भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)/अर्थालंकार

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भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)
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अर्थालंकार

उपमा[सम्पादन]

जहां दो वस्तुओं में समता हो, वहां उपमा अलंकार होता है। इसके चार अंग माने जाते हैं।--

१. उपमेय- जिसकी तुलना की जा रही हो।

२. उपमान- जिससे तुलना की जा रही हो।

३. साधारण धर्म- जो गुण उपमेय और उपमान दोनों में समान रूप से विद्यमान हो।

४. वाचक शब्द- समान धर्म को सूचित करने वाला शब्द।

उदाहरण :-

                "पीपल पात सरस मन डोला।"

उपरोक्त वाक्य में 'मन' उपमेय, 'पीपर पात' उपमान, 'डोला' साधारण धर्म तथा 'सरिस मन' वाचक शब्द है, अतः यहां उपमा अलंकार है।

रूपक[सम्पादन]

उपमेय में उपमान के निषेधरहित आरोप को रूपक अलंकार कहते है। इसमें अत्याधिक समानता के कारण प्रस्तुत(उपमेय) में अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप करके दोनों में अभिन्नता अथवा समानता दिखाई जाती है। उदाहरण-

चरन कमल बन्दउँ हरिराई

स्पष्टीकरण- इस पद्द में चरण उपमेय है और कमल उपमान। यहां उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जा रही हैं इसीलिए यह रूपक अलांकर हैं।

अपन्हुति[सम्पादन]

जहाँ पर उपमेय का निषेध करके उसके स्थान पर उपमान का आरोप किया जाता है । उसे अपन्हुति अलंकार कहते हैं।

अपन्हुति शब्द का अर्थ है छिपाना। यहाँ अपन्हुति से तात्पर्य है - निषेध करना। जो वस्तु समान होती है , उसी को छिपाया जाता है अथवा उसी का निषेध किया जाता है , और उसके स्थान पर किसी दूसरी वस्तु की स्थापना की जाती है । इस प्रकार निषेध का आश्रय कर यहाँ उपमेय में आरोप किया जाता है। इस प्रकार अपन्हुति अलंकार रूपक अलंकार बहुत निकट है। इनमें इतना ही अंतर है कि रूपक में उपमेय में उपमान का आरोप सीधा ही किया जाता है और अपन्हुति में पहले उपमेय का निषेध किया जाता है और तब उसमें उपमान का आरोप किया जाता हैं। जैसे -

सोहत है मुख चन्द।
नहि सखि राधा बदन यह है, पूनो का चाँद।

इन दोनों उक्तियों में मुख में चन्द्रमा का आरोप किया गया है । पहली उक्ति में ' मुख - चन्द ' कहकर यह आरोप सीधा और स्पष्ट है कि अत: उसमें रूपक अलंकार है । जबकि दूसरी उक्ति में रह ' नहि ' कहकर राधा के मुख का निषेध किया गया है , फिर उसे चन्द्र बताया गया है । अतः अपन्हुति अलंकार है ।

उत्प्रेक्षा[सम्पादन]

इसमें उपमेय में उपमान की संभावना होती हैं। यहां उपमान की भांति ही कहीं वाचक शब्द होते है,और कहीं नहीं।

उदाहरण-

ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात मनहुँ नीलमनि सैल पर, आतप परयौ प्रभात

स्पष्टीकरण-

यहाँ इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण के सुंदर श्याम शरीर में नीलमणि पर्वत की और शरीर पर शोभायमान पीताम्बर में प्रभात की धूप की मनोरम संभावना की गई है।मनहूँ शब्द का प्रयोग संभावना दर्शाने के लिए किया गया है। अतः यह उदाहरण उत्प्रेक्षा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

उत्प्रेक्षा के भेद निम्न तीन भेद है- (१) वस्तुतप्रेक्षा (२) हेतूत्प्रेक्षा और (३) फ्लोतत्प्रेक्षा ।

(१) वस्तुतप्रेक्षा जहाँ प्रस्तुत वस्तु ( उपमेय ) में अप्रस्तुत वस्तु ( उपमान ) की संभावना की जाती है , वहाँ वस्तुतप्रेक्षा होती है ।

उदाहरण

चढ़कर चेतक पर धूम - घूम करता सेगा रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ - साथ मानों प्रत्यक्ष कपानी था ।।

हल्दीघाटी के युद्ध में शत्रुओं का संहार करते हुए महाराणा प्रताप का वर्णन इस पर हैं । ये चेतक नाम वाले अपने घोड़े पर सवार होकर युद्ध भूमि में विचरण करते हुए अपनी सेना की रक्षा और शत्रुओं का वध कर रहे थे । महाराणा के इस रूप में कवि ने कल्पना की है । मानों महामृत्यु को साथ लेकर भगवान शंकर ही वहाँ स्वयं उपस्थित थे । इस प्रकार उपमेय महाराणा प्रताप में उपमान भगवान शंकर की संभावना होने से यहाँ वस्तुत्प्रेक्ष अलंकार है ।

