सामान्य अध्ययन २०१९/वर्ष 2019 के चर्चित जन्तु और वनस्पति
- ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय और कैनबरा विश्वविद्यालय की एक टीम द्वारा एक नई डिवाइस ‘फ्रॉगफोन’ विकसित की गई है। यह जंगलों में रहने वाले जीवों की निगरानी करेगा।
मेंढकों की निगरानी के लिये सबसे ज़्यादा प्रभावी होने के कारण इस डिवाइस को "फ्रॉगफोन" नाम दिया गया है। यह दुनिया की पहली ऐसी सौर-संचालित रिमोट सर्वेक्षण डिवाइस है जो मेंढकों की आवाज़ को पहचान सकती है और 3G एवं 4G सेलफोन के ज़रिये उनका सर्वेक्षण कर सकती है इसके लिये न तो प्री-रिकार्डिंग की ज़रूरत है और न ही किसी तरीके की आवाज़ अपलोड करना ज़रूरी है।
- फ्रॉगफोन द्वारा मेंढकों के निवास स्थान को संकेत भेजने और इसे वापस प्राप्त करने में तीन सेकंड का समय लगता है।
इन कुछ सेकंडों के दौरान डिवाइस का तापमान सेंसर सक्रिय हो जाएगा और पर्यावरणीय डेटा जैसे वायु का तापमान, पानी का तापमान और बैटरी वोल्टेज टेक्स्ट मैसेज के रूप में संकेत भेजने वाले के सेलफोन पर आ जाएगा। शोधकर्त्ता फ्रॉगफोन को दूर से डायल करने के बाद प्राप्त डेटा का विश्लेषण करके मेंढकों से संबंधित हर छोटी - बड़ी जानकारी को आसानी से एकत्र कर सकेंगे। सितंबर माह को बटरफ्लाई मंथ के रूप में मनाया जाता है।
वर्ष 2019 के चर्चित जन्तु(fauna)
[सम्पादन]- मध्य प्रदेश में एक लाल रेत बोआ साँप (Red Sand Boa Snake) को तस्करों से बचाया गया जिसकी कीमत लगभग 1.25 करोड़ रूपए बताई जा रही है।
इसका वैज्ञानिक नाम-एरिक्स जॉनी (Eryx Johnii) है। यह एक दुर्लभ गैर-जहरीला साँप है। इसका उपयोग विशेष प्रकार की दवाओं,सौंदर्य प्रसाधनों और काले जादू में किया जाता है। इसकी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अधिक मांग है। यह उत्तरी बंगाल,पूर्वोत्तर भारत और भारतीय द्वीपों को छोड़कर पूरे भारत में पाया जाता है। आमतौर पर इसे ‘दो मुँह वाला सांप ’ या ‘दो सिर वाला सांप’ (Two-Headed Snake) के रुप में जाना जाता है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत इसको पकड़ना और इसका व्यापार करना अपराध है। यह प्रजाति अधिनियम की अनुसूची 4 के तहत सूचीबद्ध है। यह प्रजाति CITES परिशिष्ट II में सूचीबद्ध है।
- अमूर फाल्कन (Amur falcon){(Least Concerned-IUCN]दुनिया की सबसे लंबी यात्रा करने वाले शिकारी पक्षी हैं,ये सर्दियों की शुरुआत के साथ यात्रा शुरू करते हैं।
ये शिकारी पक्षी दक्षिण पूर्वी साइबेरिया और उत्तरी चीन में प्रजनन करते हैं तथा मंगोलिया और साइबेरिया से भारत और हिंद महासागरीय क्षेत्रों से होते हुये दक्षिणी अफ्रीका तक लाखों की संख्या में प्रवास करते हैं। इसका 22,000 किलोमीटर का प्रवासी मार्ग सभी एवियन प्रजातियों में सबसे लंबा है।
- रूस और चीन के मध्य सीमा बनानेवाली ‘अमूर नदी’के नाम पर इसका नामकरण किया गया है। प्रजनन स्थल से दक्षिण अफ्रीका की ओर वार्षिक प्रवास के दौरान अमूर फाल्कन के लिये नागालैंड की दोयांग झील (Doyang Lake) एक ठहराव केंद्र के रूप में जानी जाती है। इस प्रकार,नागालैंड को "फाल्कन कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड" के रूप में भी जाना जाता है। के रूप में वर्गीकृत किया गया है लेकिन यह प्रजाति भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत ‘संरक्षित’ है।
- हूलॉक गिब्बन (Hoolock Gibbon)भारत में पाया जाने वाला एकमात्र कपि है। यह प्राइमेट पूर्वी बांग्लादेश,पूर्वोत्तर भारत और दक्षिण पश्चिम चीन का मूल निवासी है।
इसको दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:-
- पश्चिमी हूलॉक गिब्बन[(‘संकटग्रस्त’)Endangered-IUCN]:-यह उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में निवास करता है किंतु ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिण और दिबांग नदी के पूर्व में नहीं पाया जाता है। और भारत के बाहर ये पूर्वी बांग्लादेश और उत्तर-पश्चिम म्याँमार में पाया जाता है।
- पूर्वी हूलॉक गिब्बन (Eastern Hoolock Gibbon)[‘संवेदनशील’ (Vulnerable)-IUCN]भारत में अरुणाचल प्रदेश और असम की विशिष्ट क्षेत्रों और भारत के बाहर दक्षिणी चीन और उत्तर-पूर्व म्याँमार में निवास करते हैं।
भारत में इन दोनों प्रजातियों को भारतीय (वन्यजीव) संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 में सूचीबद्ध किया गया है।
- बार हेडेड गूस (Bar-headed Goose)[लीस्ट कन्सर्न’ (Least Concern)-IUCN]को केरल के पत्तनमतिट्टा ज़िला में करिंगली पुंचा के वेटलैंड्स मेंदेखा गया है।
इसे Anser Indicus के नाम से भी जाना जाता है। इसे दुनिया में सबसे ऊँची उड़ान भरने वाले पक्षियों में से एक माना जाता है।
- मध्य चीन और मंगोलिया में पाई जानेेवाली यह प्रजाति सर्दियों के दौरान भारतीय उप-महाद्वीप में प्रवास शुरू करते हैं तथा मौसम के अंत तक रहते हैं।
कारिंगली पुंचा का वेटलैंड पत्तनमतिट्टा ज़िले का एक प्रमुख पक्षी स्थल है। यहाँ वर्ष 2015 की एशियाई वॉटरबर्ड जनगणना में सबसे अधिक पक्षियों के होने की सूचना थी।
- होउबारा बस्टर्ड (Houbara Bustard) पक्षी के शिकार हेतु पाकिस्तान की सरकार ने कतर के शाही परिवार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित विशेष परमिट जारी किया है।
होउबारा बस्टर्ड बड़े आकार का स्थलीय पक्षी हैं जिसकी कई प्रजातियों होती हैं। इनमें उड़ने वाले पक्षी भी शामिल हैं। यह सामान्यतः शुष्क जलवायु में रहता है। IUCN के अनुसार,इसकी दो अलग-अलग प्रजातियाँ पाई जाती हैं। उत्तरी अफ्रीका में क्लैमाइडोटिस अंडुलाटा (Chlamydotis Undulata) और एशिया में क्लैमोटोटिस मैक्केनी (Chlamydotis Macqueenii) प्रजाति पाई जाती है। यह सामान्यतः बसंत में प्रजनन करते हैं। एशियाई होउबारा बस्टर्ड अरब प्रायद्वीप से लेकर सिनाई रेगिस्तान तक पाए जाते हैं। सर्दियों के मौसम के दौरान एशियाई बस्टर्ड दक्षिण में पाकिस्तान और अरब प्रायद्वीप के क्षेत्रों में प्रवास करते हैं। होउबारा बस्टर्ड की संख्या कम होने का मुख्य कारण अवैध शिकार है।
