भारतीय काव्यशास्त्र/ध्वनि सिद्धांत

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भारतीय काव्यशास्त्र
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ध्वनि सिध्दांत[सम्पादन]

'ध्वनि' शब्द 'ध्वन्' धातु और 'इ' प्रत्यय के योग से बना है, जिसका सामान्य अर्थ हैं- शब्द, आवाज, नाद। शब्दार्थ की दृष्टि से ध्वनि कानों में सुनाई देने वाले नाद को कहते हैं। ध्वनि सिध्दांत के प्रवर्तन का श्रेय आनन्दवर्धन को दिया जाता है, जिन्होंने अपने प्रख्यात ग्रन्थ ध्वन्यालोक में इस तत्व का सर्वप्रथम व्यवस्थित, व्यापक और स्वच्छ स्वरूप प्रतिपादित किया,मुकुल, भटट्नायक, कुन्तक, धनंजय, महिमभट्ट आदि के विरोधी आचार्य थे। ध्वनि की परम्परा आनन्दवर्धन से पूर्व भी विद्यमान थी। अलंकारवादी आचार्यों ने ध्वनि शब्द का प्रयोग नहीं किया फिर भी अनेक अलंकारों के लक्षणों अथवा उदाहरणों में, स्पष्ट अथवा प्रकारांतर से ध्वनि के संकेत मिल जाते हैं। आनन्दवर्धन के उपरान्त ध्वनि तत्व का खण्डन किया गया। किन्तु आगे चलकर मम्मट ने अपने मार्मिक विवेचन द्वारा ध्वनि सिध्दान्त की पुनः स्थापना की। आनंदवर्धन ने ध्वनि का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

"यत्रार्थ: शब्दों वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थौ।'
व्यक्त: काव्यविशेष: से ध्वनिरिति सूरभि: कथित:।।" '

अर्थात् - " जहां ( वाच्य) अर्थ और (वाचक) शब्द अपने- अपने अस्तित्व को गौण बनाकर जिस (विशिष्ट) अर्थ को प्रकट करते हैं वह (अर्थ) ध्वनि कहलाता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जो अर्थ वाच्य अर्थ की अपेक्षा भिन्न होता है उसे ध्वनि कहते हैं। ध्वनि को ध्वन्यर्थ, व्यंग्य, व्यंग्यार्थ, प्रतीयमान, अवगामित, घोतित अर्थ आदि भी कहते हैं। ध्वनि की प्रेणा व्याकरणों के स्फोटवाद से मिली। जिस प्रकार शब्द के अलग- अलग वर्गों के उच्चारण से अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती, उसी प्रकार अभिधा या लक्षणा द्वारा भी सम्पूर्ण और विशेषत: मार्मिक अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। यह मार्मिक अर्थ व्यंजना के द्वारा प्राप्त होता है। अभिधा और लक्षणा के उपरांत व्यंजना से ध्वनित होने वाला चमत्कारिक अर्थ ही ध्वनि है। यह ध्वनि ' ध्वन्यालोककार ने अनुरणन के रूप में मानी है। जिस प्रकार घण्टे पर आघात करने के पहले टंकार और फिर मधुर झंकार एक के बाद अधिक मधुर निकलती है, उसी प्रकार व्यंग्यार्थ भी ध्वनित होता है। इस प्रकार ध्वनित होने वाला व्यंग्यार्थ जहां प्रधान होता है, वहां ध्वनि मानी गयी है।

ध्वनि के भेद[सम्पादन]

विश्व में पदार्थ की प्रतिति कराने वाली ध्वनि को शब्द कहते हैं। शब्द की शक्ति असीम है। शब्द के उच्चारण मात्र से हमारे मन, कल्पना और अनुभूति पर प्रतिक्रिया होती है। यह प्रतिक्रिया अर्थगत होती है। जिस व्यक्ति के द्वारा शब्द का अर्थ ज्ञात होता है, वह 'शब्दशक्ति' कहलाती है। शब्द शक्ति शब्द और अर्थ का संबंध है। शब्दशक्तियां तीन मानी गई हैं- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इनके अनुसार शब्द और उनके अर्थ भी तीन प्रकार के होते हैं- १) अभिधा शब्द शक्ति-वाचक शब्द + वाच्यार्थ, २) लक्षणा शब्दशक्ति- लक्षक शब्द + लक्ष्यार्थ, ३) व्यंजना शब्दशक्ति- व्यंजक शब्द + व्यंग्यार्थ। व्यंजना व्यापार से प्राप्त अर्थ ( व्यंग्यार्थ) ही ध्वनि है। आनन्दवर्धन ने ध्वनि के तीन भेद किए- १) ध्वनि काव्य २) गुणीभूत व्यंग्य काव्य ३) चित्र काव्य। लेकिन आनन्दवर्धन द्वारा प्रस्तुत ध्वनि के भेदोपभेदों को आगे बढ़ाते हुए मम्मट ने ध्वनि काव्य के पहले 51 प्रमुख भेद माने जो परस्पर- संयोजन द्वारा कई सहस्त्र तक जा पहुंचते हैं; किन्तु इनमें पांच भेद ही प्रमुख हैं-। १)अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यध्वनि, २) अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वनि , ३) वस्तुध्वनि, ४) अलंकारध्वनि, ५) रसध्वनि।

संदर्भ[सम्पादन]

१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--३७-४०

२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--७६-७८