भारतीय साहित्य/गुजराती साहित्य
: भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है और उन भाषाओं
शौरसेनी अपभ्रंश प्रसूत गुजराती 710,072 वर्गमील के गुजरात प्रदेश के उत्तर में कच्छ और मारवाड़ से लेकर दक्षिण में बंबई के थाना जिले तथा पश्चिम में अब सागर एवं पूर्व में मालवा और खानदेश के बीच 33,063,267 (5.36%) व्यक्तियों द्वारा बोली जाती है। भारतवर्ष में जनसंख्या की दृष्टि से गुजराती का स्थान सातवाँ है। यह गुजरात की राजभाषा है। इसकी लिपि शिरोरेखामुक्त देवनागरी लिपि ही है।
'गुजरात' शब्द का संबंध 'गुर्जर' जाति के लोगों से हैं। ये लोग मूलतः शक थे और पाचवीं सदी के लगभग भारत में आए थे। पहले इनका क्षेत्र पंजाब एवं राजस्थान था, बाद में मुसलमानों के आक्रमण के कारण गुजरात की ओर चले गए। 'गुजरात' शब्द 'गुर्जर+त्र' से बना माना गया है: गुर्जर+त्र = गुजरात्ता = गुजरात। इस प्रदेश में इन गुर्जरों को 'त्रण' मिला, और यह गुजरात कहलाया। इस प्रकार का विकास मानने का कारण यह है कि आठवीं, नवीं तथा दसवीं सदी के कुछ अभिलेखों में 'गुर्जर - भूमि' तथा 'गुज्जरत्ता' आदि शब्द मिले हैं। गुजरात या 'गुर्जर देश।' मूलतः केवल माउंट आबू के उत्तर का प्रदेश था, किंतु बाद में धीरे-धीरे उसके दक्षिण का भाग भी गुजरात के अंतर्गत आ गया। अब कच्छ आदि भी इसमें सम्मिलित हैं ।
'गुजरात' शब्द का प्रयोग यों तो 1000 के लगभग से प्रारंभ हो गया था, किंतु भाषा के अर्थ में 'गुजराती' शब्द का प्रयोग अभी तक 17वीं सदी से पूर्व नहीं मिला है। इसका प्रथम प्रयोग प्रेमानंद (1649-1714 ई.) के 'दशम स्कंध' में हुआ है। किंतु इसका यह आशय नहीं कि गुजराती भाषा उस समय तक विकसित नहीं हुई थी । अन्य देशी भाषाओं से अलग, इसे लोग आठवीं सदी में ही पहचानने लगे थे। उद्योतन सूरि के 'कुवलयमाला' में आता है-अह पेच्छे गुज्जरे अवरे। 14वीं सदी तक आते-आते भाषा कुछ और विकसित हो गई, यद्यदि मारवाड़ी आदि राजस्थानी भाषाओं से इतनी भिन्न नहीं हुई थी कि उसे स्वतंत्र भाषा माना जा सके। धनपाल (900), हेमचंद्र, सोमप्रभ (1185) गुजरात के आदिकालीन कवियों में अपना स्थान रखते हैं। गुजराती का प्रथम उदाहरण भरतेश्वर बाहुबली रास कहा गया है जिसकी रचना शांतिभद्र सूरी ने 1241ई. में की। यह सुखद संयोग ही है कि हिंदी एवं गुजराती (राजस्थानी के भी) साहित्य इतिहास लेखक इस कृति को अपनी-अपनी भाषा की प्रथम रचना स्वीकारते हैं। हरीकृष्ण दवे के अनुसार यथा प्रकृत संदर्भ में पुरानी गुजराती का प्रथम प्राप्त ग्रंथ है भरतेश्वर बाहुबलि रास ।
गुजराती साहित्य का प्रारंभ कुछ लोग 12वीं सदी से ही मानते हैं। हेमचंद्र के व्याकरण में कुछ छंद ऐसे भी हैं जिनको प्राचीन गुजराती का कहा जा सकता है। 18वीं सदी से इसके प्राचीन रूप का समारंभ हो जाता है। तबसे अब तक इसमें साहित्य रचना हो रही है।
प्राचीन गुजराती के प्रमुख साहित्यकार विजयचंद्र सूरि (13वीं सदी), राजशेखर (14वीं सदी), नरसी मेहता ( 15वीं सदी), आदि है। 14वीं सदी तक की गुजराती भाषा अपभ्रंश से बहुत अधिक आक्रांत है। गुजराती का मध्यकाल 'प्रेमानंद युग' भी कहलाता है। इस युग में प्रेमानंद तथा अखा प्रसिद्ध हैं।