- इकोलॉजी लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार,क्लाउनफ़िश (Clownfish),तीव्रता से बदलते परिवेश के साथ अनुकूलन नहीं कर पा रही है जिसके कारण इनकी संख्या में तेज़ी से कमी आ रही है।
क्लाउनफ़िश में अनुकूलन की क्षमता का आनुवंशिक गुणों में न होने के कारण वह ऐसा नहीं कर पाती है। इसका वैज्ञानिक नाम एम्फिप्रियोन पेरकुला (Amphiprion Percula) है। क्लाउनफ़िश ग्रेट बैरियर रीफ सहित हिंद और प्रशांत महासागर के विभिन्न भागों में पाई जाती हैं। क्लाउनफ़िश आमतौर पर आश्रित भित्तियों या उथले लैगून में समुद्र के तल पर रहती हैं।
- असम रूफ्ड टर्टल(संकटग्रस्त-IUCN)
बहुउद्देशीय असमिया गमोसा (Assamese gamosa) बनाने वाले एक गैर-सरकारी संस्थान को दुर्लभ ताज़े पानी के कच्छुओं- असम रूफ्ड टर्टल (Assam roofed turtle) के संरक्षण का कार्य सौंपा गया है। असम रूफ्ड टर्टल का वैज्ञानिक नाम पंगशुरा सिलहेटेंसिस (Pangshura Sylhetensis) है। यह मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत और पूर्वोत्तर व दक्षिण-पूर्वी बांग्लादेश के पहाड़ी क्षेत्रों में ताज़े पानी में पाया जाता है।
- लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन(CITES) के परिशिष्ट II में शामिल है।
- वन्यजीव संरक्षण अधिनियम,1972 की अनुसूची 1 के तहत संरक्षित है।
असमिया गमोसा एक प्रकार का सर्वव्यापी,सफेद सूती तौलिया है जिस पर हाथ से बुने हुए लाल रंग के रूपांकन होते हैं और इसकी किनारी भी लाल रंग की होती हैं। इस पर विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक प्रतीकों को दर्शाया जाता है। इस पर असम रूफ्ड टर्टल का चित्रण करके उसके संरक्षण का संदेश दिया जा रहा है यह असम में आगंतुकों को एक मूल्यवान उपहार के रूप में दिया जाता है। इसका उपयोग दुपट्टे, सर पर पगड़ी बाँधने और मास्क के रूप में किया जाता है।
- शौधकर्त्ताओं ने अरुणाचल प्रदेश में साँप की एक नई प्रजाति (New Species of Snake) की खोज की है।
साँप की इस नई प्रजाति का नाम ट्रेकिसियम आप्टे ( Trachischium apteii) रखा गया है। इसे यह नाम बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (Bombay Natural History Society- BNHS) के प्रसिद्ध समुद्री जीवविज्ञानी और निदेशक दीपक आप्टे के सम्मान में दिया गया है। ट्रेकिसियम प्रजाति के विषय में: यह एक विषहीन बिल खोदने वाला साँप है जो अरुणाचल प्रदेश के ज़ीरो कस्बे में अवस्थित टैली घाटी वन्यजीव अभ्यारण्य में पाया गया है। ट्रेकिसियम प्रजाति के साँप आमतौर पर पतले होते है और वर्तमान में इसकी सात प्रजातियाँ हैं जो हिमालय, इंडो-बर्मा तथा भारत-चीन क्षेत्रों में पाई जाती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, इस प्रजाति के साँपों की बिल खोदने की आदत के कारण इस वर्ग के साँप भूमिगत रहते हैं और मानसून के दौरान ही बाहर दिखाई देते हैं।
- वैज्ञानिकों द्वारा ततैया (Wasp) की एक प्रजाति को इदरीस एल्बा (Idris Elba) का नाम दिया है।
पृष्ठभूमि: ब्रिटिश अभिनेता इदरीस एल्बा को थोर नामक एक हॉलीवुड फिल्म में हेमडाल के किरदार के लिये जाना जाता है। हेमडाल, एक नोर्वेगियाई देवता हैं,जिन्हें मानव और देवताओं को जोड़ने वाले माध्यम का एकमात्र रक्षक माना जाता है। इदरीस एल्बा ततैया के विषय में: हाल में ततैया की इस प्रजाति को मैक्सिको में खोजा गया था, इसे बैग्रडा बग (Bagrada Bug) नामक अन्य परजीवी के अंडों पर जीवित पाया गया जो कि पत्तेदार सब्जियों का एक प्रमुख कीट है। वर्तमान में इदरीस वर्ग में 300 से अधिक प्रजातियाँ शामिल हैं जिनमें सबसे नई खोजी गई प्रजाति को एल्बा नाम दिया गया है।
- कोआला भालू(Koala Bear)[सुभेद्य (Vulnerable)]:- ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स प्रांत के जंगल में आग लगने से लगभग 350 कोआला भालुओं ( Koala Bear) के मरने की आशंका जताई जा रही है।
यह पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के तटीय क्षेत्रों में वृक्षों पर निवास करने वाला धानी-प्राणी (Marsupial) है। यह प्रतिरक्षा प्रणाली के बिना ही गर्भावस्था के 34-36 दिनों के बाद जन्म लेता है और इसके बाद लगभग 6 माह तक पेट के पाउच/थैले में इसका विकास होता है। निवास स्थान की क्षति और आहार की कमी के कारण इनकी जनसंख्या में तेज़ी से कमी आई है। इनका मुख्य आहार यूकेलिप्टस की पत्तियाँ हैं।
- राजस्थान के जोधपुर के एक गाँव में लगभग 37 डेमोसिल क्रेन (Demoiselle crane)[Lc-IUCN] मृत पाई गई हैं।
इन पक्षियों की मौत कीटनाशक युक्त खाद्यान्न के सेवन से हुई है। सारस की प्रजाति डेमोसिल क्रेन को स्थानीय बोल चाल की भाषा में कुरजा कहा जाता है। ये प्रवासी पक्षी हैं जो साइबेरिया से हजारों किलोमीटर लंबा सफर तय करके भारत में प्रत्येक वर्ष आते हैं। राजस्थान में प्रत्येक वर्ष लगभग पचास स्थानों पर कुरजा पक्षी आते हैं और अक्तूबर से मार्च माह तक यहाँ निवास करते हैं। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार, वर्तमान में जोधपुर, बीकानेर और नागौर ज़िलों में लगभग 35,000 डेमोसिल क्रेन हैं। जिनमे से कुछ पक्षी यूरेशिया के क्रेन वर्किंग ग्रुप (Crane working Group Of Eurashia) द्वारा चलाये गए ‘1000 क्रेन प्रोजेक्ट’ के तहत चिह्नित किये गए हैं।
- प्लायोसॉर (Pliosaur)सरीसृपों की अस्थियों के अवशेष पोलैंड में अवस्थित स्वेतोक्रिज़्स्की पर्वत (Swietokrzyskie Mountains) के उत्तर में पाये गए हैं।
प्लायोसॉर एक प्रकार के विशालकाय मांसाहारी सरीसृप है जो लगभग 150 मिलियन वर्ष पहले महासागरों में पाया जाता था। इसलिये इन्हें समुद्री राक्षस की संज्ञा दी गई। इन सरीसृपों की बड़ी खोपड़ी तथा बड़े एवं तीव्र दाँतों के साथ विशाल जबड़ा होता था। इन्हें सबाॅर्डर प्लायोसाउरेडिया (Suborder Pliosauroidea) वर्ग में रखा गया है, इस वर्ग के सदस्यों को प्लायोसॉर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि ज़ुरैसिक काल में स्वेतोक्रिज़्स्की पर्वत एक द्वीपसमूह था इसके आसपास गर्म लैगून और छिछला समुद्री क्षेत्र था। यह समुद्री क्षेत्र जीवाश्म वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गए समुद्री सरीसृप का निवास स्थान था। जिन क्षेत्रों में अवशेषों की खोज की गई थी उन्हे समुद्री सरीसृपों के जीवाश्मों से समृद्ध माना जाता है।
