जनपदीय साहित्य/जनपदीय साहित्य के विविध रूप

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जनपदिय साहित्य हमें विविध रूपों में मिलता है। इसके विभिन्न रूपों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-

लोक गीत[सम्पादन]

लोकगीत जनपदिय साहित्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप है। इनका प्रभाव सबसे अधिक व्यापक है। इनकी मात्रा भी अन्य साहित्य रूपों की तुलना में अधिक है। लोकगीत अपनी सहजता, रसमयता तथा प्रवाहमयता के कारण महत्गुवपूर्णोंण होते हैं। ये लयबद्ध और मधुर होते हैं। ये आम जनों के मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति होते हैं। इनमें उनका सुख-दुःख, हानि-लाभ, हाट-बजार, क्रोध-आशीर्वाद सभी अभिव्यक्त होता है।

लोक गीत लोक संस्कृति के परिचायक हैं । लोक संस्कृति के आधार पर इनका वर्गीकरण निम्न रूपों में किया जा सकता है:

  1. संस्कार गीत
  2. व्रत उत्सवों के गीत
  3. ऋतु संबंधी गीत
  4. श्रम संबंधी गीत

लोक कथा[सम्पादन]

कथा कहना और सुनना जनपदिय संस्कृति का अनिवार्य हि्ससा रहा है। लोकगीतों की ही तरह विभिन्न अवसरों के लिए लोककथाओं का भी विकास हुआ। ये लोकगीतों की तुलना में अधिक प्रबंधात्मक होते हैं। ये अधिक लंबे औ्र घटना प्रधान होते हैं। विषय की दृष्टि से लोकगाथाओं में वीरता साहस और रोमांच का पुट रहता हैं । जैसे आल्हाखण्ड, और सोरठी की गाथा रहस्य और रोमांच से परिपूर्ण हैं । विभिन्न अवसरों तथा व्रतों के लिए भी कथाएं मिलती है। उदाहरण के लिए गाँवों में सत्यनारायण कथा सोमवार की कथा वीरवार की कथा आदि का आयोजन अक्सर किया जाता है । विचित्र घटनाओं और रोमांच से भरी होने तथा गेयता के कारण सरस लगने वाली ये कथाएं बहुत लोकप्रीय होती हैं। ऐसी ही कुछ लोकप्रीय लोकगाथाओं के उदाहरण हैं- आल्हा, लोरिक, ढोला मारू, हीररांझाँ आदि।

लोक कथाएं दिनों की भी होती हैं औ्र महिनों की भी। ये पर्वों, त्योहारों और व्रतों से भी बंधी हैं। स्वरूप के अनुरूप इन्हें निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है-

  1. व्रत कथा
  2. उपदेश कथा
  3. पौराणिक कथा
  4. परीकथा
  5. प्रेम कथा
  6. वीर कथा
  7. अद्भुत कथा

लोक नाट्य[सम्पादन]

लोक संवेदनाएं नाट्‌य रूप में संवादों के माध्यम से किसी कथावृत में प्रस्तुत होकर लोकनाट्‌य बन जाती हैं। इसमें लोकगीत और लोककथाओं के साथ-साथ अभिनय कला भी शामिल हो जाती है। भारत में विभिन्शान जनपदों में अनेक तरह के लोकनाट्मिय प्लरचलित हैं। लोक नाट्य को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- (क) नृत्यप्रधान और (ख) कथा प्रधान।

कुछ लोकनाट्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिकित है:
  • गबरी - यह राजस्थान के भीलों का सवा महिने तक चलने वाला लोकनाट्य है। इसमें शिव और भस्मासुर की कथा खेली जाती है। भील इसका आयोजन ेक धार्मिक अनुष्टान की तरह करते हैं। सावन पूर्णिमा के अगले दिन से शुरु होने वाले इस नाटक में चार तरह के पात्र- देवता, मनुष्य, दैत्य और पसु होते हैं।
  • बिदेशिया - भिखारी ठाकुर के द्वारा रचित यह नाट्य भोजपूरी तथा आसपास के इलाकों का लोकनाट्य है। इसमें चार मुख्य पात्र हैं- विदेशी, प्यारी सुंदरी, रंडी औ्र बटोही। इसके अलावा दोस्त तथा देवर आदी पात्र भी हैं। यह साँवले रंग वाले मध्यम आकार के ग्रामीण युवक विदेशी के गाँव से अपनी पत्कनी प्लयारी सुंदरी को छोड़कर कलकत्कता जाने, वहाँ मजदूरी करने तथा रंडी के साथ वहीं रह जाने, प्त्तायारी सुंदरी के विरह में तड़पने तथा बटोही के कलकत्ता जाकर युवक को गाँव वापस भेजने की कथा पर आधारित नाट्य है। इसके गीतों में लोकगीतों के विभिन्न रूप जैसे चैती, पूरबिया, झूमर ादि को शामिल किया गया है।
  • स्वाँग - यह मुख्यतः हरियाणा, उत्तरप्रदेश आदि के इलाकों का लोकनाट्य है। हरियाणा के लक्षमीचंद ने सौ से भी अधिक सांग नाट्य रचे हैं। इसमें किसी पौराणिक या ऐतिहासिक कथा का मंचन किया जाता है। इसमें स्वाँग इतना वास्तविक होता है कि अभिनय करने वाला पात्र असली पात्र लगने लगता है। इसमें रानी पिंगला की कहानी, राजा हरिश्चंद्र की कहानी आदि पर आधारित सांग बहुत लोकप्रिय रहे हैं।
  1. रास - यह ब्रज के इलाके का लोकनाट्य है। इसकी भाषा ब्रज होती है। इसमें कृष्ण के जीवन की विभिन्न घटनाओं को लोकनाट्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें लावणी शैली में गीत गाए जाते हैं।
  2. किर्तनिया- यह बंगाल के इलाके में होने वाला लोकनाट्य है। इसमें राम या श्याम की कथा को नाट्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

