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अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य/स्त्री कविता

विकिपुस्तक से

कीर्ति चौधरी

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सीमा-रेखा

मृग तो नहीं था कहीं
बावले भरमते-से इंगित पर चले गए
तुम भी नहीं थे
बस केवल यह रेखा थी
जिसमें बँधकर मैंने दुस्सह प्रतीक्षा की
संभव है आओ तुम
अपने संग अंजलि में भरने को
स्वर्णदान लाओ
इन चरणों से
यह सीमा-रेखा बिलगाओ

पर
बीते दिन, वर्ष, मास
मेरी इन आँखों के आगे ही
फिर-फिर मुरझाए ये निपट काँस

मन मेरे!
अब रेखा लाँघो
आए तो आए
वह वन्य
छद्मधारी
अविचारी
कर खंडित कलंकित
ले जाए तो ले जाए
मंदिर में ज्योतित
उजाले का प्रण करती
कंपित निर्धूम शिखा-सी
यह अनिमेष लगन
कौन वहाँ आतुर है!

किसे यहाँ देनी है
ऊँचा ललाट रखने को
अग्नि की परीक्षा वह![]

कात्यायनी

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सात भाइयों के बीच चंपा

सात भाइयों के बीच
चंपा सयानी हुई।
बाँस की टहनी-सी लचक वाली,
बाप की छाती पर साँप-सी लोटती
सपनों में
काली छाया-सी डोलती
सात भाइयों के बीच
चंपा सयानी हुई।
ओखल में धान के साथ
कूट दी गई
भूसी के साथ कूड़े पर
फेंक दी गई।
वहाँ अमरबेल बनकर उगी।
झरबेरी के सात कँटीले झाड़ो के बीच
चंपा अमरबेल बन सयानी हुई।
फिर से घर आ धमकी।
सात भाइयों के बीच सयानी चंपा
एक दिन घर की छत पर
लटकती पाई गई।
तालाब में जलकुंभी के जालों के बीच
दबा दी गई।
वहाँ एक नीलकमल उग आया।
जलकुंभी के जालों से ऊपर उठकर
चंपा फिर घर आ गई,
देवता पर चढ़ाई गई
मुरझाने पर मसलकर फेंक दी गई,
जलाई गई।
उसकी राख बिखेर दी गई
पूरे गाँव में।
रात को बारिश हुई झमड़कर।
अगले ही दिन
हर दरवाजे के बाहर
नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच
निर्भय-निस्संग चंपा
मुस्कुराती पाई गई।[]

सविता सिंह

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मैं किसकी औरत हूँ
मैं किसकी औरत हूँ
कौन है मेरा परमेश्वर
किसके पाँव दबाती हूँ
किसका दिया खाती हूँ
किसकी मार सहती हूँ...
ऐसे ही थे सवाल उसके
बैठी थी जो मेरे सामने वाली सीट पर रेलगाड़ी में
मेरे साथ सफ़र करती

उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर साल
आँखें धँस गई थीं उसकी
मांस शरीर से झूल रहा था
चेहरे पर थे दुःख के पठार
थीं अनेक फटकारों की खाइयाँ

सोचकर बहुत मैंने कहा उससे
"मैं किसी की औरत नहीं हूँ
मैं अपनी औरत हूँ
अपना खाती हूँ
जब जी चाहता है तब खाती हूँ
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं"
उसकी आँखों में भर आई एक असहज ख़ामोशी
आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन!
संशय में पड़ गई वह
समझते हुए सभी कुछ
मैंने उसकी आँखों को अपने अकेलेपन के गर्व से भरना चाहा
फिर हँसकर कहा, "मेरा जीवन तुम्हारा ही जीवन है
मेरी यात्रा तुम्हारी ही यात्रा
लेकिन कुछ घटित हुआ जिसे तुम नहीं जानती––
हम सब जानते हैं अब
कि कोई किसी का नहीं होता
सब अपने होते हैं
अपने-आप में लथपथ––अपने होने के हक़ से लक़दक़"

यात्रा लेकिन यहीं समाप्त नहीं हुई है
अभी पार करनी है कई और खाइयाँ फटकारों की
दुःख के एक-दो और समुद्र
पठार यातनाओं के अभी और दो-चार
जब आख़िर आएगी वह औरत
जिसे देख तुम और भी विस्मित होओगी
भयभीत भी शायद
रोओगी उसके जीवन के लिए फिर हो सशंकित
कैसे कटेगा इस औरत का जीवन फिर से कहोगी तुम
लेकिन वह हँसेगी मेरी ही तरह
फिर कहेगी––
"उन्मुक्त हूँ देखो,
और यह आसमान
समुद्र यह और उसकी लहरें
हवा यह
और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी हैं
और मैं हूँ अपने पूर्वजों के शाप और अभिलाषाओं से दूर
पूर्णतः अपनी"।[]

संदर्भ

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  1. कीर्ति चौधरी (2004). कीर्ति चौधरी की कविताएँ. किताबघर प्रकाशन. पृप. 23–24. आइएसबीएन 978-81-88118-62-5.
  2. अनामिका 2015, p. 203-04.
  3. अनामिका 2015, p. 269-70.

स्रोत

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  • अनामिका, संपा. (2015). बीसवीं सदी का हिंदी महिला-लेखन. 2 (प्रथम संस्क.). दिल्ली: साहित्य अकादमी. आइएसबीएन 978-81-260-4782-6.