व्याकरण भास्कर/अलंकार
परिभाषा
काव्यों की सुंदरता बढ़ाने वाले यंत्रों को ही अलंकार कहते हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपनी सुंदरता बढ़ाने के लिए विभिन्न आभूषणों का प्रयोग करते हैं उसी तरह काव्यों की सुंदरता बढ़ाने के लिए अलंकारों का उपयोग किया जाता है। अलन अर्थात भूषण ,कर अर्थात सुसज्जित करने वाला। अतः काव्यों को शब्दों व दूसरे तत्वों की मदद से सुसज्जित करने वाला ही अलंकार कहलाता है।
अलंकार के भेद
अलंकार के मुख्यतः दो भेद होते हैं :
- शब्दालंकार
- अर्थालंकार
शब्दालंकार के भेद: अनुप्रासअलंकार यमक अलंकार श्लेष अलंकार
शब्दालंकार
[सम्पादन]जो अलंकार शब्दों के माध्यम से काव्यों को अलंकृत करते हैं, वे शब्दालंकार कहलाते हैं। यानि किसी काव्य में कोई विशेष शब्द रखने से सौन्दर्य आए और कोई पर्यायवाची शब्द रखने से लुप्त हो जाये तो यह शब्दालंकार कहलाता है।
अनुप्रास अलंकार
[सम्पादन]जब किसी काव्य को सुंदर बनाने के लिए किसी वर्ण की बार-बार आवृति हो तो वह अनुप्रास अलंकार कहलाता है। किसी विशेष वर्ण की आवृति से वाक्य सुनने में सुंदर लगता है। जैसे -
- चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थी जल थल में ।
- तरनी तनुजा तात तमाल तरुवर बहु छाए।
ऊपर दिये गए उदाहरण में की "च" और "त" वर्ण की आवृति हो रही है और आवृति होंने से वाक्य का सौन्दर्य बढ़ रहा है।
कुछ अन्य उदाहरण:-
- मुदित महापति मंदिर आये।
- कल कानन कुंडल मोरपखा उर पा बनमाल बिराजती है।
- कालिंदी कूल कदम्ब की डरनी।
- कायर क्रूर कपूत कुचली यूँ ही मर जाते हैं।
- कंकण किंकिण नुपुर धुनी सुनी।
- कानन कठिन भयंकर भारी, घोर घाम वारी ब्यारी।
यमक अलंकार
[सम्पादन]जिस प्रकार अनुप्रास अलंकार में किसी एक वर्ण की आवृति होती है उसी प्रकार यमक अलंकार में किसी काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए एक शब्द की बार-बार आवृति होती है। दो बार प्रयोग किए गए शब्द का अर्थ अलग हो सकता है । जैसे:
काली घटा का घमंड घटा।
यहाँ ‘घटा’ शब्द की आवृत्ति भिन्न-भिन्न अर्थ में हुई है। पहले ‘घटा’ शब्द ‘वर्षाकाल’ में उड़ने वाली ‘मेघमाला’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और दूसरी बार ‘घटा’ का अर्थ है ‘कम हुआ’।
कुछ अन्य उदाहरण:-
- कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। या खाए बौरात नर या पा बौराय।।(प्रथम कनक का अर्थ ‘सोना’ और दुसरे कनक का अर्थ ‘धतूरा’ है। )
- माला फेरत जग गया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।(पहली बार ‘मनका’ का आशय माला के मोती से है और दूसरी बार ‘मनका’ से आशय है मन की भावनाओ से।)
- कहै कवि बेनी बेनी ब्याल की चुराई लीनी(पहली बार ‘बेनी’ शब्द कवि की तरफ संकेत कर रहा है। दूसरी बार ‘बेनी’ शब्द चोटी के बारे में बता रहा है।)
- तीन बेर खाती थी वह तीन बेर खाती है।(पहली बार तीन ‘बेर’ दिन में तीन बार खाने की तरफ संकेत कर रहा है तथा दूसरी बार तीन ‘बेर’ का मतलब है तीन फल।)
- ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी। ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती है।।
