भारतीय साहित्य/सप्तपर्ण : रामकाव्य का जन्म

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: भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है और उन भाषाओं

1 - स्नान हित पहुँचे तपोव्रत

  तीर्थ तमसा-तीर

शिष्य से बोले अकर्दम

देख उज्ज्वल नीर !

वत्स ! स्वच्छ प्रसन्न जल की

देख निर्मल कान्ति,

याद आती सन्त मन की

विगत कल्मष शांति !

कलश रख दो और दे दो

मुझे वल्कल चीर,

यहीं अवगाहन करूँगा

घाट यह गम्भीर !

शिष्य ने गुरु का श्रवण कर

वस्त्र हित आदेश,

यथाविधि अर्पित किया,

वल्कल उन्हें सविशेष!

शिष्य कर से वस्त्र लेकर

संयतेन्द्रिय सन्त,

लगे वन को देखने

जो था विपुल बिन अन्त !

क्रौंच-क्रौंची-युग्म देखा

निकट क्रीडासक्त

मधुर कलरव खेल में

सुख हो रहा था व्यक्त !

पाप निश्चय कर अकारण

शत्रु आया व्याध,

युग्म में से क्रौंच को

मारा कठिन शर साथ !

रक्तरंजित गिरा भू पर

छटपटाता दीन,

रुदन करने लगी क्रौंची

करुण सहचरहीन !

ताम्रवर्णी शीशवाला

स्नेहमत्त प्रसन्न,

उसी पति से रहित क्रौंची

हुई दीन विपन्न !

व्याध से हत क्रौंच को

दयनीय स्थिति का ज्ञान,

कर गया मुनि धर्मधन के

द्रवित आकुल प्राण!

देखकर तब विकल क्रौंची,

व्याध - चरित - अधर्म,

बह चली वाणी सहज

ले द्रवित उर का मर्म !

क्रौंच के इस मुग्ध जोड़े से

किया हत, एक,

तू न पायेगा प्रतिष्ठा व्याध !

वर्ष अनेक!'

वचन कह ऋषि के हृदय में

फिर हुआ परिताप,

'दे दिया शोकार्त मैंने

आज कैसा शाप !'

वे सुधी मतिमान फिर

करके विचार विकल्प,

शिष्य अपने से लगे

कहने स्वयं संकल्प !

'पाद- बद्ध, समान अक्षर

तन्त्र - गेय समर्थ;

श्लोक यह, शोकार्त उर का

हो न सकता व्यर्थ!'

मुनि वचन सुन शिष्य ने

उसको किया कण्ठस्थ,

देख गुरु का खिन्न मन भी

हो गया प्रकृतिस्थ !

चले आश्रम और कर विधि-

विहित मज्जनचार,

मार्ग में करते उसी,

संकल्प का सुविचार!

भरद्वाज प्रशिष्य ले कर

कलश जल से पूर्ण,

पंथ में गुरु- अनुगमन,

करने लगा वह तूर्ण !

धर्मविद् पहुँचे निजाश्रम,

विनत शिष्य समेत,

ध्यान युत, सबसे कहा

संकल्प का संकेत !

अन्य वटु विस्मित प्रहर्षित

हो गये यह जान,

श्लोक का फिर फिर लगे

करने मधुर स्वर गान !

चार चरण समान अक्षर-

रचित गुरु का गीत,

अन्यथा होगा न, दुख

जो बना श्लोक पुनीत !

पूत आत्मा गुरु हुए

संकल्प में संन्यस्त,

'श्लोक छन्दायित करूँगा

राम चरित समस्त !