भारतीय साहित्य/ललद्य
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ललद्यद के पद
मुझ पर वे चाहे हंसें, हजारों बोल कसें
हंस लेने दो पर होगा इसका खेद किसे ?
मैं होऊं शिव की सच्ची भक्त अगर मन से
क्या मैला होता मुकुर राख के गिरने से ? (1)
गुरु ने मुझसे कह दिया यही तो एक वचन
तू बाहर से आकर प्रवेश करले भीतर
मेरी निष्ठा, मेरा आदेश गया यह बन
बस तब से ही तो मैं नाची निर्वसन - नगन (2)
हम ही थे, होंगे भी हम ही
औ' विगत युगों से चले आ रहे हैं हम ही
शिव का जीना मरना होगा न समाप्त कभी
आना-जाना सूरज का बना रहेगा ही (3)
पिया को खोजने में निकली
सुध न रही कब यह दिन बीता
कब यह रात ढली!
मिले अंत में घर में ही तो
मेरे कंत छली !
मेरे उनके स्नेह मिलन की
धी यह घड़ी भली । (4)