- किसी सोच में हो विभोर साँसें कुछ ठंडी खिंची। फिर झट गुलकर दिया दिया को दोनों आँखें मिंची।।(पहली बार ये शब्द हमें दिए को बुझा देने की क्रिया का बोध करा रहा है। दूसरी बार यह शब्द दिया संज्ञा का बोध करा रहा है।)
- माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।कर का मनका डारि दै, मन का मनका फेर।।(पहली बार ये शब्द हमें हमारे मन के बारे में बता रहे हैं और दूसरी बार इस शब्द की आवृति से हमें माला के दाने का बोध हो रहा है। )
- केकी रव की नुपुर ध्वनि सुन, जगती जगती की मूक प्यास।
- बरजीते सर मैन के, ऐसे देखे मैं न हरिनी के नैनान ते हरिनी के ये नैन।
- तोपर वारौं उर बसी, सुन राधिके सुजान। तू मोहन के उर बसी ह्वे उरबसी सामान।
- जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं।
- भर गया जी हनीफ़ जी जी कर, थक गए दिल के चाक सी सी कर।
- यों जिये जिस तरह उगे सब्ज़, रेग जारों में ओस पी पी कर।।
श्लेष अलंकार
[सम्पादन]श्लेष अलंकार में एक ही शब्द के विभिन्न अर्थ होते हैं।श्लेष का अर्थ होता है चिपका हुआ या मिला हुआ। जब एक ही शब्द से हमें विभिन्न अर्थ मिलते हों तो उस समय श्लेष अलंकार होता है।
यानी जब किसी शब्द का प्रयोग एक बार ही किया जाता है लेकिन उससे अर्थ कई निकलते हैं तो वह श्लेष अलंकार कहलाता है। जैसे:
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून पानी गए न ऊबरे मोई मानस चून।
इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में है जब इसका मतलब विनम्रता से है। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है।
- जे रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।बारे उजियारो करै, बढ़े अंघेरो होय।(यहाँ बढे शब्द से दो विभिन्न अर्थ निकल रहे हैं। दीपक के सन्दर्भ में बढ़ने का मतलब है बुझ जाना जिससे अन्धेरा हो जाता है। कुपुत्र के सन्दर्भ में बढ़ने से मतलब है बड़ा हो जाना।)
- सीधी चलते राह जो, रहते सदा निशंक|जो करते विप्लव, उन्हें, ‘हरि’ का है आतंक||(हरि शब्द एक बार प्रयुक्त हुआ है लेकिन उसके दो अर्थ निकलते हैं। पहला अर्थ है बन्दर एवं दूसरा अर्थ है भगवान।)
- जो चाहो चटक न घटे, मैलो होय न मित्त राज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त।।(रज शब्द से डो अर्थ निकल रहे हैं पहला है अहंकार तथा दूसरा धुल।)
- जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई। दुर्दिन में आंसू बनकर आज बरसने आई ।(यहाँ घनीभूत शब्द से दो अर्थ निकल रहे हैं। पहला अर्थ है मनुष्य के मन में कुछ समय से इकट्ठी पीड़ा जो अब आँसू के रूप में बह निकली है। दूसरा अर्थ है मेघ बनी हुई अर्थात बादल जो कुछ दिनों से पानी को इकठ्ठा कर रहे थे वे अब उसे बरसा रहे हैं।)
- पी तुम्हारी मुख बास तरंग आज बौरे भौरे सहकार।(यहाँ बौरे शब्द से दो अर्थ निकल रहे हैं। पहला अर्थ भौरे के लिए मस्त होना प्रतीत हुआ है। दूसरा अर्थ आम के प्रसंग में प्रतीत हुआ है यहां आम के मंजरी निकलना बताया गया है।)
- रावण सर सरोज बनचारी। चलि रघुवीर सिलीमुख।(सिलीमुख शब्द के दो अर्थ निकल रहे हैं। इस शब्द का पहला अर्थ बाण से एवं दूसरा अर्थ भ्रमर से है।)
अर्थालंकार
[सम्पादन]जब किसी वाक्य का सौन्दर्य उसके अर्थ पर आधारित होता है तब यह अर्थालंकार के अंतर्गत आता है ।
