भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)
भारतीय काव्यशास्त्र की यह पुस्तक दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक प्रतिष्ठा के पाठ्यक्रम के अनुसार तैयार की गई है।
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[सम्पादन]"शब्द शक्ति"
हिंदी व्याकरण में किसी वाक्य के अर्थ को स्पष्ट करने वाली व अर्थ का बोध कराने वाली शक्ति को शब्दशक्ति कहते हैं। या यूं कहें कि किसी वाक्य के भाव को समझने के लिए प्रयुक्त अर्थ शब्दशक्ति कहलाता है। कुछ वाक्य ऐसे होते हैं। जिनके अर्थ सभी लोगों के लिए समान होते हैं लेकिन कुछ वाक्य ऐसे होते हैं जिनका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुसार लेता है। "मम्मट" ने भी संस्कृत काव्यशास्त्र में अपने ग्रंथ "काव्यप्रकाश" में शब्दशक्ति को प्रस्तुत किया है। मम्मट के कथनानुसार जो साक्षात सांकेतिक अर्थ को बताता है, उसे वाचक शब्द कहते हैं। व इन्होंने अपने ग्रंथ में शब्द शक्ति के तीन भेद बताए है- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। तथा इन तीनों शब्दशक्तियों के अनुसार इनके क्रमश तीन शब्द माने गए है- वाचक, लक्षक और व्यंजक। अत: इनके अर्थ भी क्रमश तीन माने गए है- वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ। कुछ आचार्यों ने शब्दशक्ति का एक चौथा भेद भी माना है वह है- "तात्पर्य वृत्ति"।
"शब्दशक्ति के प्रकार"
01. अभिधा शक्ति:- प्रसिद्ध अर्थ अथवा साक्षात संकेतित अर्थ के बोधक व्यापार के मूल कारण को अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं। अतः वे वाक्य जिनका साधारण शाब्दिक अर्थ और भावार्थ समान हो, तो उसे अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं। तथा जिस शब्द का अर्थ अभिधा शक्ति द्वारा ज्ञात होता है उसे वाचक शब्द कहते हैं। इसी को संकेतित शब्द भी कहा जाता हैं। अभिधा शब्द शक्ति में सभी पाठकों, वाचकों, श्रोताओं के लिए वाक्य अथवा वाक्यांश का अर्थ समान होता है। इसमें उत्पन्न भाव को वाच्यार्थ कहा जाता है। उदाहरण:- "हिन्दी एक भाषा है।" (वाक्य का अर्थ और भावार्थ) यहाँ वाक्य का अर्थ साधारण है। चूँकि हिन्दी एक भाषा है और भाषा किसी से वार्तालाप करने का एक माध्यम है, ठीक उसी प्रकार हिन्दी भी वार्तालाप का एक माध्यम है। वाचक शब्द के सम्बन्ध में मम्मट ने जो शास्त्रीय चर्चा की है उसके आधार पर तीन बातें सामने आती है:- 1. प्रत्येक उच्चरित (नाद) ध्वनि तब तक वाचक शब्द कहलाने का अधिकारी नहीं बनता जब तक वह किसी संकेत को ग्रहण नहीं करता। तथा ध्वनि मात्र से किसी अर्थ की प्रतीति नहीं होती। 2. जब (नाद) ध्वनि किसी संकेत को ग्रहण करता है, तब वह किसी अर्थ विशेष का प्रतिपादन करता है। और तभी वह नाद शब्द कहलाने का अधिकारी बनता है। 