पहेलियाँ और बुझौवल[सम्पादन]

  1. "आड़ी-तेढ़ी बाँसरी बजावन वालो कोनऽ

दुरगा चली मायके, मनावन वालो कोनऽ।"

  1. "घाम मऽ सुकत नी, छाय मऽ सुक जाय

बता का चीज आय, पवन लगय मर जाय।"

  1. "एक अचम्भा हमनऽ देख्यो

कुआँ मऽ लग गई आग।
पानी-पानी जल गयो
मच्छी खेलय फाग।"

  1. "ऊप्पर सी गई, उगी दुगी

नीच्चऽ सी आई गाल फूगी।"

  1. "नान्ही सी डब्बी म, हाय-हाय का बीजा।"
  2. "एक सिंगी गाय.

सब मुलुक को मार खाय।"

  1. "चार भाई चार रंग

फूल खिलय लाल रंग"

  1. "बाटी भर राई, घर-भर फैलाई।"

लोकोक्तियाँ और मुहावरे[सम्पादन]

लोक संवाद में लोकोक्तियाँ औ्र मुहावरे का बहुतायत से प्रयोग मिलता है। ये लोक अनुभव के ज्ञानकोश हैं। मुहावरे छोटे वाक्यांश होते हैं औ्र लोकोक्तियाँ पूर्ण वाक्य। इनके प्रयोग से भाषा में अनुभव की गहनता ा जाती है। लोकोक्तियां और मुहावरे समास शैली में बने होते हैं। ये थोड़े में अधिक कहते हैं। किंतु इनकी भाषा सरल सहज बोधगम्य होती है।

कुछ लोकोक्तियों के उदाहरण निम्नलिखित हैं:
  1. ना नीमन गीतिया गाइब, ना मड़वा में जाइब– ना अच्छा काम करेंगे ना पूछ होगी
  2. 1. जो पुरुषा पुरवाई पावै, सूखी नदिया नाव चलावै।
  3. चउबे गइलन छब्बे बने दूबे बन के अइलन– फायदे के लालच में नुकसान करना
  4. हाथी चले बाजार, कुकुर भोंके हजार
  5. खेत खाय गदहा, मारल जाय जोलहा
  6. नन्ही चुकी गाजी मियाँ, नव हाथ के पोंछ
  7. क, ख, ग, घ के लूर ना, दे माई पोथी
  8. माड़-भात-चोखा, कबो ना करे धोखा– सादगी का रहन-सहन
  9. तेली के जरे मसाल, मसालची के फटे कपार– इर्ष्या करना
  10. ससुर के परान जाए पतोह करे काजर– निष्ठुर होना
  11. हड़बड़ी के बिआह, कनपटीये सेनुर– हड़बड़ी का काम गड़बड़ी में
  12. कानी बिना रहलो न जाये, कानी के देख के अंखियो पेराए– प्यार में तकरार
  13. ना नौ मन तेल होई ना राधा नचिहें– न साधन उपलब्ध होगा, न कार्य होगा
  14. एक मुट्ठी लाई, बरखा ओनिये बिलाई– थोड़ी मात्रा में
  15. हथिया-हथिया कइलन गदहो ना ले अइलन– नाम बड़े दर्शन छोटे
  16. जहां जाये दूला रानी, उहाँ पड़े पाथर पानी।
  17. पैइसा ना कौड़ी , बाजार जाएँ दौड़ी।
  18. जेकरे पाँव ना फटी बेवाई , ऊ का जाने पीर पराई।