अर्थालंकार के भेद अर्थालंकार के मुख्यतः पाँच भेद होते हैं :
- उपमा अलंकार
- रूपक अलंकार
- उत्प्रेक्षा अलंकार
- अतिशयोक्ति अलंकार
- मानवीकरण अलंकार
उपमा अलंकार
[सम्पादन]उप का अर्थ है समीप से और पा का अर्थ है तोलना या देखना । अतः जब दो भिन्न वस्तुओं में समानता दिखाई जाती है, तब वहाँ उपमा अलंकार होता है । किन्ही दो वस्तुओं के गुण, आकृति, स्वभाव आदि में समानता दिखाई जाए या दो भिन्न वस्तुओं कि तुलना कि जाए, तब वहां उपमा अलंकर होता है।
उपमा अलंकार में एक वस्तु या प्राणी कि तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु के साथ कि जाती है।
जैसे: कर कमल-सा कोमल है ।(यहाँ पैरों को कमल के समान कोमल बताया गया है ।)
उपमेय : जिस वस्तु की समानता किसी दूसरे पदार्थ से दिखलायो जाये वह उपमेय होते है । जैसे: कर कमल सा कोमल है । इस उदाहरण में कर उपमेय है ।
उपमान : उपमेय को जिसके समान बताया जाये उसे उपमान कहते हैं । उक्त उदाहरण में ‘कमल’ उपमान है।
- हरि पद कोमल कमल। (हरि के पैरों कि तुलना कमल के फूल से की गयी है। यहाँ पर हरि के चरणों को कमल के फूल के सामान कोमल बताया गया है।)
- पीपर पात सरिस मन ड़ोला। (मन को पीपल के पत्ते कि तरह हिलता हुआ बताया जा रहा है।)
- मुख चन्द्रमा-सा सुन्दर है।(चेहरे की तुलना चाँद से की गयी है।)
- नील गगन-सा शांत हृदय था रो रहा।(यहां हृदय की नील गगन से तुलना की गयी है।)
रूपक अलंकार
[सम्पादन]जब उपमान और उपमेय में अभिन्नता या अभेद दिखाया जाए तब यह रूपक अलंकार कहलाता है। जब गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय को ही उपमान बता दिया जाए यानी उपमेय ओर उपमान में अभिन्नता दर्शायी जाए तब वह रूपक अलंकार कहलाता है। रूपक अलंकार अर्थालंकारों में से एक है।
जैसे:- “मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों”(चन्द्रमा एवं खिलोने में समानता न दिखाकर चाँद को ही खिलौना बोल दिया गया है। )
- चरण-कमल बंदौं हरिराई।(चरणों को कमल के सामान न दिखाकर चरणों को ही कमल बोल दिया गया है।)
- वन शारदी चन्द्रिका-चादर ओढ़े। (चाँद की रोशनी को चादर के समान ना बताकर चादर ही बता दिया गया है।)
- वपायो जी मैंने राम रतन धन पायो। (राम रतन को ही धन बता दिया गया है।)
- गोपी पद-पंकज पावन कि रज जामे सिर भीजे। (पैरों को ही कमल बता दिया गया है।)
- बीती विभावरी जागरी ! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घाट उषा नगरी। (यहां उषा में नागरी का, अम्बर में पनघट का और तारा में घाट का निषेध रहित आरोप हुआ है।)
- प्रभात यौवन है वक्ष सर में कमल भी विकसित हुआ है कैसा।(यहाँ यौवन में प्रभात का वक्ष में सर का निषेध रहित आरोप हुआ है।)
- उदित उदयगिरी-मंच पर, रघुवर बाल-पतंग। विकसे संत सरोज सब हर्षे लोचन भंग।।(उदयगिरी पर ‘मंच’ का, रघुवर पर ‘बाल-पतंग'(सूर्य) का, संतों पर ‘सरोज’ का एवं लोचनों पर भ्रंग(भोरों) का अभेद आरोप है।)
- शशि-मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाये। (मुख(उपमेय) पर शशि यानी चन्द्रमा(उपमान) का आरोप है।)
- मन-सागर, मनसा लहरि, बूड़े-बहे अनेक। (मन(उपमेय) पर सागर(उपमान) का एवं मनसा यानी इच्छा(उपमेय) पर लहर(उपमान) का आरोप है।)