(२) हेतूत्प्रेक्षा जहाँ अहेतु में हेतु की संभावना की जाती है अर्थात् जहाँ किसी कार्य के लिए ऐसी बात को कारण मान लिया जाता है जो वास्तव में उसका कारण नहीं होता , यहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है ।

उदाहरण

अचिरता देख जगत की आप
शून्य भरता समीर - विश्वास ।
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आँसू नीलाकाश ।

इन पंक्तियों में प्राकृतिक दृश्य का वर्णन किया गया है कि ठंडी हवा चल रही है ओस टपक रही है । इसके लिए कवि कल्पना करता है कि मानों संसार की अनित्य देखकर आकाश हवा के रूप आहे भरता है और ओस के रूप में आँसू बहाता हैं।

अतिशयोक्ति[सम्पादन]

अतिशयोक्ति - अलंकार की परिभाषा - जहाँ किसी विषय या वस्तु का अत्यन्त बढ़ा - चढ़ाकर चमत्कारपूर्ण वर्णन किया जाता है , वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है । अतिशय + उक्ति - अतिशयोक्ति । अतिशय - बढ़ा - चढ़ाकर और उक्ति - कथन , कहना अर्थात् किसी बात को बढ़ा चढ़ाकर कहना अतिशयोक्ति कहलाता है ।

उदाहरण

 हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आग । लंका सिगरी जल गयी गये निसाचर भाग । ।

यहाँ लंका दहन की घटना को अतिशयोक्ति द्वारा व्यक्त किया गया है । हनुमान को पुछ में आग भी न लग पाई थी पर सारी लंका जल गई और सारे राक्षस भाग गए । लंका में आग लगने की घटना का अत्यन्त बढ़ा - चढ़ा का वर्णन करने से यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है ।

भेद (१) रूपकातिशयोक्ति अलंकार , (२) भेदकातिशयोक्ति , (४) असंबद्धतिशयोक्ति , (५) अक्रमातिशयोक्ति , (६) चपलातिशयोक्ति , (७) अत्यततिशयोक्ति।

निदर्शना[सम्पादन]

निदर्शना अलंकार की परिभाषा - जहाँ उपमेय वाक्य और उपमान वाक्य के अर्थ में भेद होते हुए भी फल एक होने से कारण उसमें अभेद ( समानता ) बताया जाता है , उसे निदर्शना अलंकार कहते हैं ।

उदाहरण -

कविता समुझाइबो मुढ़न को
सविता गहि भूमि मै डारिबो है ।

इन पंक्ति में कहा गया है कि मूर्खो को कविता समझाना सूर्य को भूमि पर लाना है । यहाँ दो वाक्य है - 1- मूर्खो को कविता समझाना और 2 -सूर्य को पृथ्वी पर लाना । इन दोनों वाक्यों का अर्थ अलग - अलग है किन्तु फल दोनों का एक ही है - असंभवता । अर्थात् जिस प्रकार सूर्य को पृथ्वी पर लाना असंभव है , उसी प्रकार मूर्खो को कविता समझाना भी असंभव है । इस तरह दोनों वाक्यों में अभेद - सा प्रतीत होता है । अतः यहाँ निदर्शना अलंकार है

व्यतिरेक[सम्पादन]

व्यतिरेक अलंकार की परिभाषा - जहाँ उपमेय में उपमान की अपेक्षा उत्कर्ष ( श्रेष्ठता ) दिखाई जाती है । वहाँ व्यतिपरेक अलंकार होता है ।

' वि ' उपसर्ग सहित ' अतिरेक ' शब्द का अर्थ है अधिकता । सामान्य रूप से उपमेय की उपमान में समता दिखाई जाती है , परन्तु व्यतिपरेक में ऐसा वर्णन किया जाता है कि उपमेय और उपमान किसी एक गुण में सम्पन्न तो हैं , पर उपमेय में उपमान की अपेक्षा कुछ श्रेष्ठता भी है । इस प्रकार इस अलंकार में उपमेय को उपमान से उच्च दिया जाता है ।

उदाहरण

स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ
किन्तु सुर - सरित कहाँ , रारयू कहाँ ?
वह मरों को मात्र पर उतारती ,
यह यहीं से जीवितों को तारती ।

