चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक स्वप्न-कथा/भाग 6

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चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक स्वप्न-कथा
भाग 6


मुझे जेल देती हैं

दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ

गुस्से में ढकेल ही देती हैं।

भयानक समुन्दर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ।

अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर

पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं

वीरान जलती हुई अकेली धड़कन... सहसा पछाड़ खा

चारों ओर फैले उस भयानक समुद्र की

(काले संगमूसा-सी चिकनी व चमकदार)

सतहों पर छटपटा गिरता हूँ

कि माथे पर चोट जो लगती है


लहरें चूस लेती हैं रक्त को,

तैरने लगते-से हैं रुधिर के रेशे ये।

इतने में ख़याल आता है कि

समुद्र के अतल तले

लुप्त महाद्वीपों में पहाड़ भी होंगे ही

उनकी जल खोहों तक जाना ही होगा अब।

भागती लहरों के कन्धों के साथ-साथ

आगे कुछ बढ़ता हूँ कि

नाभि-नाल छूता हूँ अकस्मात्।

मृणाल, हाँ मृणाल

जल खोहों से ऊपर उठ

लहरों के ऊपर चढ़

बनकर वृहद् एक

काला सहस्र-दल सम्मुख उपस्थित है,

उसमें हैं कृष्ण रक्त।

गोता लगाऊँ और

नाभि-नाल-रेखा की समान्तर राह से

नीचे जल-खोह तक पहुँचूँ तो

सम्भव है सागर का मूल सत्य

मुझे मिल जायगा।

अन्धी जल-खोहों में

क्यों न हम घूमें और

सर्वेक्षण क्यों न करें

फिरें-तिरें।

चाहें तो दुर्घटनाघात से

बूढ़ी विकराल व्हेल-पंजर की काँख में फँसें-मरें।


इतने में, भुजाएँ ये व्यग्र हो

पानी को काटती उदग्र हो।

अचानक खयाल यह आता है कि

काले संगमूसा-सी भयानक लहरों के

कई मील नीचे के एक

वृहद नगर

भव्य.....

सागर के तिमिर-तले।

निराकार निराकार तमाकार पानी की

कई मील मोटी जो लगातार सतहें हैं

जहाँ मुझे जाना है।

इसीलिए, मुझे इस तमाकार पानी से

समझौता करना है

तैरते रहना सीमाहीन काल तक

मुझको तो मृत्यु तक

भयानक लहरों से मित्रता रखना है।

इतने में, हाय-हाय

सागर की जल-त्वचा थरथरा उठती है,

लहरों के दाँत दीख पड़ते हैं पीसते,

दल पर दल लहरें हैं कि

तर्कों की बहती हुई पंक्तियाँ, दिगवकाश-सम्बन्धी थियोरम या

ऊर्धोन्मुख भावों की अधःपतित

उठती निसैनियाँ!!


और,ये लहरें जिस सीमा तक दौड़तीं

जहाँ जिस सीमा पर खो-सी जाती हैं

वहीं, हाँ,

पीली और भूरी-सी धुन्ध है गीली सी

मद्धिम उजाले को मटमैला बादली परदा-सा

कि जिसके प्रसार पर

जुलूस चल पड़ते हैं

दिक्काल


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