- पर्वतीय पिग्मी पोस्सम(Mountain Pygmy Possum)[गंभीर संकटग्रस्त] के संरक्षण के लिये उसके आवास स्थानांतरण का प्रयास न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी (University of New South Wales-UNSW) के शोधकर्त्ताओं द्वारा किया जा रहा है। इसका वैज्ञानिक नाम बुरामिस पर्वुस (Burramys Parvus) है।
- अल्पाइन क्षेत्रों में पाया जाने वाला स्तनधारी है। वर्तमान में बर्फबारी का कम होना और तापमान बढ़ना इसके आवास के लिये खतरा बन रहा है जिसके कारण यह लुप्त होने के कगार पर है।
वर्तमान में इसकी संख्या घटकर 2500 से भी कम हो गई है।
- ब्राउन ब्लॉटेड बंगाल ट्री फ्रॉग(Brown Bloated Bengal Tree Frog)-पश्चिम बंगाल में मेंढक की एक प्रजाति ट्री फ्रॉग (Tree Frog) की उप-प्रजाति का हाल हीं में पता लगाया गया है।
इसे पोलिपेडेट्स (Polypedates) वर्ग के तहत मध्यम आकार के मेंढक के रूप में 26वीं प्रजाति के अंतर्गत रखा गया है। पॉलीपेडेट्स पूरे दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाने वाले मेंढक (Tree Frog) का एक वर्ग है।
- गंगा डॉल्फिन गंगा-ब्रह्मपुत्र-सिंधु-मेघना नदी अपवाह तंत्र जिसमे भारत, नेपाल और बांग्लादेश शामिल हैं में पायी जाती है।
भारत में ये असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल राज्यों में पाई जाती है। गंगा, चम्बल, घाघरा, गण्डक, सोन, कोसी, ब्रह्मपुत्र इनकी पसंदीदा अधिवास नदियाँ हैं। यह CITES के परिशिष्ट 1 में सूचीबद्ध है। तथा IUCN की लुप्तप्राय (Endangered) सूची में शामिल है।
- क्रायोड्रेकॉन बोरियसउड़ने वाला सबसे बड़ा जीव जर्नल ऑफ वर्टिब्रेट पेलियनटॉलोजी (Journal of Vertebrate Paleontology) में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार। यह मांसाहारी था तथा छिपकली, छोटे स्तनधारी जीवों और यहाँ तक कि डायनासोर के बच्चों को भी खा जाता था।
इसके अवशेष पहली बार तीस साल पहले कनाडा के अलबर्टा में मिले थे, उस समय इसे टेरोसोर प्रजाति के एक डायनासोर के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन अब इसे एक अलग प्रकार के जीव के रूप में वर्गीकृत किया गया है। स्टार कछुआ (Star Tortoise), चिकनी-लेपित ओटर (Smooth-coated Otter) और छोटे पंजे वाले ओटर (Small-clawed Otter) की सुरक्षा स्थिति को उन्नत करने के लिए भारत के प्रस्ताव को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों हेतु कन्वेंशन (CITES) द्वारा मंजूरी दे दी गई है। प्रजातियों को अब CITES के परिशिष्ट I के तहत सूचीबद्ध किया गया है और सुरक्षा का उच्चतम स्तर प्रदान किया गया है।इसके बाद, उनकी संख्या को बढ़ाने के प्रयास के रूप में, उनके व्यापार पर पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लागू किया जाएगा। जिनेवा में आयोजित सम्मेलन ऑफ पार्टीज (COP18) में इस सुधार को मंजूरी दी गई।
- क्लाउडेड लेपर्ड IUCN की रेड लिस्ट में 2008 से सुभेद्य (Vulnerable) के रूप में सूचीबद्ध एक मध्यम आकार की जंगली बिल्ली है।
भारत के मिज़ोरम में स्थित डंपा बाघ अभयारण्य (Dampa Tiger Reserve) को क्लाउडेड लेपर्ड के अध्ययन स्थल के रूप में चुना गया है। यह मेघालय का राजकीय पशु है। इसके संरक्षण हेतु किये जाने वाले प्रयासों को मज़बूत करने के लिये इसे गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों के लिये भारत के पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम (Recovery Program for Critically Endangered Habitats and Species) में जोड़ा गया है। क्लाउडेड तेंदुआ घास के मैदान, झाड़ियों, उपोष्ण कटिबंधीय और घने उष्ण कटिबंधीय जंगलों में रहना पसंद करते हैं जो कि 7,000 फीट की ऊँचाई तक हिमालय की तलहटी से चीन की मुख्य भूमि के साथ दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला हुआ है। भारत में, यह सिक्किम, उत्तरी पश्चिम बंगाल, मेघालय उपोष्ण कटिबंधीय जंगलों, त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर, असम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में पाया जाता है।
- ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क को वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची IV के तहत रखा गया है तथा इसे 2010 में बर्डलाइफ इंटरनेशनल द्वारा "लुप्तप्राय" घोषित किया गया है।
यह भारत के असम और बिहार में तथा कंबोडिया में पाया जाता है।
- पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा जल,थल और नभ में रहने वाले सभी जीव-जंतुओं को विधिक दर्जा प्रदान किया है।
कोर्ट ने जीव-जंतुओं के पूरे साम्राज्य को मानव की तरह ही कानूनी अधिकार,कर्त्तव्य और जिम्मेदारियाँ दी हैं। कोर्ट ने हरियाणा सरकार और प्रशासन को पशुओं के खिलाफ क्रूरता निवारण अधिनियम को सख्ती से लागू करने के साथ पशुओं को लाने-ले जाने के लिए सीमा, शर्तें, नियम और मानदंडों का निर्धारण करने के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं। पिछले वर्ष जुलाई में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने हवा, पानी व धरती पर रहने वाले जीव-जंतुओं को विधिक दर्जा प्रदान करते हुए उत्तराखंड के नागरिकों को उनका संरक्षक घोषित कर दिया था। कोर्ट ने था कि जीव-जंतुओं के भी मानव की तरह अधिकार, कर्त्तव्य व ज़िम्मेदारियाँ हैं।
- नेलोप्टोड्स ग्रेटा (Nelloptodes Gretae) झींगुर (Beetle) की इस छोटी प्रजाति का नामकरण,लंदन में नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम के वैज्ञानिकों ने आधिकारिक तौर पर रखा।यह नाम 16 वर्षीय स्वीडिश पर्यावरण प्रचारक ग्रेटा थनबर्ग के नाम पर रखा गया है।
1960 के दशक में पहली बार केन्या में पाए गए, जिन्हें वर्ष 1978 में लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम में भेज दिया गया। झींगुरों के टिलाइडी (Ptiliidae) परिवार से संबंधित,यह 1 मिमी. से कम लंबा होता है और इसमें पंख नहीं पाए जाते हैं।साथ ही यह विश्व के सबसे छोटे झींगुरों में गिना जाता है।