- विषय-वारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।( विषय(उपमेय) पर वारि(उपमान) एवं मन(उपमेय) पर मीन(उपमान) का आरोप है।)
- ‘अपलक नभ नील नयन विशाल’( खुले आकाश(उपमेय) पर अपलक नयन(उपमान) का आरोप है।)
- सिर झुका तूने नीयति की मान ली यह बात। स्वयं ही मुरझा गया तेरा हृदय-जलजात। (हृदय जलजात में हृदय(उपमेय) पर जलजात यानी कमल(उपमान) का अभेद आरोप किया गया है। )
उत्प्रेक्षा अलंकार
[सम्पादन]जहाँ उपमेय में उपमान के होने की संभावना का वर्णन हो तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यदि पंक्ति में -मनु, जनु,मेरे जानते,मनहु,मानो, निश्चय, ईव आदि आता है बहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जब समानता होने के कारण उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना की जाए या संभावना हो तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यदि पंक्ति में -मनु, जनु, जनहु, जानो, मानहु मानो, निश्चय, ईव, ज्यों आदि आता है, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे:
मुख मानो चन्द्रमा है।(मुख के चन्द्रमा होने की संभावना का वर्णन हो रहा है।)
- ले चला साथ मैं तुझे कनक। ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण।।( कनक का अर्थ धतुरा है। कवि कहता है कि वह धतूरे को ऐसे ले चला मानो कोई भिक्षु सोना ले जा रहा हो। काव्यांश में ‘ज्यों’ शब्द का इस्तेमाल हो रहा है एवं कनक – उपमेय में स्वर्ण – उपमान के होने कि कल्पना हो रही है।)
- सिर फट गया उसका वहीं। मानो अरुण रंग का घड़ा हो। '(सिर कि लाल रंग का घड़ा होने कि कल्पना की जा रही है। यहाँ सिर – उपमेय है एवं लाल रंग का घड़ा – उपमान है। उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना कि जा रही है।)
- नेत्र मानो कमल हैं। (‘नेत्र’ – उपमेय की ‘कमल’ – उपमान होने कि कल्पना कि जा रही है। मानो शब्द का प्रय्प्ग कल्पना करने के लिए किया गया है। )
- सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात | मनहुँ नीलमनि सैल पर, आतप परयौ प्रभात ||( श्रीकृष्ण के सुंदर श्याम शरीर में नीलमणि पर्वत की और शरीर पर शोभायमान पीताम्बर में प्रभात की धूप की मनोरम संभावना की गई है। मनहूँ शब्द का प्रयोग संभावना दर्शाने के लिए किया गया है।)
- सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की मालबाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल।।( ‘गूंज की माला’ – उपमेय में ‘दावानल की ज्वाल’ – उपमान की संभावना होने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। मनु शब्द का प्रयोग संभावना दर्शाने के लिए किया गया है अतः यह उत्प्रेक्षा अलंकार के अंतर्गत आएगा।)
- बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से कि जैसे धुल गई हो।( बहुत काले पत्थर की ज़रा से लाल केसर से धुलने कि कल्पना कि गयी है।)
- उस वक्त मारे क्रोध के तनु कांपने उनका लगा। मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।(अर्जुन के क्रोध से कांपते हुए शरीर(उपमेय) की कल्पना हवा के जोर से जागते सागर(उपमान) से कि गयी है।)
- कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए| हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए|(उत्त्तरा के अश्रुपूर्ण नेत्रों (उपमेय) में ओस जल-कण युक्त पंकज (उपमान) की संभावना प्रकट की गयी है। वाक्य में मानो वाचक शब्द प्रयोग हुआ है )
- मानो माई घनघन अंतर दामिनी। घन दामिनी दामिनी घन अंतर, शोभित हरि-ब्रज भामिनी।।(गोरी गोपियाँ और श्यामवर्ण कृष्ण मंडलाकार नाचते हुए ऐसे लगते हैं मानो बादल और बिजली साथ साथ शोभायमान हों। यहाँ गोपियों(उपमेय) में बिजली(उपमान) की एवं कृष्ण(उपमेय) में बादल(उपमान) की कल्पना की गयी है।)
- नील परिधान बीच सुकुमारी खुल रहा था मृदुल अधखुला अंग , खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग। (नीले कपडे में राजकुमारी का वर्णन किया गया है। कहा गया है की नीले परिधान में राजकुमारी ऐसी लग रही है जैसे की बिजली का फूल खिल गया हो गुलाबी रंग के बीच में। )
- कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए हिमकणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए। (जब उत्तरा आँसू आते हैं तो ऐसा कहा जाता है की जैसे कमल नए हो गए हों। नैनो में कमल के होने की कल्पना की गयी है।)
- जान पड़ता है नेत्र देख बड़े बड़े हीरो में गोल नीलम हैं जड़े। (यहां बड़े-बड़े नेत्र (उपमेय ) में नीलम (उपमान) के होने की कल्पना की जा रही है।)
- पाहून ज्यों आये हों गाँव में शहर के; मेघ आये बड़े बन ठन के संवर के।
- मुख बाल रवि सम लाल होकर, ज्वाला-सा बोधित हुआ।
अतिशयोक्ति अलंकार
[सम्पादन]जब किसी बात का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया जाए तब वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है। जब किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का वर्णन बहुत बाधा चढ़ा कर किया जाए तब वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है। इस अलंकार में नामुमकिन तथ्य बोले जाते हैं। जैसे :
आगे नदियाँ पड़ी अपार, घोडा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार , तब तक चेतक था उस पार। ( चेतक की शक्तियों व स्फूर्ति का बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है।)
- हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग, लंका सिगरी जल गई गए निशाचर भाग।(हनुमान की पूंछ में आग लगने से पहले ही पूरी लंका जलकर राख हो गयी और सारे राक्षस भाग खड़े हुए। यह बात बिलकुल असंभव है एवं लोक सीमा से बढ़ाकर वर्णन किया गया है।)
- आगे नदियां पड़ी अपार घोडा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार तब तक चेतक था उस पार।।( महाराणा प्रताप के सोचने की क्रिया ख़त्म होने से पहले ही चेतक ने नदियाँ पार कर दी। यह महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की अतिशयोक्ति है एवं इस तथ्य को लोक सीमा से बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है। )
- धनुष उठाया ज्यों ही उसने, और चढ़ाया उस पर बाण |धरा–सिन्धु नभ काँपे सहसा, विकल हुए जीवों के प्राण।( जैसे ही अर्जुन ने धनुष उठाया और उस पर बाण चढ़ाया तभी धरती, आसमान एवं नदियाँ कांपने लगी ओर सभी जीवों के प्राण निकलने को हो गए। यह बात बिलकुल असंभव है क्योंकि बिना बाण चलाये ऐसा हो ही नहीं सकता है।)
