हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/हिन्दी नवजागरण में बंगाल का योगदान

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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
 ← नवजागरण की अवधारणा हिन्दी नवजागरण में बंगाल का योगदान राष्ट्रीय नवजागरण की परंपरा और 1857 की राज्य क्रांति → 

भूमिका[सम्पादन]

डाॅ. रामविलास शर्मा हिन्दी के ऐसे आलोचक है, जिन्होंने हिन्दी नवजागरण के सवाल पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है, वरन यह भी बतलाया है, कि इसकी प्रकृति अन्य क्षेत्रों में हुए नवजागरण से किस प्रकार भिन्न है। समान्यतः यह माना जाता रहा है,कि ब्रिटिश शासन का प्रभाव और उसके माध्यम से आधुनिक पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का पहला अनुभव बंगाली जनता को हुआ, जिसके फलस्वरूप वहाँ सबसे पहले नवीन आधुनिक चेतना आई। इस चेतना से हुए बौद्धिक परिवर्तन को नवजागरण कहा जाता है। इसने बंगाली समाज के मध्यकालीन सोच और रूढ़ियों को अन्धकार से बाहर निकालने का काम किया, इसलिए यह माना जाता है, कि देश में सबसे पहले आधुनिक चेतना बंगाल में आयी। इसके अग्रदूत होने कै श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता है। नवजागरण की प्रक्रिया देश के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग ढंग से भिन्न-भिन्न विशेषताओं के साथ चली थी। इसलिए हर क्षेत्र के नवजागरण की खूबियाँ अलग-अलग रही है। हिन्दी क्षेत्र के नवजागरण को रामविलास शर्मा ने खासतौर से इस वजह से विशिष्ट माना है,कि उसमें सामन्तवाद तथा साम्राज्यवाद दोनों के विरूद्ध संधर्ष का भाव था।

बंगाल का योगदान[सम्पादन]

बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा और भाषा दोनों के समर्थन के पक्ष में नवजागरण की शरूआत हुई। इसकी शरूआत 1814 ई० से मानी गयी है, जब राजा राममोहन राय ने 'आत्मीय सभा' की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म में सुधार लाने के लिए और ऐकेश्वाद का प्रचार करने के लिए सन् 1828 ई. में 'ब्रह्म समाज' नामक एक सोसाइटी की स्थापना की। राजा राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के पक्षपाती थे। भारतीय समाज को एक नई दिशा देने के लिए उन्होंने लेखों, निबंधों एवं पत्रिकाओं के माध्यम के अपने विचारों को जनता तक पहुँचाया।

इनके बाद ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने आधुनिक भारत के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। विद्यासागर जी नारी जाति के सच्चें हितैषी थे। स्त्रियों को उनका अधिकार दिलाने के लिए उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा। विधवाओं की पीड़ा और दीन-हीन दशा को ध्यान में रखकर 7 दिसम्बर 1856 को विधवा-पुनर्विवाह कानून पास कराया। स्त्रियों की शिक्षा के लिए उऩ्होंने 35 बालिका विद्यालय की स्थापना भी की।

नवजागरण की अगली कड़ी में यंग बंगाल आन्दोलन के नेता डेरोेजियो का नाम आता है। इन्होंने युवावर्ग को अपने विचारों द्वारा प्रभावित किया। इन्होंने सामाजिक बुराईयों के विरोध के साथ-साथ प्रेस की स्वतंत्रता और समाज में समानता के भाव पर ज़ोर दिया। राममोहन की परम्परा के आधार पर समाज सुधारों का कार्यक्रम उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहा। उसकी कमान देवेंद्रनाथ ठाकुर और अक्षय कुमार दत्त के हाथों में थी।

सन् 1857 ई. के विद्रोह के बाद बंगाल के पुनर्जागरण ने साहित्यिक क्रांति और उसके ज़रिये राष्ट्रवादी चिंतन के युग में प्रवेश किया। नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज़ों के जुल्मों के ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष में बंगाली बुद्धिजीवियों ने भी अपनी आवाज़ मिलायी। दीनबंधु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ ने बंगाल के मानस को झकझोर दिया। माइकेल मधुसूदन दत्त ने उसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया जिसके ख़िलाफ़ अदालत ने एक हज़ार रुपये के ज़ुर्माने की सज़ा सुनायी। माइकेल ने सन् 1860 ई. में 'मेघनाद-वध' की रचना करके नयी बंगाली कविता की सम्भावनाओं का उद्घोष किया। सन् 1865 ई. में बंकिम चंद्र चटर्जी का सूर्य उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास 'दुर्गेशनंदिनी' के साथ बंगाली सांस्कृतिक क्षितिज पर उगा। सन् 1882 ई. में 'आनंदमठ' लिख कर वे देशभक्तिपूर्ण पुनरुत्थानवाद की लहर में बह गये। इसी रचना में दर्ज ‘वंदेमातरम’ गीत भारत के तीन राष्ट्रगीतों में से एक है।

1870 के बाद की अवधि राजनीतिक आंदोलनों की अवधि थी जिसमें सुरेंद्रनाथ बनर्जी का नेतृत्व उभरा जिन्हें ‘बंगाल के बेताज के बादशाह’ के तौर पर जाना गया। सुरेंद्रनाथ के जुझारूपन कारण के कारण अंग्रेज़ उनका नाम बिगाड़ कर ‘सरेंडर नॉट’ बनर्जी भी कहते थे। 1876 में बनर्जी ने ‘इण्डिन एसोसिएशन’ की स्थापना की जिसके 1883 के राष्ट्रीय सम्मेलन में सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संगठन बनाने का विचार पैदा हुआ। इसका परिणाम 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ऐतिहासिक स्थापना के रूप में निकला। बंगाली बुद्धिजीवियों कांग्रेस की गतिविधियों में जम कर भागीदारी की और 1903 तक कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता सात बार उनके खाते में गयी। बंगाल ने महाराष्ट्र और पंजाब के साथ मिल कर कांग्रेस के गरमदली धड़े की रचना करने में निर्णायक भूमिका निभायी।

बंगाल के नवजारण के आख़िरी दौर पर गिरीश चंद्र घोष जैसे नाटककार, बंकिम की परम्परा में रमेशचन्द्र दत्त जैसे ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासकार (जिन्हें हम महान आर्थिक इतिहासकार के तौर पर भी जानते हैं), मीर मुशर्रफ़ हुसैन जैसे मुसलमान कवि,की छाप रही।लेकिन, रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा के सामने ये सभी प्रतिभाएँ फीकी पड़ गयीं। रवींद्रनाथ ने अपने रचनात्मक और वैचारिक साहित्य से एक पूरे युग को नयी अस्मिता प्रदान की। उन्होंने अपने युग पर आलोचनात्मक दृष्टि फेंकी। बंगाल के नवजागरण का विस्तार राजा राममोहन राय से आरम्भ होकर रबीन्द्रनाथ ठाकुर तक माना जाता है।