- कोवलम एवं थुम्बा में प्रवाल (CORAL) की कुछ दुर्लभ प्रजातियों की खोज केरल विश्वविद्यालय और फ्रेंड्स ऑफ़ मरीन लाइफ (Friends of Marine Life- FML) नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा की गई है।
- प्रजातियों के नाम:-इस खोज के परिणामस्वरूप 9 निम्नलिखित प्रजातियों की पहचान की गई है-
- फेवाइट्स फ्लेक्सुओसा (Favites Flexuosa)
- गोनियास्ट्रिया रेटिफॉर्मिस (Goniastrea Retiformis)
- मोंटीपोरा डिजिटा (Montipora Digita)
- मोंटीपोरा हिस्पिडा (Montipora Hispida)
- पावोना वेरियंस (Pavona Varians)
- एक्रोपोरा डिजिटिफेरा (Acropora Digitifera)
- फेवाइट्स (Favites)
- पावोना वेनोसा (Pavona Venosa)
- पोराइट्स लाईकेन (Porites Lichen)
- सफेद बेलबर्ड (White Bellbird)-करेंट बायोलॉजी नामक पत्रिका के अध्ययन के अनुसार,इसके प्रणय गीत (Mating Song) का स्वर पक्षियों में सबसे अधिक डेसिबल का है।
पक्षियों के काटिन्ग्डे (Cotingidae) वर्ग से संबंधित एक प्रजाति है। तथा इसका वैज्ञानिक नाम प्रोकनिअस अल्बस (Procnias albus) है। शारीरिक विशेषताएँ:
- इस पक्षी में सामान्य से मोटी और विकसित पेट की मांसपेशियाँ एवं पसलियों जैसी कुछ विशिष्ट शारीरिक संरचना होती है, शोधकर्त्ताओं का अनुमान है कि यह विशिष्ट संरचना इनके ऊँचे स्वर से संबंधित हो सकती है।
IUCN की रेडलिस्ट के अनुसार सफेद बेलबर्ड लीस्ट कंशर्न (Least Concern) श्रेणी में सूचीबद्ध है।
- मूल स्थान (Native):-ब्राज़ील, फ्रेंच गयाना, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, वेनेज़ुएला, बोलीविया।
- डायनासोर की नई प्रजाति की खोज जापान के होक्काइडो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने कंकालों का अध्ययन कर किया।
यह हाड्रोस्यूरिड डायनोसॉर (Hadrosaurid dinosaur) प्रजाति से संबंधित है। संभवतः यह शाकाहारी जीव पृथ्वी पर क्रिटेशस दौर के अंतिम वर्षों में पाया जाता था। यह जापान में खोजा गया अब तक का सबसे बड़ा (लगभग आठ मीटर/26 फीट) कंकाल है। यह कंकाल लगभग 7.2 करोड़ वर्ष पुराना है। पहली बार वर्ष 2013 में उत्तरी जापान में इसका आंशिक हिस्सा प्राप्त हुआ था और बाद में खुदाई से पूरे कंकाल का पता चला था। डायनासोर का नाम कम्यूसोरस जपोनिकस (Kamuysaurus japonicus) रखा है, जिसका अर्थ है जापानी ड्रैगन गॉड (Japanese Dragon God)।[१]
- विश्व के सबसे छोटे बंदर का जीवाश्म-
अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी (Duke University) तथा पेरू की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ पिउरा (National University of Piura) के शोधकर्त्ताओं की एक टीम को लगभग 18 मिलियन वर्ष (1.8 करोड़ वर्ष) पुराने एक नई प्रजाति के छोटे बंदर के दांत के जीवाश्म मिले हैं। ह्यूमन इवोल्यूशन (Human Evolution) नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए इस अध्ययन के अनुसार, यह जीवाश्म अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसकी मदद से बंदरों के जीवाश्म रिकॉर्ड में 15 मिलियन (1.5 करोड़) वर्ष के अंतर को समाप्त किया जा सकता है क्योंकि अभी तक शोधकर्त्ताओं को बंदरों के इतने प्राचीन जीवाश्म नहीं मिल पाए थे। यह जीवाश्म दक्षिण-पूर्वी पेरू में रियो ऑल्टो मादरे डी डिओस (Rio Alto Madre de Dios) नदी के तट पर बलुआ पत्थर से प्राप्त हुआ है। इस दौरान शोधकर्त्ताओं को चूहे, चमगादड़ और अन्य कई जानवरों के जीवाश्म भी प्राप्त हुए। ऐसा माना जाता है कि लगभग 40 मिलियन वर्ष पूर्व बंदर दक्षिण अफ्रीका से दक्षिण अमेरिका की ओर प्रवास कर गए थे। वर्तमान में बंदरों की अधिकांश प्रजातियाँ अमेज़न के वर्षावन में निवास करती हैं।
- हैमरहैड कृमि (Bipalium sp.) एक डरावना और विषैला स्थलीय चपटा कृमि है। यह परभक्षी तथा स्वजाति भक्षी है और मूल रूप से एक बड़ा अटकृमि (Planarian) है जो कि भूमि पर पाया जाता है। विशिष्ट दिखने वाला यह कृमि मनुष्य के लिये प्रत्यक्ष खतरा नहीं है परंतु यह आक्रामक प्रजाति है जो केंचुए को नष्ट करती है।
केंचुए मिट्टी के जैविक पदार्थ का भक्षण कर उसे छोटे टुकड़ों में तोड़कर अपघटित करते हैं तथा बैक्टीरिया एवं फंगी को इसका भक्षण करने और पोषक तत्त्वों को अवमुक्त करने की सुविधा देते हैं। केंचुए मिट्टी की परतों को मिलाने तथा मिट्टी में जैविक पदार्थ समाविष्ट करने के लिये भी उत्तरदायी हैं। केंचुओं के विनाश से मिट्टी की उर्वरा शक्ति को नुकसान होता है।
- पूरे भारत में पाई जानेवाली गिद्धों की नौ प्रजातियों हैं, हालाँकि इनकी सघनता अधिकतर गुजरात,राजस्थान,मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में है।
ओरिएण्टल व्हाइट बैक्ड वल्चर, लॉन्ग बिल्ड वल्चर, स्लेण्डर बिल्ड वल्चर जिप्स वंश की ये तीन गिद्ध प्रजातियाँ अतिसंकटग्रस्त श्रेणी में हैं। वर्ष 2004 में पिंजोर में देश के पहले जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र (The Jatayu Conservation Breeding Centre -JCBC) की स्थापना की गई।जटायु कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर (जेसीबीसी), हरियाणा वन विभाग और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) की एक संयुक्त परियोजना है। यह तीन प्रजातियों के गिद्धों को विलुप्त होने से बचाने के लिए एक सहयोगात्मक पहल है, सफेद पीठ वाले, लंबी चोंच वाले और पतले चोंच वाले गिद्ध। यह केंद्र बीड़ शिकारगाह वन्यजीव अभयारण्य के किनारे जोधपुर गांव में स्थित है जो मल्लाह रोड पर पिंजौर राष्ट्रीय राजमार्ग -22 से 8 किमी दूर है। केंद्र हरियाणा वन विभाग की 5 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है।[२] महाराष्ट्र वन विभाग द्वारा गढ़चिरौली, नासिक और रायगढ़ में गिद्धों को सुरक्षित एवं पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराने के लिये वल्चर रेस्तराँ की स्थापना की गई है।