इस काव्यांश में अयोध्या नगर की तुलना स्वर्ग से करते हुए अयोध्या में विद्यमान सरयू नदी और स्वर्ग में विद्यमान गंगा नदी की भी तुलना की गई है , जिसमें कहा गया है , कि सरयू नदी गंगा नदी से श्रेष्ठ है , क्योंकि गंगा तो केवल मरे हुए लोगों का ही उद्धार करती है सरयू नदी तो जीवित मनुष्यों को ही तार देती है । सरय सरयू नदी उपमेय है ओर गंगा उपमान । उपमेय सरयू में उपमान गंगा की उपेक्षा श्रेष्ठता - जीवितों को तारने का गुण होने के कारण व्यतिरेक अलंकार है ।

विरोधाभास[सम्पादन]

विरोधाभास अलंकार की परिभाषा - जहाँ पर वास्तविक विरोध न होकर विरोध का आभास मात्र हो , वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।

उदाहरण

अवध को अपनाकर त्याग से ।
वन तपोवन सा प्रभु ने किया ।
भरत ने उनके अनुराग से ।
भवन में बन का व्रत लिया ।

श्रीराम के द्वारा अयोध्या को त्याग से अपनाने का वर्णन किया है । देखने में त्याग और अपनाना दोनों में विरोध प्रतीत है , किन्तु वास्तव में इन दोनों में विरोध नहीं है । केवल विरोध आभास है । अत : यहाँ विरोधाभास अलंकार है ।

विभावना[सम्पादन]

विभावना अलंकार की परिभाषा - जहाँ कारण के बिना ही कार्य होने का वर्णन किया जाता है , वहाँ विभावना अलंकार होता है ।

वि + भावना - वि अर्थात् विशेष रूप से , भावना अर्थात् विचार । कारण के अभाव में कार्य के होने का वर्णन भावना या विशेष विचार होती है , क्योंकि सामान्य नियमानुसार तो कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है ।

वास्तव में कारण के अभाव में कार्य का होना असंभव है । यह तो वर्णन करने की एक चमत्कारपूर्ण , शैली है । इसमें प्रत्यक्ष रूप से किसी कार्य के लिए मनुष्य कारण का अभाव बताया जाता है , किन्तु उसके लिए और कारण की कल्पना करने पर बात स्वाभाविक प्रतीत होने लगती है ।

उदाहरण

बिना तार झंकार दिए ही हरित्रन्त्री पर गाती है ।
सम्मुख लाकर रख देती है । अन्तस्तल अन्त स्तल से ।

इन पंक्तियों में लेखनी का वर्णन किया गया है । यहां कहा गया है कि हेलेखनी , तू तारों को झंकृत किए बिना ही हृदय रूपी वीणा पर गाने लगती है । वीणा पर गाना रूपी कार्य करने के लिए तारों को झंकृत करना रूपी कार्य कारण आवश्यक होता है , किन्तु यहाँ विना तारों के झंकार के ही वीणा पर गाने का वर्णन किया गया है । इस प्रकार कारण के बिना ही कार्य के हो जाने का वर्णन करने से यहाँ विभावना अलंकार है।

विशेषोक्ति[सम्पादन]

विशेषोक्ति अलंकार की परिभाषा - जहाँ कारण के होते हुए भी कार्य के न होने का वर्णन किया जाता है, वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है ।

विशेष + उक्ति अर्थात् विशेष प्रकार से कथन। सामान्य नियमानुसार कारण के उपस्थित होने पर ही कार्य होता है । किन्तु इस अलंकार से इस नियम के विरुद्ध कारण के रहते हुए भी कार्य के न होने का वर्णन किया जाता है। यह एक विशेष बात ही है। इसीलिए इसका नाम विशेषोक्ति रखा गया है

उदाहरण-

श्रवण हैं पर ये सुनते नहीं
व्यथित बांधव आरत - नाद को।
नयन हैं पर लिखते नहीं
स्वजन के दुख दारिद दुर्दशा।

श्रवण (कान) कारण और सुनना कार्य है । जहां कान होंगे वहां सुनने की क्रिया अवश्य होगी , किंतु यहां कानों के होते हुए भी सुनने के अभाव का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार उत्तरार्ध में कारण नयनों के रहते हुए भी कार्य देखने के अभाव का वर्णन हुआ है । अंतः यहां विशेषोक्ति अलंकार है।

अत्युक्ति[सम्पादन]

अतियुक्ति अलंकार की परिभाषा - जहां किसी वस्तु का लोक - सीमा से इतना बढ़कर वर्णन किया जाए कि वह असंभव की सीमा तक पहुंच जाए , वहां अत्युक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण-

फबि फहरे अति उच्च निशाना।
जिनमें अटकत विवुध वीमाना।

यहां पर निशानों (झंडों) की इतनी बढ़ चढ़कर ऊंचाई बताई गई है कि विभिन्न देवताओं के विमान भी अटक जाए। वस्तुतः यह असंभव है परंतु अत्युक्ति के कारण हमें ज्ञात होता है कि झंडे बहुत ही ऊंचे थे । अंत: यह अत्युक्ति अलंकार का उदाहरण है।