लोक साहित्य/लोक साहित्य

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लोक साहित्य का स्वरूप लोक की ही तरह व्यापक भी है और सूक्ष्म भी। लोक साहित्य के कतिपय अध्येताओं का मानना है कि लोक की विशेषताओं और उसकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करके ही हम लोक साहित्य का स्वरूप तय कर सकते हैं। लोक साहित्य को लोक मन की सहज अभिव्यक्ति माना जा सकता है। सहज साधारण जीवन बिताने वाले मनुष्यों का समुदाय—जो प्रायः निरक्षर और बहुधा शास्त्र ज्ञान से परे होता है—इस साहित्य के माध्यम से अपने सुख-दुख, हर्ष-विषाद और आचार-विचार को वाणी देता है। प्रकृति के बहुरंगी परिवेश में ऋतुओं के परिवर्तन के साथ लोक के हृदय में जो अनुभूतियाँ जागृत होती हैं तो वह उन्हें अपने सहज रागबोध द्वारा गीतों के रूप में व्यक्त करता है। अपने निजी अथवा सामूहिक जीवन की हृदयस्पर्शी एवं प्रेरणापरक घटनाओं को भी वह गायी जाने सकने वाली कथाओं, गाथाओं में ढाल लेता है। समय बिताने के लिए, मनोरंजन अथवा पहले के लोगों और घटनाओं के स्मरण की दृष्टि से यह क़िस्से कहानियों की रचना करता है। बच्चों को बहलाने और उन्हें शिक्षा या उपदेश देने और सामान्य लोगों के बोध को जगाने के लिए उसे पहेलियों और कहावतों आदि की सृष्टि करनी पड़ती है।[१]

लोक साहित्य : परिभाषा और स्वरूप[सम्पादन]

लोक साहित्य का अध्ययन करने के पूर्व लोक का तात्पर्य समझना आवश्यक है। विभिन्न अध्येताओं ने लोक के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं, कुछ परिभाषाओं के आलोक में हम लोक को समझने का प्रयास करेंगे।

लोक[सम्पादन]

'लोक' का तात्पर्य वह साधारण जनता है जो गाँवों से लेकर नगरों तक निवास करती है और सहज-स्वाभाविक जीवन व्यतीत करती है। सामान्यतः जिसका अनुभव ज्ञान औपचारिक शास्त्र ज्ञान से परे होता है। यह साधारण जनता शिक्षित, सुसंस्कृत और सुसभ्य समझी जाने वाले जनसमूह के प्रभाव से आम तौर पर मुक्त रहती है। सभ्यता के आडंबर से रहित इस साधारण जनता का अपने पारंपरिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और विश्वासों के प्रति अटूट आस्था बनी रहती है। 'लोक' के संबंध में कुछ विद्वानों की परिभाषा निम्नवत् है :—

  • हज़ारी प्रसाद द्विवेदी — "'लोक' शब्द का अर्थ 'जन-पद' या 'ग्राम्य' नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं। ये लोग नगर में परिष्कृत, रुचि-सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।"[२]
  • रवीन्द्र भ्रमर 'लोक' शब्द के प्रचलित दो अर्थों का उल्लेख करते हैं— "एक तो विश्व अथवा समाज और दूसरा जनसामान्य या जनसाधारण। साहित्य अथवा संस्कृति के एक विशिष्ट भेद की ओर इंगित करने वाले एक आधुनिक विशेषण के रूप में इस शब्द का अर्थ ग्राम्य या जनपदीय समझा जाता है, किन्तु इस दृष्टि से केवल गाँवों में ही नहीं, वरन् नगरों, जंगलों, पहाड़ों और टापुओं में बसा हुआ वह मानव-समाज जो अपने परम्परा-प्रथित रीति-रिवाजों और आदिम विश्वासों के प्रति आस्थाशील होने के कारण अशिक्षित एवं अल्प सभ्य कहा जाता है, 'लोक' का प्रतिनिधित्व करता है।"[३]

लोक साहित्य[सम्पादन]

लोक साहित्य के बारे में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है — "ऐसा मान लिया जा सकता है कि जो चीजें लोकचित्त से सीधे उत्पन्न होकर सर्वसाधारण को आन्दोलित, चालित और प्रभावित करती हैं, वे ही लोक साहित्य, लोक-शिल्प, लोक-नाट्य, लोक-कथानक आदि नामों से पुकारी जा सकती हैं।"