- पश्चिमी घाट में द्रविडोगेको (Dravidogecko) परिवार की छिपकलियों की छह प्रजातियों की खोज की गई है।
- अभी तक इस परिवार की केवल एक ही प्रजाति ज्ञात थी।
- यह अध्ययन केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में विस्तृत एवं ‘जैव विविधता हॉटस्पॉट’ के रूप में प्रसिद्ध पश्चिमी घाट के महत्त्व को दर्शाता है।
- ये सभी अलग-अलग प्रजातियाँ एक ही पारिस्थितिक निकेत (Niche) में रहती हैं इसलिये बहुत ही कम रूपात्मक अंतर प्रदर्शित करती हैं। हालाँकि एक DNA आधारित आण्विक विश्लेषण से इनमें आसानी से विभेद किया जा सकता है।
इन छिपकलियों का उद्भव:
- एक पूर्व अध्ययन के अनुसार, द्रविडोगेको अनामालेनेसिस (Dravidogecko Anamallensis) परिवार का विकास लगभग 5.8 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था, जब भारतीय उप-महाद्वीप अफ्रीकी भूमि से अलग हुआ था।
अधिवास:
- छोटे आकार की छिपकली द्रविडोगेको मध्य से उच्च ऊँचाई वाले आर्द्र वनों में सीमित है। यह मुख्यत: पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग में वायनाड (केरल) से लेकर तिरुनेलवेली (तमिलनाडु) तक पर्वत श्रृंखलाओं में पाई जाती है।
छह नई प्रजातियों का निम्नलिखित प्रकार से नामकरण किया गया है-
- द्रविडोगेको सेप्टेन्ट्रियोनालिस (Dravidogecko Septentrionalis)
- डी. जानकीआई (केरल के वनस्पतिशास्त्री जानकी अम्मल के नाम पर)
- डी. थोलपल्ली (D. Tholpalli)
- डी. मेघमालईन्सिस (D. Meghamalaiensis)
- डी. डगलसएडम्सी (ब्रिटिश लेखक और व्यंग्यकार डगलस नोएल एडम्स के नाम पर)
- डी.स्मिथि (ब्रिटिश सरीसृप विज्ञानी मैल्कम आर्थर स्मिथ के सम्मान में)
- तस्मानियन टाइगर (Tasmanian Tiger)
अक्टूबर 2019 में आए एक रिपोर्ट में तस्मानियन टाइगर से मिलते-जुलते एक जानवर का उल्लेख हुआ,परंतु यह वर्ष 1936 के बाद से विलुप्त माना जाता है।[३]
- इसे थायलेसिन (Thylacine) और तस्मानियन वुल्फ (Wolf) के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम थैलसाइनस साइनोसेफैलस (Thylacinus Cynocephalus) है।
- बहुत समय पहले यह उत्तर में न्यू गिनी से लेकर दक्षिण में तस्मानिया तक पाया जाता था, लेकिन लगभग 2000 वर्ष पहले यह ऑस्ट्रेलिया की मुख्य भूमि से विलुप्त हो गया था।
- वर्ष 1936 में तस्मानिया के होबार्ट चिड़ियाघर में अंतिम ज्ञात तस्मानियन टाइगर की मृत्यु हो गई थी।
- यह IUCN की रेड लिस्ट में विलुप्त (Extent) और CITES की परिशिष्ट I (Appendix I) में सूचीबद्ध है।
शारीरिक विशेषताएँ:
- मार्सुपियल (Marsupial) वर्ग के इस मांसाहारी जानवर का आकार कुत्ते से मिलता-जुलता था।
- इसके शरीर पर पीछे से शुरू होने वाली गहरी धारियाँ, कड़ी पूँछ (Stiff Tail) और पेट की थैली (Abdominal Pouch) होती थी।
विलुप्त होने के कारण:
- मनुष्यों द्वारा अति शिकार।
- ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय जंगली कुत्तों डिंगो (Dingo) से प्रतिस्पर्द्धा।
- भेड़ों के लिये खतरा होने के कारण भेड़पालकों से संघर्ष।
- सहारन सिल्वर चींटी (Saharan Silver Ant)-
उत्तरी सहारा मरुस्थल में पाई जाने वाली सहारन सिल्वर चींटी (Saharan Silver Ant) विश्व की सबसे तेज़ गति से चलने वाली चींटी है।
- इसका वैज्ञानिक नाम कैटाग्लिफिस बॉम्बाइकिना (Cataglyphis Bombycina) है।
- यह चींटी सहारा मरुस्थल की तीव्र गर्मी में कीड़े-मकोड़ों का शिकार करती है।
यह चींटी तेज़ गति से भागते समय कई बार अपने छह पैर उठाकर हवा में थोड़ी दूर तक उड़ भी सकती है। इन चीटियों के सिर पर चमकीले बाल होते हैं जिससे तेज़ धूप से ये अपनी सुरक्षा करती हैं। यह चींटी 60 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी सामान्य अवस्था में रहते हुए शिकार कर सकती है। सहारा मरुस्थल में चाड झील (Lake Chad) एकमात्र मीठे पानी की झील है।
- शाहीन फाल्कन(Shaheen falcon) इसे इंडियन पेरेग्रिनस फाल्कन (Falco Peregrinus Peregrinator) के नाम से भी जाना जाता है।
यह अपने शिकार की विशिष्ट शैली के लिये प्रसिद्ध है, जिसे स्टूप (Stoop) कहा जाता है। यह पक्षी तेज़ गति से गोता लगाते हुए अपने शिकार पर हमला करता है।अंटार्कटिका को छोड़कर शेष सभी महाद्वीपों में पाया जाता है। 20वीं शताब्दी के मध्य में शाहीन फाल्कन की जनसंख्या में भारी गिरावट आई और संयुक्त राज्य अमेरिका में इस पक्षी की संख्या बहुत ही कम हो गई थी। डीडीटी और अन्य रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग इनकी जनसंख्या में गिरावट का मुख्य कारण है। कैप्टिव प्रजनन कार्यक्रमों के माध्यम से इनकी जनसंख्या बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। शाहीन फाल्कन (IUCN) की सूची के अनुसार सुभेद्य (Vulnerable) श्रेणी में है।
- प्वाइज़न फायर कोरल(Poison fire coral)विश्व के इस सबसे ज़हरीले कवक को ऑस्ट्रेलिया के सुदूर उत्तर में पहली बार देखा गया है।
इस कवक का मूल स्थान जापान और कोरिया प्रायद्वीप है,अपने मूल निवास स्थान से हज़ारों मील दूर यह कवक पहली बार देखा गया है। चमकते लाल रंग का ज़हर उगलने के कारण इसका रंग लाल होता है।पेड़ों की जड़ों और मिट्टी में भी पाया जाता है। यह कवक त्वचा के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकता है, इस कवक में आठ ऐसे यौगिक हैं जिन्हें त्वचा अवशोषित कर सकती है। इस कवक के स्पर्श मात्र से त्वचा लाल रंग की हो जाती है, साथ ही इससे सूजन भी हो सकती है। जापान और कोरिया में पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाले खाद्य मशरूम और इस लाल कवक के बीच संदेह की स्थिति में लाल कवक के प्रयोग से कई लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
- कैट स्नेक’ की नई प्रजाति(Boiga thackeray) की खोज पश्चिमी घाट में की गई है।
इसकी खोज करने वाली जैव विविधता शोधकर्त्ता टीम के सदस्य तेजस ठाकरे के नाम पर इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम ‘बोइगा ठाकरेई’ (Boiga Thackerayi) रखा गया है। 125 वर्षों में पश्चिमी घाट में पाया जाने वाला यह पहला बोइगा स्नेक है।
- बोइगा ठाकरेई (Boiga Thackerayi)
बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (Bombay Natural History Society) द्वारा जारी जर्नल के अनुसार महाराष्ट्र स्थित ‘सहयाद्रि टाइगर रिज़र्व’ (Sahyadri Tiger Reserve) में पाई गई,इस प्रजाति के शरीर पर बाघ जैसी धारियाँ पाई जाती हैं एवं यह स्नेक अधिकतर वृक्षों पर रहता है। यह वृक्षों पर रहने वाले हुमायूँ नाइट फ्रॉग (Humayun’s Night Frog) और उसके अण्डों का भोजन करता है। यह प्रजाति विषैली नहीं है और इसकी लंबाई 890 मिमी (लगभग 3 फीट) तक बढ़ती है। हुमायूँ नाइट फ्रॉग (Humayun’s Night Frog) यह पश्चिमी घाट की स्थानिक प्रजाति है और उष्णकटिबंधीय नम सदाबहार एवं अर्द्ध-सदाबहार वनों में पाई जाती है।
- माइक्रोहिला इओस(Microhyla Eos)मेंढक की इस नई प्रजातिकी खोज अरुणाचल प्रदेश के नामदफा बाघ अभयारण के सदाबहार वनों में दिल्ली यूनिवर्सिटी व जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया।
इस प्रजाति का नाम इओस (Eos) रखा गया है।इसे माइक्रोहिला (Microhyla) वंश के 50वें सदस्य के रूप में वर्णित किया गया है। यह संकीर्ण मुँह वाले मेंढकों का एक समूह है जिसे आमतौर पर राइस मेंढक (Rice Frog) या कोरस मेंढक (Chorus Frog) के रूप में जाना जाता है। यह मेंढक मुख्यत: एशिया में पाया जाता है। Microhyla Eos को इसके आकार, आकृति , रंग, त्वचा चिह्नों और अन्य विशेषताओं के कारण अन्य संकीर्ण-मुंह वाले कोरस मेंढकों से भिन्न पाया गया है। DNA विश्लेषण में Microhyla Eos को दक्षिण-पूर्व एशिया के माइक्रोहिला वंश के समान पाया गया है।
- अफ्रीका में दुनिया के सबसे ऊँचे स्तनधारी जिराफ की आबादी तेज़ी से घटती जा रही है।-जिराफ दुनिया का सबसे ऊँचा स्तनधारी है। जिसके पैर की लंबाई लगभग 6 फीट होती है।
इसका वैज्ञानिक नाम Giraffa camelopardalis है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) के पास उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 1985 से 2015 के बीच पूरे महाद्वीप में जिराफों की संख्या में 40% तक की गिरावट दर्ज की गई है। IUCN की रेड लिस्ट में जिराफ को सुभेद्य (Vulnerable) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इनकी संख्या में गिरावट का कारण पर्यावासों की क्षति तथा निवास स्थानों के विखंडन को माना जा रहा है। इनके अवैध शिकार का एक पारंपरिक कारण यह भी है कि इनकी त्वचा और पूँछ के बालों को उपहार के रूप में दिया जाता है।
- क्रायोड्रेकॉन बोरियस(Cryodrakon boreas)-जर्नल ऑफ वर्टिब्रेट पेलियनटॉलोजी (Journal of Vertebrate Paleontology) में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यह उड़ने वाला सबसे बड़ा जीव था।
इसके पंखों का विस्तार (Wingspan) 10 मीटर तथा वज़न लगभग 250 किग्रा था। इसके अवशेष पहली बार तीस साल पहले कनाडा के अलबर्टा में मिले थे,उस समय इसे टेरोसोर प्रजाति के एक डायनासोर के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन अब इसे एक अलग प्रकार के जीव के रूप में वर्गीकृत किया गया है। उस समय(लगभग 77 मिलियन वर्ष पूर्व) पाए जाने वाले अन्य स्तनधारियों की तरह क्रायोड्रेकॉन भी मांसाहारी था, संभवतः यह छिपकली, छोटे स्तनधारी जीवों और यहाँ तक कि डायनासोर के बच्चों को भी खा जाता था। जल के बड़े निकायों को पार कर सकने की क्षमता के बावजूद, इसके अवशेषों की प्राप्ति का स्थान और अन्य विशेषताएँ इसके अंतर्देशीय निवास (Inland Habitat) का संकेत देती हैं।
- टेरोसोर (Pterosaurs)उड़ने वाले सरीसृप थे जिनका संबंध विलुप्त हो चुके गण (Order) या क्लेड (Clade) टेरोसोररिया (Pterosauria) से था।
- ये अधिकांशतः मेसोज़ोइक (Mesozoic) युग- ट्राइऐसिक युग (Triassic) के अंत से लेकर क्रीटेशियस युग (Cretaceous) के अंत तक जीवित थे। ये पहले कशेरुकी (vertebrates) प्राणी थे जो उड़ने में सक्षम थे।
टेरोसोरस की 100 से अधिक ज्ञात प्रजातियाँ हैं। बड़े आकार और व्यापक स्तर पर वितरण (पूरे उत्तर और दक्षिण अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और यूरोप) के बावजूद इनके केवल खंडित अवशेष ही प्राप्त हुए हैं, ऐसे में यह नई खोज विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड[गंभीर संकटग्रस्त’ (Critically Endangered)]की उच्च मृत्यु दर को देखते हुए,राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने केंद्र सरकार को पक्षियों के संरक्षण के लिये समयबद्ध कार्ययोजना तैयार करने का निर्देश दिया है। NGT ने एक संयुक्त समिति का गठन भी किया है जिसमें पर्यावरण,वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय,विद्युत मंत्रालय,नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अधिकारी शामिल हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ने एक रिपोर्ट में यह कहा था कि थार क्षेत्र में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और अन्य वन्यजीवों के अवैध शिकार को कम करने के लिये उचित कदम उठाए जाने चाहिये।
- इसको भारतीय चरागाहों की प्रमुख प्रजाति (Flagship Species of Indian grassland) के रूप में जाना जाता है जो मुख्य रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पाया जाता है।
आर्डीओटिस नाइग्रीसेप्स (Ardeotis Nigriceps)इसका वैज्ञानिक जबकि मल्धोक,घोराड येरभूत,गोडावण,तुकदार,सोन चिरैया आदि इसके प्रचलित स्थानीय नाम हैं।
- यह राजस्थान का राजकीय पक्षी है,जहाँ इसे गोडावण नाम से भी जाना जाता है।
- भारत में सोन चिरैया के शिकार पर पूर्णतः पाबंदी है। वर्तमान समय में यह संकट इसलिये भी गहरा गया है कि घटते मैदान तथा रेगिस्तान में बेहतर सिंचाई व्यवस्था न होने के कारण इनके प्राकृतिक निवास यानी घास के मैदान कम होते जा रहे हैं।
- नीलगिरी ताहर[लुप्तप्राय] की संख्या तमिलनाडु के मुकुर्थी राष्ट्रीय उद्यान में पिछले 3 वर्ष में 27% की वृद्धि हुई है।