3. निष्कर्ष यह है कि वाचक शब्द वह कहलाता है जिसके द्वारा किसी अर्थ विशेष का संकेत ग्रहण सदा और एक समान हो सके। वाचक शब्द के भेद:- (i) द्रव्य :- कई आचार्यों के कथनानुसार मूर्त पदार्थ को द्रव्य कहते हैं। तथा सभी मूर्तिमान द्रव्यों में विकार अथवा परिवर्तन हो सकता है। (ii) गुण :- गुण का द्रव्य के साथ नित्य सम्बन्ध है। अर्थात् प्रत्येक द्रव्य किसी न किसी गुण से अवश्य सम्पन्न होगा। गुण के तीन भेद हैं सहज, आहार्य तथा आवस्थिख । सहजगुण से तात्पर्य है नित्य धर्म, अहार्य गुण से अभिप्राय है उपलब्ध गुण। अन्य रंग जो गुण अवस्था के अनुसार परिवर्तित हो जाते है। अन्य रंग जो गुण अवस्था के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं वह आवस्थित गुण कहलाते हैं। (iii) क्रिया :- क्रिया का अनुमान दव्य के विकार से होता है। द्रव्य के विकार से अभिप्राय है पदार्थ की कोई चेष्टा । वही चेष्टा उसी नाम की क्रिया कहलाती है। (Iv) जाति :- निम्न क्रिया और गण वाले द्रव्यों में जिस तत्व के कारण समान बुद्धि पैदा होती है उसे जाति कहते हैं।
02. लक्षणा शक्ति:- मुख्यार्थ या वाच्यार्थ की बाधा होने पर रूढि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति द्वारा मुख्यार्थ से संबंध रखने वाला अन्य अर्थ लक्षित हो उसे लक्षणा कहते है। अतः वाक्य का सामान्य अर्थ कोई महत्त्व रखे अथवा न रखे। लेकिन वह वाक्य किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता प्रकट करने के लिए प्रयुक्त हो, तो वह लक्षणा शब्द शक्ति कहलाता है। सामान्यतः यह शब्द शक्ति वहाँ प्रयुक्त होती है, जहाँ वाक्य का लक्षणा बताया जाता है। इस प्रकार लक्षणा के तीन तत्व है:- (i)मुख्यार्थ की बाधा:- वाच्यार्थ की संगति न बैठना। अर्थात मुख्यार्थ अथवा वाच्यार्थ के अन्वय में अन्य अर्थों के साथ सम्बन्ध जोड़ने में प्रत्यक्ष विरोध से मुख्यार्थ न प्रकट होता हो उसे मुख्यार्थ की बाधा कहते हैं। जैसे - "वह तो पूरा गधा है।" (ii)मुख्यार्थ का लक्ष्यार्थ से सम्बन्ध:- मुख्यार्थ की बाधा होने पर जो अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है उसका और मुख्यार्थ का सम्बन्ध रहता है। यह सम्बन्ध कई प्रकार का होता है।जेसे - कार्यकारण सम्बन्ध, आधार आधेय सम्बन्ध, तात्कार्य सम्बन्ध आदि। (iii)रूढ़ि अथवा प्रयोजन:- रूढ़ि से तात्पर्य है, प्रसिद्धि प्रयोग, प्रचलन । जैसे - "मूर्ख को गधा कहना रूढ़ि है।" प्रयोजन का अर्थ है विशेष अभिप्राय, जैसे - "मेरा घोड़ा गरूढ़ का बाप है।" लक्षणा से इसका अर्थ यह हुआ कि "मेरा घोड़ा गरूढ़ से भी तेज दौड़ता है।" लक्षणा के उपरोक्त तीनों कारणों के एक साथ होने पर लक्षणा होती है। उदाहरण:- "रामू शेर है।" वाक्य का अर्थ और भावार्थ यहाँ दिया गया वाक्य एक लघु वाक्य है और इसका अर्थ सामान्य नहीं है। अर्थात रामू एक व्यक्ति है। चूँकि वह आदमी है तो शेर नहीं हो सकता क्योंकि शेर एक जानवर है। लेकिन उसके हावभाव, विचार एवं कार्य शेर जैसे हो सकते हैं। अर्थात यहाँ रामू की विशेषता बतायी गई है।
"लक्षणा के भेद"
1. रुढि लक्षणा:- मुख्यार्थ को छोड़कर मुख्यार्थ से सम्बन्ध रखने वाला दूसरा अर्थ जहाँ रूढ़ि या प्रचलन के कारण ग्रहण किया जाता है वहाँ रूढ़ि लक्षणा होती है। "जैसे महाराष्ट्र साहसी।" इसमें महाराष्ट्र शब्द प्रान्त विशेष का वाचक है, वह जड़ वस्तु है, उसमें साहस नहीं हो सकता। 2. प्रयोजनवती लक्षणा:- जहाँ मुख्यार्थ को छोड़कर मुख्यार्थ से सम्बन्ध रखने वाला दूसरा अर्थ किसी विशेष प्रयोजन के कारण ग्रहण किया जाता है वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है, जैसे गंगा पर गाँव है। गंगा का मुख्य अर्थ गंगा की धारा है परन्तु धारा पर गाँव नहीं होता। मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ के सम्बन्ध विभेद के आधार पर प्रयोजनवती लक्षणा के दो भेद किए गए हैं। 1. गौणी लक्षणा, 2. शुद्धा लक्षणा। इन दौ भेदो के भी दौ-दौ भेद और है:- 1.(क) सारुपा. (ख) साध्यवसाना 2.(क)उपादानलभणा (ख) लक्षण लक्षणा