  • कृष्णदेव उपाध्याय का मानना है कि — "सभ्यता के प्रभाव से दूर रहने वाली अपनी सहजावस्था में वर्तमान जो निरक्षर जनता है, उसकी आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ-हानि, सुख-दुःख आदि की अभिव्यक्ति जिस साहित्य में प्राप्त होती है, उसे लोक-साहित्य कहते हैं। इस प्रकार लोक-साहित्य जनता का वह साहित्य है, जो जनता द्वारा, जनता के लिए लिखा गया है।"
  • डॉ॰ सत्येंद्र के अनुसार — "लोक साहित्य के अंतर्गत वह समस्त बोली या भाषागत अभिव्यक्ति आती है जिसमें अ) आदिम मानस के अवशेष उपलब्ध हो, आ) परंपरागत मौखिक क्रम से उपलब्ध बोली या भाषागत अभिव्यक्ति हो जिसे किसी की कृति न कहा जा सके, जिसे श्रुति ही माना जाता हो, और जो लोक मानस की प्रवृत्ति में समायी हुई हो। इ) कृतित्व हो किंतु वह लोक-मानस के सामान्य तत्वों से युक्त हो कि उसके किसी व्यक्तित्व के साथ सम्बद्ध रहते हुए भी, लोक उसे अपने ही व्यक्तित्व की कृति स्वीकार करे।"[४]

लोक साहित्य की विशेषताएँ[सम्पादन]

लोक साहित्य की विशेषताओं का उल्लेख हम इन बिंदुओं के अंतर्गत कर सकते हैं— क) वह मौखिक परम्परा से विकासशील प्रक्रिया में रहता है। ख) उसकी शैली अलंकाररहित अथवा अलंकारों की अनिवार्यता से रहित होती है। ग) लोक साहित्य का रचयिता और रचना-काल बहुधा अज्ञात रहता है। घ) लोक-साहित्य सामान्यतः प्रचार अथवा उपदेश की प्रवृत्ति से दूर रहता है। ङ) सभी धर्म-मत-संप्रदायों के प्रति उसमें सहिष्णुता मिलती है।

लोक साहित्य का रचयिता

लोक साहित्य के रचयिता के संबंध में कुछ भी निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि किसी भी लोकगीत अथवा लोककथा के रचनाकार के बारे में तथ्य बहुत मुश्किल से ही उपलब्ध हो पाते हैं। लोक साहित्य का रचयिता लोकजीवन की भावनाओं को ही ध्यान में रखकर रचनात्मक अभिव्यक्ति करता है। वह लोकमानस की ही अभिव्यक्ति करता है जो आगे चलकर लोकजीवन में घुलमिलकर सामुदायिक संपत्ति बन जाती है। लोक साहित्य के रचयिता को प्रायः यश की अपेक्षा नहीं रहती। वह आमतौर पर निश्छल और अभिमानरहित होता है। यही कारण है कि वह अपने रचनाओं में अपना नाम डालने की प्रवृत्ति से बचता है। यदि कभी रचना में किसी के नाम की छाप पड़ भी गयी तो कालांतर में यह छाप धुल जाती है। लोक साहित्य की कृतियाँ केवल अपने रचनाकार के नाम और परिचय के आधार पर नहीं बल्कि लोकमानस की स्वीकार्यता के कारण जीवित रहतीं हैं।[५]

लोक साहित्य के विशिष्ट अध्येता[सम्पादन]

क) विदेशी अध्येता
ख) भारतीय अध्येता

संदर्भ[सम्पादन]

  1. कृष्णदेव उपाध्याय (1957). लोक साहित्य की भूमिका. इलाहाबाद: साहित्य भवन. पृप. 7–9.
  2. कृष्णदेव उपाध्याय (2020). लोक-साहित्य की भूमिका (द्वितीय संस्क.). इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन. पृ. 11.
  3. रवीन्द्र भ्रमर. हिन्दी भक्ति-साहित्य में लोक-तत्त्व. पृ. 3.
  4. डॉ॰ सत्येंद्र (1971). लोक साहित्य विज्ञान (PDF) (द्वितीय संस्क.). आगरा: शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी. पृप. 3–4.
  5. रवीन्द्र भ्रमर (1991). लोक साहित्य की भूमिका (प्रथम संस्क.). कानपुर: साहित्य सदन. पृ. 13-14.