मुकुर्थी राष्ट्रीय उद्यान में नीलगिरी तहर की संख्या वर्ष 2018-19 में 8% (568 से बढ़ कर 612) की वृद्धि हुई है। इसको नीलगिरी आईबेक्स या सिर्फ आईबेक्स के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम नीलगिरिट्रेगस हिलोक्रिअस (Nilgiritragus hylocrius) है। वर्ष 2016 से इनकी संख्या में 132 की वृद्धि हुई थी। नीलगिरी तहर की संख्या में वृद्धि का कारण पर्यटकों की आवाजाही पर रोक, शिकार पर नियंत्रण ,आक्रामक प्रजातियों स्कोच ब्रूम और वाटल ट्री (Scotch broom & wattel tree) के प्रसार पर नियंत्रण एवं पर्याप्त भोजन की उपलब्धता है।
- वन्यजीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत इसे सुरक्षा प्राप्त है तथा इसे मारने या शिकार करने पर अपराध के तहत कठोरतम ज़ुर्माने का प्रावधान है।
एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2030, 2050 और 2080 के लिये क्रमशः 61.2%, 61.4% और 63% की अधिकतम आवास हानि की संभावना व्यक्त की गई है। इसकी आबादी में गिरावट के प्रमुख कारणों में इनका शिकार किया जाना, पशुधन चराई और वर्षों से आवास नुकसान तथा पशु-मानव संघर्ष आदि रहे हैं।
- अफ्रीकी प्रजाति के एकमात्र केप बफेलो (Cape Buffalo) की मृत्यु,दिल्ली के नेशनल जूलॉजिकल पार्क (National Zoological Park) में ।
- केप बफेलो अफ्रीकी प्रजाति के बड़े आकार के बफेलो होते हैं जो दक्षिण अफ्रीका में पाए जाते हैं।
- इस केप बफेलो (Cape Buffalo) की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसके पेट में एक प्लास्टिक का पैकेट मिला जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि इसकी मृत्यु प्लास्टिक खाने से ही हुई है।
- हालाँकि दिल्ली में प्लास्टिक का उपयोग पूर्णतः बैन है लेकिन व्यावहारिक स्तर पर यह संभव नहीं हो सका है। आगंतुक प्लास्टिक बैग के साथ चिड़ियाघर में स्वतंत्रतापूर्वक प्रवेश करते हैं और बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरा परिसर के अंदर फेक कर चले जाते हैं जिस पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
दिल्ली के चिड़ियाघर में दो केप बफेलो थे, जिनमें से एक की मृत्यु फरवरी 2017 में तपेदिक के कारण हो गई थी। अफ्रीकी बफेलो के बड़े झुंड दक्षिण अफ्रीका के क्रूगर नेशनल पार्क (Kruger National Park) में देखे जाते हैं। केप बफेलो शेरों और मनुष्यों को मारने के लिये जाने जाते हैं तथा उन्हें अक्सर ब्लैक डेथ्स (Black Deaths) के रूप में भी जाना जाता है।
स्टार कछुआ (Star Tortoise), स्मूथ कोटेड ओटर अथवा ऊदबिलाव (Smooth-coated Otter) और छोटे पंजे वाले ऊदबिलाव (Small-clawed Otter) की सुरक्षा स्थिति को बेहतर बनाने के भारत के प्रस्ताव को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों हेतु कन्वेंशन (CITES) द्वारा जिनेवा में आयोजित सम्मेलन ऑफ पार्टीज (COP18) में मंज़ूरी दे दी गई है। इन प्रजातियों को अब CITES के परिशिष्ट I के तहत सूचीबद्ध किया गया है और सुरक्षा का उच्चतम स्तर प्रदान किया गया है। इसके बाद इनकी संख्या को बढ़ाने के प्रयास के रूप में, इनके व्यापार पर पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाया जाएगा।
- स्टार कछुआ सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 के तहत जब्ती के अधीन है।
- भारतीय स्टार कछुए तीन व्यापक क्षेत्रों में पाए जाते हैं:-उत्तर-पश्चिम भारत (गुजरात, राजस्थान) और आसपास के दक्षिण-पूर्वी पाकिस्तान, तमिलनाडु के पूर्वी एवं दक्षिणी भाग, आंध्र प्रदेश तथा पूर्वी कर्नाटक से ओडिशा तथा संपूर्ण श्रीलंका|'विदेशों में पालतू जानवर' के रूप में उपयोग के लिये बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय मांग को पूरा करने के लिये इन प्रजातियों का अवैध व्यापार किया जाता है।
ऊदबिलाव एक अर्धजलीय स्तनधारी, मांसाहारी जानवर है। इसकी 13 ज्ञात जातियाँ हैं। ऑस्ट्रेलिया और अंटार्अकटिका के अलावा ऊदबिलाव शेष सभी महाद्वीपों पर पाए जाते हैं।
Coprolite कोप्रोलाइट (खुदी हुई गोबर)- वैज्ञानिकों ने अर्जेंटीना के एक प्रागैतिहासिक प्यूमा के कोप्रोलाइट में सबसे पुराने परजीवी के DNA (Deoxyribonucleic Acid) की खोज की है। ऐसे जानवरों के जीवाश्म मल (Fossilised Faeces) को कोप्रोलाइट्स (Coprolites) कहा जाता है जो लाखों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर पाए जाते थे। वैज्ञानिक कोप्रोलाइट्स के आकार और रूपरेखा का विश्लेषण तथा अध्ययन कर यह पता कर सकते हैं कि ये किस प्रकार के जानवर से उत्पन्न मल है और ये जानवर क्या खाते थे। उदाहरण के लिये, यदि मल में हड्डी के टुकड़े पाए जाते हैं, तो इससे यह स्पष्ट होता है कि जानवर मांसाहारी रहा होगा।
पीकॉक पैराशूट स्पाइडर(Peacock Parachute Spider) या गूटी टारनटुलावस (Gooty Tarantulawas) के रूप में पहचानी जाने वाली मकड़ी तमिलनाडु के विल्लुपुरम ज़िले के पक्कामलाई रिज़र्व फॉरेस्ट में पाई गई।यह Poecilotheria कुल से संबंधित है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) ने इसे गंभीर रूप से संकटग्रस्त के रूप में वर्गीकृत किया है। यह भारत की स्थानिक प्रजाति है। इस प्रजाति का ज्ञात निवास स्थान पूर्वी घाटों में है, विशेष रूप से आंध्र प्रदेश में नंद्याल के पास पवित्र वनों में। पैरों के नीचे के हिस्से पर बैंडिंग पैटर्न के आधार पर इस जीन की प्रजातियों की पहचान की जा सकती है। टारनटुला जैविक कीट नियंत्रक हैं और पालतू व्यापार में संग्रहकों के बीच इनकी भारी मांग रहती है। अतः इनकी सुरक्षा के संबंध में जल्द से जल्द उपाय किये जाने की आवश्यकता है।
एड्राटिक्लिट बोउल्फा(Adratiklit boulahfa) के अवशेषों की खोज उत्तरी अफ्रीका में की गई है।अब तक ज्ञात सबसे पुरानी स्टेगोसॉरस प्रजाति से संबंधित है। वैज्ञानिकों ने डायनासोर के एक उपसमूह स्टेगोसॉरस (Stegosaurus) की एक नई प्रजाति की खोज की है जिसकी कालावधि लगभग 168 मिलियन वर्ष पूर्व अनुमानित की गई है। अड्रास (पहाड़), टिक्लिट (छिपकली) और उस क्षेत्र में बर्बर (उत्तरी अफ्रीका का एक स्थानिक जातीय समूह) आदि के शब्दों के प्रयोग करते हुए इसका नाम एड्राटिक्लिट बोउल्फा रखा है।इसके अवशेषों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि इसकी सबसे निकटतम प्रजाति यूरोपीय स्टेगोसॉरस डैकेंटरस (European stegosaurus Dacentrurus) है। यह कवचधारी और शाकाहारी था जो प्राचीन गोंडवाना सुपरकॉन्टिनेंट पर रहता था। गोंडवाना सुपरकॉन्टिनेंट बाद में अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका में विभाजित हो गया। अब तक अधिकांश स्टेगोसॉरस उत्तरी गोलार्द्ध में पाए गए हैं।