(अजहर स्वाध्दा) (जहद स्वाध्दा)
अंतः (ख) शक्ति के भी दौ भेद है:-
(I) सारुपा (II) साध्यवसान
03. व्यंजना-अभिधा और लक्षणा को अपना अर्थ देकर विरक्त हो चुकने के उपरान्त जिस शब्द शक्ति द्वारा अर्थ का बोध होता है अतः व्यंजना शब्द शक्ति वहाँ प्रयुक्त होती है जहाँ वाक्य तो साधारण होता है लेकिन उसका प्रत्येक पाठक अथवा श्रोता के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ होता है। उसे व्यंजना शक्ति अथवा व्यापार कहते हैं। जैसे- “मैं हूँ पतित, पतिततारण तुम ।" वाच्यार्थ यह है, कि मैं पतित हूँ, पापी हूँ, ईश्वर तुम पापियों का उद्धार करने वाले हो। अन्य अर्थ यह निकलता है, कि जब तुम पापियों का उद्धार करने वाले हो तो मुझ पतित का भी उद्धार करोगे ही। अतः अभिधा तथा लक्षणा से अर्थ बोधित कराने की शक्ति केवल शब्द में ही होती है अर्थ में नहीं, किन्तु व्यंग्यार्थ को बोधित कराने वाली शक्ति शब्द और अर्थ दोनों में होती है। उदाहरण:- "सुबह के 08:00 बज गये।" वाक्य का अर्थ और भावार्थ यहाँ वाक्य साधारण है लेकिन इसका प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न अर्थ है। जैसे एक ऐसा व्यक्ति जो जिसका कार्य रात के समय पहरेदारी करना है तो वह इसका अर्थ लेगा कि उसकी अब छुट्टी हो गयी। एक साधारण कार्यालय जाने वाला व्यक्ति इसका अर्थ लेगा कि उसे कार्यालय जाना है। एक गृहणी महिला इसका अर्थ अपने घर के कार्यों से जोड़कर देखेगी। बच्चे इसका अर्थ अपने विद्यालय जाने के समय के रूप में लेंगे। पुजारी इसका अर्थ अपने सुबह के पूजा- पाठ से जोड़कर देखेगा। अर्थात वाक्य एक है लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए भावार्थ अलग-अलग |
व्यंजना शक्ति के दो भेद किए गए:-
(1) शाब्दी व्यंजना:- यहाँ पर शब्द विशेष के कारण व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है और उस स्थान पर अन्य शब्द रख देने से अर्थ न निकले वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है। शाब्दी व्यंजना के दो भेद हैं- 1. अभिधा मूला शाब्दी व्यंजना:- जहाँ पर शब्द विशेष के कारण व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो और उस शब्द के स्थान पर अन्य शब्द से रखने से अर्थ की प्रतीति न हो वहाँ अभिधामूला शाब्दी व्यंजना होती है। 2. लक्षणा मूला शाब्दी व्यंजना:- जहाँ पर मुख्यार्थ की बाधा होने पर लक्षणा शक्ति द्वारा दूसरा अर्थ निकलता है परन्तु लक्षण शब्द एक अन्य अर्थ का बोध कराते हैं। वह लक्षणा मूला शाब्दी व्यंजना कहलाते है। (2)आर्थी व्यंजना:- जो शब्द शक्ति वक्ता, वाक्य अन्य संनिधि, प्रस्ताव, आदि की विशेषता के कारण वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराती है वह अर्थी व्यंजना कही जाती है। आर्थी व्यंजना के तीन भेद हैं:- 1. वाच्य सम्भवा आर्थी व्यंजना:- जहाँ वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ उत्पन्न होता है अर्थात् जहाँ पहले अभिधा शक्ति से सामान्य अर्थ प्रतीत होता है परन्तु मुख्यार्थ की प्रतीति के बाद प्रकरणादि का पर्यालोचन करने पर उस मुख्यार्थ से जहाँ अन्य अर्थ की प्रतीति हो. वहाँ वाच्य सम्भवा आर्थी व्यंजना होती है। 