- भूप सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरत न टारा।।( जब धनुर्भंग हो रहा था कोई राजा उस धनुष को उठा नहीं पा रहा था तब दस हज़ार रजा एक साथ उस धनुष को उठाने लगे लेकिन वह अपनी जगह से तनिक भी नहीं हिला।)
- परवल पाक, फाट हिय गोहूँ।(ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध कवि मालिक मोहम्मद जायसी ने नायिका नागमती के विरह का वर्णन करते हुए कहा है कि उसके विरह के ताप के कारण परवल पाक गए एवं गेहूं का हृदय फट गया)
- चंचला स्नान कर आये, चन्द्रिका पर्व में जैसे। उस पावन तन की शोभा, आलोक मधुर थी ऐसे।।(इन पंक्तियों में नायिका के रूप एवं सौंदर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है)
- देख लो साकेत नगरी है यही। स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।( यहां एक नगरी की सुंदरता का वर्णन किया जा रहा है। यह वर्णन बहुत ही बढ़ा चढ़कर किया जा रहा है।)
- मैं बरजी कैबार तू, इतकत लेती करौंट। पंखुरी लगे गुलाब की, परि है गात खरौंट। (यहां गुलाब की पंहुरियों से शरीर में खरोंच आने की बात कही गयी है। अर्थात नारी को बहुत ही कोमल बताया गया है।)
- बाँधा था विधु को किसने इन काली ज़ंजीरों में, मणिवाले फणियों का मुख क्यों भरा हुआ है हीरों से।(कवि ने मोतियों से भरी हुई प्रिया की मांग का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में चाँद का मुख से काली ज़ंज़ीर का बालों से तथा मणिवाले फणियों से मोती भरी मांग का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन किया गया है)
मानवीकरण अलंकार
[सम्पादन]जब प्राकृतिक चीज़ों में मानवीय भावनाओं के होने का वर्णन हो तब वहां मानवीकरण अलंकार होता है। जब प्राकृतिक वस्तुओं कैसे पेड़,पौधे बादल आदि में मानवीय भावनाओं का वर्णन हो यानी निर्जीव चीज़ों में सजीव होना दर्शाया जाए तब वहां मानवीकरण अलंकार आता है। जैसे :
फूल हँसे कलियाँ मुस्कुराई। (फूल हंस रहे हैं एवं कलियाँ मुस्कुरा रही हैं। जैसा की हम जानते हैं की हंसने एवं मुस्कुराने की क्रियाएं केवल मनुष्य ही कर सकते हैं प्राकृतिक चीज़ें नहीं। )
- मेघ आये बड़े बन-ठन के संवर के।( बादल बड़े सज कर आये लेकिन ये सब क्रियाएं तो मनुष्य कि होती हैं न कि बादलों की। ये असलियत में संभव नहीं है एवं हम यह भी जानते हैं की जब सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।)
- मेघमय आसमान से उतर रही है संध्या सुन्दरी परी सी धीरे धीरे धीरे |( संध्या सुन्दर परी की तरह धीरे धीरे आसमान से नीचे उतर रही है।इस वाक्य में संध्या कि तुलना एक सुन्दर पारी से की है।)
- उषा सुनहरे तीर बरसाती, जय लक्ष्मी-सी उदित हुई।(उषा यानी भोर को सुनहरे तीर बरसाती हुई नायिका के रूप में दिखाया जा रहा है।)
- कलियाँ दरवाज़े खोल खोल जब झुरमुट में मुस्काती हैं।(कलियों को दरवाज़े खोल खोल कर झुरमुट में मुस्कुराते हुए वर्णित किया गया है।)
- जगी वनस्पतियाँ अलसाई मुह धोया शीतल जल से।(वनस्पतियाँ जागी फिर अलसाई ओर शीतल यानी ठन्डे जल से उन्होंने मुह धोया।)
- सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुर गान।(लहरों को नाचता हुआ व गाता हुआ वर्णित किया है।)