भारतीय साहित्य/उत्तरमेघ
: भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है और उन भाषाओं
कालिदास
सम स्निग्ध सुकान्त सुपंक्ति दाँतों वाली
बिम्ब के पके फलों जैसे होंगे लाल-कोमल रसीले होंठ
चौकी हिरनी की-सी होंगी आँखें
कमर होगी बेहद पतली
गहरी होगी नाभि
चाल को नियन्त्रित करता होगा नितम्बों का बोझ
तनिक-सी झुकी होगी स्तनों की उभार के कारण... (22)
हमारे घर के भीतर
बहुत सारी युवतियों के बीच जो कोई हो ऐसी.
विधाता की सर्वप्रथम कृति-सी
समझ लेना, बस वही है दूसरी मेरी जान
सहचर के अभाव में कम बोलने वाली चकई
बहुतों के बीच भी अकेली
बड़ी ही बेचैनी से काट रही होगी वियोग के ये दिन
दिखाई देती होगी
शिशिर ऋतु में पालों से बर्बाद कमलिनी की तरह
या ऐसी ही किसी दूसरी वस्तु-सी लगती होगी! (23)
जोर की रुलाइयों से सूज आई होंगी आँखें
गरम-गरम साँसों से फोके पड़ गए होंगे होंठ
हथेली पर रखा होगा गाल
समूचा नहीं दीखता होगा मुख
क्योंकि आते होंगे सामने फिर-फिर सूखे-लम्बे बाल
हाय! तुम करते हो पीछा तो चाँद का भी
होता है यही हाल । (24)
बताऊँ मित्र, तुम्हें वह क्या करती मिलेगी
सजा रही होगी देव देवियों के निमित्त नैवेद्य
या कि रही होगी आंक कल्पना प्रसूत विरह-खिन्न
मेरा यह शरीर
रही होगी पूछ पिंजड़े में टँगी मिठबोली मैना से .....
गुनवन्ती बोल, आते भी हैं वह तुम्हें याद ?
है जान से प्यारी थी ! (25)
गोद में बीन लिए मलिन वशना बेचारी
वाली होगी मेरे नाम के गीत
से भींग भींग जाते होंगे तार
होगी इन्हें बार-बार
भूलती होगी अपने ही स्वरों के चढ़ाव उतार (26)
टहरी पर बैठी होगी, पड़े होंगे सामने फूलों के
सहारे गिर रही होगी
अवधि के बाकी महीनें
बिताए दिनों के सम्पर्क सुख की
यादों का ले रही होगी मन-ही-मन स्वाद
बिछुड़ी प्यारी के यही तो होते हैं
साधन। (27)