2. लक्ष्य सम्भवा आर्थी व्यंजना:- जहाँ सर्वप्रथम अभिधा शक्ति से वाच्यार्थ की प्रतीति हो किन्तु मुख्यार्थ की बाधा के कारण वह अर्थ संगत नहीं बैठता और फिर लक्ष्यार्थ की प्रतीति होती है उस लक्ष्यार्थ से फिर से प्रकरणादि के ज्ञान के कारण जिस अन्य अर्थ की प्रतीति होती है वहाँ लक्ष्य सम्भवा आर्थी व्यंजना होती है। 3. व्यंग्य सम्भवा आर्थी व्यंजना:- जहाँ व्यंग्यार्थ से ही एक और व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो मुख्यार्थ की प्रतीति होने पर प्रकरणादि से व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो इसके पश्चात व्यंग्यार्थ से फिर व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है वहाँ व्यंग्य सम्भवतः आर्थी व्यंजना होती है। व्यंग्य सम्भवा आर्थी व्यंजना के भी दस भेद होते है :- (क) वक्तृवैशिष्ट्य आर्थीव्यंजना:- वक्ता, कवि या कवि कल्पित व्यक्ति के कथन की विशेषता के कारण जहाँ व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो। वहाँ वक्तृवैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना होता है। (ख) बोधव्य वैशिष्ट्य व्यंजना:- जहाँ श्रोता की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो। वहाँ बोधव्य वैशिष्ट्य व्यंजना होता है। (ग) चेष्टा वैशिष्ट्य व्यंजना:-जहाँ चेष्टा अर्थात इंगित हाव-भाव आदि द्वारा व्यंग्यार्थ का बोध होता है वहाँ चेष्टा वैशिष्ट्य व्यंजना होती है। (घ) काकु वैशिष्ट्य व्यंजना:- जहाँ कण्ठ ध्वनि की भिन्नता से अर्थात् गले के द्वारा विशेष प्रकार की ध्वनि से व्यंजना का बोध हो। वहाँ काकु वैशिष्ट्य व्यंजना होती है। (ङ) अन्य संनिधि वैशिष्ट्य व्यंजना:- अन्य की उपस्थिति में वक्ता बोधव्य से कुछ कहे उससे जो व्यंग्य निकले अर्थात् एक कहे, दूसरा सुने और तीसरा समझे जो वहाँ आर्थी व्यंजना का यह भेद होगा। वहाँ अन्य संनिधि वैशिष्ट्य व्यंजना होती है। (च) प्रकरण वैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना:- जहाँ किसी विशेष प्रकरण अथवा घटना के कारण व्यंग्यार्थ का बोध हो। वहाँ प्रकरण वैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना होती है। (छ) वाक्य वैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना:- जहाँ समूचे वाक्य से ही व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो। वहाँ वाक्य वैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना होती है। (ज) वाच्य वैशिष्टयोत्पन्न आर्थी व्यंजना:- जहाँ वाच्य अर्थात् मुख्यार्थ की विशेषता से व्यंग्य प्रकट हो रहा हो। वहाँ वाच्य वैशिष्टयोत्पन्न आर्थी व्यंजना होती है। (झ) देश वैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना:- जहाँ स्थान की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ की उत्पत्ति हो। वहाँ देश वैशिष्ट्य आर्थी व्यंजना होती है। (ञ) काल वैशिष्ट्य व्यंजना:- जहाँ समय की विशिष्टता के कारण व्यंग्यार्थ का बोध । वहाँ काल वैशिष्ट्योत्पन्न आर्थी व्यंजना होती है।