सामग्री पर जाएँ

अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य/प्रभा खेतान

विकिपुस्तक से

पृष्ठ संख्या 28

“किशन ! बेशरम कहीं का...“ मैं चीखी, पर वह भला कहां मानने वाला...

“अरे देख गीता ! देख, यह गुड़िया बाँस को चीरकर बनाई गई है। दो टाँग और बीच में पत्थर अटका दिया है। है…है…प्रभा की गुड़िया भाटा माई, पभा की गुड़िया भाटा माई।”

किशन ने टिकोजी शेप की गुड़िया हथेलियों पर रखी और जोरों से नारा लगाया, “भाटा माई की जय…भाटा माई की जय!” किशन के पीछे गीता और पुष्पा। तीनों नीचे उतर गए थे। “मेरी गुड़िया…मेरी गुड़िया…दाई माँ मेरी गुड़िया…” मैं जमीन में लोट रही थी। तब तक खेदरवा भाटा माई के लिए ना कहके जा चुका था। गीता, किशन और पुष्पा के जुलूस में अब शाम को खेलनेवाले अन्य और बच्चे भी शामिल थे।

अब छोटे भैया तथा जीजी लोगों की बारी थी। रात को खाना खाते वक्त सल्लो जीजी ने बात छेड़ी, “अम्मा ! अपनी प्रभा की सगाई खेदरावा से कर दें।” “उपले पाथा करेगी।” छोटे भैया ने चिकोटी ली। बाबूजी की प्रश्न पूछती आंखें। अम्मा ने कहा, “मुझे तो ये बच्चे रात–दिन नोचतें रहते हैं। क्या मजाल कि शांति से दोपहर को भी आराम कर ले।”

हरिया ने सारी कहानी बाबूजी के सामने सुनाई,“हरिया ! चमेलिया की माँ से कहना–बच्ची को हर कहीं न ले जाया करे।” उस रात मैं और दाई मां, दोनों गले लगकर रोती रहीं। वह मेरे आंसू पोंछ रहीं थीं, मैं उनके। “गरीबी बहुत बुरी चीज़ है बिटिया!…”“हां, दाई मां! सच कहती हूं दाई मां, अब मैं कभी भी गुड़िया के ब्याह का सपना नहीं देखूंगी।”

मैं स्मृतियों की पगडंडी पर संभाल –संभाल कर कदम रख रही हूं। कभी आंचल झाड़ियों में उलझता है, कभी पैरों में नुकीले पत्थर चुभते हैं…कभी सामने कोहरे के बादल…सामने कुछ भी दिखाई नही पड़ता…और कभी पैरों के नीचे ठंडी ओस की बूंदे, मुझे मेरे आंसुओं की याद दिलाती हुई।