सामग्री पर जाएँ

जनपदीय साहित्य/बारहमासा, होली, चैती, कजरी

विकिपुस्तक से

Name:- Vishu Mani Tripathi Roll no:- 269 बारहमासा:- बारहमासा (पंजाबी में बारहमाहा) मूलतः विरह प्रधान लोकसंगीत है। वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुँह से कराया गया हो। मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत में वर्णित बारहमासा हिन्दी का सम्भवतः प्रथम बारहमासा है।

वर्ष भर के बारह मास में नायक-नायिका की शृंगारिक विरह एवं मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा नाम से सम्बोधित किया जाता है। श्रावण मास में हरे-भरे वातावरण में नायक-नायिका के काम-भावों को वर्षा के भींगते हुए रुपों में, ग्रीष्म के वैशाख एवं जयेष्ठ मास की गर्मी में पंखों से नायिका को हवा करते हुए नायक-नायिकाओं के स्वरुप आदि उल्लेखनीय है।

जब किसी स्त्री का पति परदेश चला जाता है और वह दुखी मन से अपने सखी को बारह महीने की चर्चा करती हुई कहती है कि पति के बिना हर मौसम व्यर्थ है। इस गीत में वह अपनी दशा को हर महीने की विशेषता के साथ पिरोकर रखती है।

ऐतिहासिक दृष्टि से बारहमासा, संस्कृत साहित्य का षडऋतु वर्णन की राह का काव्य है। कालिदास का ऋतुसंहार षडऋतुवर्णन ही है। अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर रैनि जाइ किमि काढ़ी॥ अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती॥ काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥ घर-घर चीर रचे सब का। मोर रूप रंग लेइगा ना॥ पलटि न बहुरा गा जो बिछाई। अबँ फिरै फिरै रँग सोई॥ बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥ यह दु:ख-दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू॥ पिउ सों कहेहु संदेसडा हे भौरा! हे काग! जो घनि बिरहै जरि मुई तेहिक धुवाँ हम्ह लाग॥ चैती:- चैती उत्तर प्रदेश का, चैत माह पर केंद्रित लोक-गीत है।[1] इसे अर्ध-शास्त्रीय गीत विधाओं में भी सम्मिलित किया जाता है तथा उपशास्त्रीय बंदिशें गाई जाती हैं।[2] चैत्र के महीने में गाए जाने वाले इस राग का विषय प्रेम, प्रकृति और होली रहते है। चैत श्री राम के जन्म का भी मास है इसलिए इस गीत की हर पंक्ति के बाद अक्सर रामा यह शब्द लगाते हैं।[3] संगीत की अनेक महफिलों केवल चैती, टप्पा और दादरा ही गाए जाते है। ये अक्सर राग वसंत या मिश्र वसंत में निबद्ध होते हैं। चैती, ठुमरी, दादरा, कजरी इत्यादि का गढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा मुख्यरूप से वाराणसी है। पहले केवल इसी को समर्पित संगीत समारोह हुआ करते थे जिसे चैता उत्सव कहा जाता था। आज यह संस्कृति लुप्त हो रही है, फिर भी चैती की लोकप्रियता संगीत प्रेमियों में बनी हुई है। बारह मासे में चैत का महीना गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है। चढ़त चइत चित लागे ना रामा/ बाबा के भवनवा/ बीर बमनवा सगुन बिचारो/ कब होइहैं पिया से मिलनवा हो रामा/ चढ़ल चइत चित लागे ना रामा कजरी:- कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध लोकगीत है। कजरी की उत्पत्ति मिर्जापुर में मानी जाती है। मिर्जापुर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के किनारे बसा जिला है। यह वर्षा ऋतु का लोकगीत है। इसे सावन के महीने में गाया जाता है। यह अर्ध-शास्त्रीय गायन की विधा के रूप में भी विकसित हुआ है और इसके गायन में बनारस घराने की ख़ास दखल है।

कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन विरह-वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिकतर मिलता है। कजरी की प्रकृति क्षुद्र है। इसमें शृंगार रस की प्रधानता होती है। उत्तरप्रदेश एवं बनारस में कजरी गाने का प्रचार खूब पाया जाता है। ब्रज क्षेत्र के प्रमुख लोक गीत झूला, होरी रसिया हैं। झूला, सावन में व होरी, फाल्गुन में गाया जाता है|

प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जनपद माँ विंध्यवासिनी के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है। अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है। आज कजरी के वर्ण्य-विषय काफ़ी विस्तृत हैं, परन्तु कजरी गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है। कुछ लोगों का मानना है कि कान्तित के राजा की लड़की का नाम कजरी था। वो अपने पति से बेहद प्यार करती थी। जिसे उस समय उससे अलग कर दिया गया था। उनकी याद में जो वो प्यार के गीत गाती थी। उसे मिर्जापुर के लोग कजरी के नाम से याद करते हैं। वे उन्हीं की याद में कजरी महोत्सव मनाते हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों में श्रावण मास का विशेष महत्त्व है।

कजरी के चार अखाड़े प.शिवदास मालिविय अखाड़ा, जहाँगीर अखाड़ा, बैरागी अखाड़ा व अक्खड़ अखाड़ा हैं। यह मुख्यतः बनारस, बलिया, चंदौली और जौनपुर जिले के क्षेत्रों में गाया जाता है।