद यात्रा-साहित्य में बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि-कथाकार अज्ञेय का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। अज्ञेय अपने यात्रा-साहित्य को यात्रा-संस्मरण कहना पसंद करते थे। इससे उनका आशय यात्रा-वृतांतों में संस्मरण का समावेश कर देना था। उनका मानना था कि यात्राएँ न केवल बाहर की जाती हैं बल्कि वे हमारे अंदर की ओर भी की जाती हैं। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ (सन् 1953) और ‘एक बूँद सहसा उछली’ (सन् 1960) उनके द्वारा लिखित यात्रा-साहित्य की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ में उनके भारत भ्रमण का वर्णन है और दूसरी पुस्तक ‘एक बूँद सहसा उछली में’ उनकी विदेशी यात्राओं को शब्दबद्ध किया गया है। अज्ञेय के यात्रा-साहित्य की भाषा गद्य भाषा के नए मुकाम तक ले जाती है।
आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य में बहुतायत से यात्रा-साहित्य का सृजन हुआ। अनेक प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृिद्ध प्रदान की। रामवृक्ष बेनीपुरी कृत ‘पैरों में पंख बाँधकर’ (सन् 1952) तथा ‘उड़ते चलो उड़ते चलो’, यश्पाल कृत ‘लोहे की दीवार के दोनों ओर’ (सन् 1953), भगवतशरण उपाध्याय कृत ‘कलकत्ता से पेकिंग तक’ (सन् 1953) तथा ‘सागर की लहरों पर’ (सन् 1959), प्रभाकर माचवे कृत ‘गोरी नज़रों में हम’ (सन् 1964) उल्लेखनीय हैं।
हिंदी यात्रा-साहित्य के संदर्भ में मोहन राकेश तथा निर्मल वर्मा को भी बड़े हस्ताक्षर माना जाता है। इन्होंने यात्रा-साहित्य को नए अर्थों से समन्वित किया। मोहन राकेश द्वारा लिखित ‘आखिरी चट्टान तक’ (सन् 1953) में दक्षिण भारत का विस्तार से वर्णन किया गया है। दक्षिण भारतीय जीवन पद्धति के विविध बिम्बों को इसमें लेखक ने यथावत प्रस्तुत कर दिया है। इनके यात्रा-साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कहानी की-सी रोचकता और नाटक का-सा आकर्षण देखा जा सकता है। निर्मल वर्मा ने ‘चीड़ों पर चाँदनी’ (सन् 1964) में यूरोपीय जीवन के चित्रों को उकेरा है। निर्मल वर्मा के यात्रा-साहित्य में न केवल अपने समय का वर्णन रहता है बल्कि इतिहास और संस्कृति के अनेक बिंदुओं को भी इसमें अभिव्यक्ति मिलती है। विदेशी संदर्भों को भी उनके गद्य की सहजता बोझिल नहीं होने देती।
कोई भी लेखक अच्छा लेखक तभी बनता है जब वह जीवन को समीप से देखता है और जीवन को समीप से देखने का सबसे सरल माध्यम यात्रा करना हैै। रचनात्मक लेखन करने वाला हर लेखक अपने साहित्य में किसी न किसी रूप में यात्रा-साहित्य का सृजन अवश्य करता है। हमने उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण में देखा कि हिंदी में यात्रा विषयक प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। हिंदी गद्य के साथ-साथ इसने भी पर्याप्त विकास किया है। अधिकांश लेखकों ने इस विधा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है।