गुजराती कविता में कृष्ण भक्तिपरक वैष्णव काव्य का प्रभाव अधिक है। आरंभिक गुजराती काव्य को रास युग कहते हैं। जैन कवियों ने भी रास और 'फागु' लिखे, जैसे “भरतेश्वर बाहुबलि रास' और जिनचंद्र सूरी फागु, ये क्रमशः 1185 तथा 1285 ईसवी की रचनाएँ है, यह 'फागु' परंपरा पंद्रहवीं शती तक चलती रही। विरहिनियों के ‘बारामासी' काव्य भी तेरहवीं शती में मिलते हैं। जैन धर्म का वैष्णव धर्म पर प्रभाव पड़ा। जैसे नरसी मेहता (1408-80) के पदों में 'वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे पीर पराई जाणे रे' आदि पंक्तियों में स्पष्ट है। पौराणिक विषयों पर बहुत-सी रचना की गई। भालण ( 16वी शती का आरंभ) ने व्रजभाषा में पांच पद लिखे । (मीराबाई (1499-1574) राजस्थानी में पद रचती थीं पर गुजराती साहित्यकार उन्हें अपनी भाषा की कवयित्री मानते हैं। गोपाल ने 1649 में 'ज्ञानगीता' लिखी। सबसे महत्त्वपूर्ण संतकवि है 'आखो' (1615-75 ) उनकी 'आवेगीता' (1650)। आखाभगत की वाणी षटपदी या छप्पय में हैं और गुजराती भाषा में यह कबीर की तरह लोकप्रिय हुए। वे लोकभाषा का प्रयोग करते हैं। आखो भक्ति को ऐसी पक्षिणी मानते हैं जिसका एक पंख ज्ञान है, दूसरा वैराग्य ज्ञानमार्गी कवियों में आखों के बाद पीरो, भोजो, निरांत, बापूसाहेब गायकवाड, निष्कुलानंद, ब्रह्मानंद आदि हुए।
ये और उनके साथ मिलकर कुछ काम भी कर चुके थे। सन् 1885 से 1940 तक गुजराती में नवजागरणकाल के अग्रदूत 'नर्मद' थे। ये भारतेंदु के समकालीन का काल राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का काल कहा जा सकता है। मोहनदास गाँधी, नानालाल, प्रो. ठाकोर, काका कालेलकर, उमाशंकर, सुन्दरम् और सर्वाधिक कन्हैयालालइस धारा के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। गाँधीजी की रचनाएँ राष्ट्रीयता, सत्यता, ईमानदारी और प्रेम से ओत-प्रोत हैं। काका कालेलकर के निबंध और आलोचनाएँ विद्वत्ता, प्रकृति-प्रेम, हाजिरजवाबी और देशभक्ति से भरपूर हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास, नाटक, जीवनचरित्र देशभक्ति और नैतिकता के प्रतीक हैं। भगवद्गीता और आधुनिक जीवन, पृथ्वीवल्लभ, जय सोमनाथ, श्री कृष्णावतार आटि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। गुजराती में रोमानी काव्य रचना पूजालाल के प्रगीतों के माध्यम से प्रविष्ट हुई। इनकी रस-चेतना में सूक्ष्म परिष्कार है तथा अभिव्यक्ति में नवीन भंगिमा। 1940 ई. के लगभग गुजराती में भी प्रगतिवादी काव्य की रचना हुई। मणियार इस काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं। इसके पश्चात राजेन्द्रशाह, सुरेश जोशी और सुरेश दलाल आदि कवियों ने नवीन बौद्धिक कविता के क्षेत्र में प्रवेश किया। है। सितांशु यशचन्द्र अपनी कविताओं को अति यथार्थवादी कहते हैं। आदिल मंसूरी, रमेश पारिख, रघुवीर चौधरी आदि इस धारा के सशक्त हस्ताक्षर हैं।
एक भाषा के रूप में इसका आविर्भाव तो 1150 के बाद होने लगता है किन्तु गुजराती का साहित्य 15वीं शताब्दी के आस-पास ही उभर कर सामने आया। गुजराती भाषा के भी अनेक लघु रूप प्रचलित है। गुजराती भाषा ने भी अपना शब्द भंडार संस्कृत, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, अंग्रेजी आदि भाषाओं से सजाया है। साहित्यिक दृष्टि से भी गुजराती भाषा में कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गए हैं।