पानी में चलने वाले कीड़ों की 7 नई प्रजातियाँ- ज़ूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों ने पानी में चलने वाले, अर्द्ध-जलीय कीटों की सात प्रजातियों की खोज की है जो पानी की सतह पर चल या दौड़ सकते हैं। नई वर्णित प्रजातियाँ जीनस मेसोवेलिया (Genus Mesovelia) से संबंधित हैं, जिनका आकार 1.5 मिमी से 4.5 मिमी तक होता है और वे अपने पैरों पर हाइड्रोफोबिक शूक (Hydrofobic Setea) से लैस होती हैं। हाइड्रोफोबिक शूक और पानी की सतह के तनाव का संयोजन उन्हें डूबने से बचाता है। इन कीड़ों के पंखों का रंग चांदी के सामान सफेद होता है तथा यह हरे और पीले रंग के होते हैं। नई खोजों के बीच, मेसोवेलिया अंडमाना (Mesovelia andamana) अंडमान द्वीप समूह से हैं, एम. बिस्पिनोसा और एम. इसियासी (M. bispinosaand M. isiasi) मेघालय से हैं, एम. एक्वुलेटा और एम. तेनुया (M. occulta and M. tenuia) तमिलनाडु से और एम. ब्रेविया और एम. दिलाताता (M. brevia and M. dilatata) दोनों मेघालय और तमिलनाडु के हैं। ये कीड़े लार्वाबोलस कीड़े होते हैं जो लार्वा चरण के बिना बड़े होते हैं, अर्थात, ये अंडे से बहार आने तक वयस्क हो जाते हैं। वे ताज़े पानी के पिंडों जैसे तालाबों, झीलों, पूलों, नदियों, चट्टानों के साथ और कभी-कभी एश्चुअरी पर पाए जाते हैं। ये कीड़े शिकारियों और मैला ढोने वालों के रूप में काम करते हैं। मेसोवेलिया की मादाएँ नर से बड़ी होती हैं और पौधों पर कई छेद करती हैं तथा पौधों के ऊतकों में एक विशेष रूप से अनुकूलित लंबे दाँतेदार ओवीपोसिटर के साथ अंडे देती हैं। देश में जीनस मेसोवेलिया की 12 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जबकि बड़े जल स्ट्राइडर (लिमोनोगोनस, कुंभ राशि, सिलिंड्रोस्टेथस, गेरिस, पाइलोमेरा) को पानी की सतह पर आसानी से देखा जाता है जबकि छोटे मेसोवेलिया उतने प्रसिद्ध नहीं हैं।
लाइम स्वॉलोटेल(Lime Swallowtail)भारत में पाए जाने वाली बड़ी तितलियों में से एक है, इसके पंखों का लगभग 80-100 मिमी. तक होता है।तितली जो कि स्वॉलोटेल (Swallowtails) समूह से संबंधित है, यह साइट्रस (Citrus) पौधों पर अपने अंडे देती है।इसलिए इसे प्रायः लाइम स्वॉलोटेल कहा जाता है। अधिकांश प्रजातियों में पश्च पंख होते हैं जिनमें एक कांटा दिखाई देता है। लाइम एक अपवाद है। इसके पंखों पर सफेद, काले, पीले, हरे और दो नारंगी-लाल के अनियमित धब्बे पाए जाते हैं। तितली एक मड-पुडलर है। मड-पुडलिंग तितलियों और कुछ अन्य कीटों द्वारा प्रदर्शित एक व्यवहार है, जहाँ वे नम मिट्टी और गोबर पर बैठते हैं और कुछ लवण और पोषक तत्त्वों को निकालने के लिये तरल पदार्थ चूसते हैं जो उनकी जीवन-प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये आमतौर पर कम ऊँचाई पर उड़ती हैं। मादा तितली एक पौधे से दूसरे पौधे तक जाती है और उन पर एक अंडा देती है। तत्पश्चात् लार्वा 5 चरणों में विकसित होता है: पहला, जब यह अंडे से निकलता है (रंग में काला) तथा दूसरे, तीसरे और चौथे चरण में यह अपनी त्वचा को बाहर निकालता है और अपने आकार को समायोजित करता है। इन चरणों में शरीर पर यूरिक एसिड जैसा दिखने वाला सफेद निशान गहरा होता है। जो बर्ड ड्रॉपिंग (पक्षियों की बीट) की तरह दिखता है तथा यह उनकी शिकारियों से बचने में मदद करता है। अंतिम चरण में, कैटरपिलर एक बेलनाकार आकार ग्रहण करता है तथा इसका रंग कुछ मात्रा में सफ़ेद होने के साथ पीला- हरा हो जाता है। अधिकांश स्वॉलोटेल कैटरपिलर में एक कांटे के समान अंग होता है, यह सिर के पीछे के हिस्से में होता है और इसे मेटेरियम कहा जाता है। जब इन्हें डराया जाता है, तो मेटेरियम बाहर निकलता है और ब्यूटिरिक एसिड की तीखी गंध छोड़ता है, यह मुख्य रूप से चींटियों, परजीवी ततैया, और मक्खियों से बचने के लिये कारगर है। इस तितली की व्यापक उपलब्धता विभिन्न परिस्थितियों के लिये इसकी सहिष्णुता और अनुकूलता को इंगित करती है जैसा कि हम उन्हें बगीचों, खेतों और कभी-कभी जंगलों में देख सकते हैं। सितंबर को बटरफ्लाई मंथ के रूप में मनाया जाता है।
बया वीवर बर्ड (Baya Weaver Bird) भारतीय उपमहाद्वीप एवं दक्षिण पूर्व एशिया में पाई जाती है।यह खासकर जंगलों और खेतों में निवास करती है। वर्तमान में कृषि पैटर्न में परिवर्तन तथा पर्यावरणीय ह्रास के कारण ये कम दिखाई पड़ते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम प्लोसस फिलिपिनस (Ploceus philippinus) है। यह एक सुंदर चिड़िया है जिसे बेहतरीन घोंसले बनाने के लिये जाना जाता है। घोंसला नर चिड़िया द्वारा बनाया जाता है। इनका घोंसला एक अच्छी कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना प्रदर्शित करता है। इनको बारिश का सटीक पूर्वानुमान लगा लेती है। बारिश का मौसम आने से पहले यह चिड़िया घोंसला बनाती है। ये खेतों के आसपास पेड़ों की डालियों पर घोंसला बुनती हैं। नर बया पीले और काले रंग की, जबकि मादा बया भूरे रंग की होती है। कुछ ऑरेंज रंग की भी होती हैं। इनका आकार 5 से 10 इंच के बीच होता है।
ग्लाइपोथोरैक्स गोपी (Glyptothorax gopii) तथा गर्रा सिम्बलबैरेन्सिस (Garra simbalbaraensis)ताजे पानी (Fresh Water) में पाई जाने वाली मछली इन दो नई प्रजातियों की खोज जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों ने की है।देश के उत्तर-पूर्वी और उत्तरी हिस्सों में पाई गई।
- ग्लाइपोथोरैक्स गोपी (Glyptothorax gopii) कैटफिश की एक नई प्रजाति मिज़ोरम की कलादान नदी में पाई गई, जबकि गर्रा सिम्बलबैरेन्सिस (Garra simbalbaraensis) हिमाचल प्रदेश की सिम्बलबारा नदी में पाई गई।
ग्लाइपोथोरैक्स गोपी की मानक लंबाई 63 मिमी. (दुम के बिना) है, इसकी पृष्ठीय सतह गहरे भूरे रंग की तथा उदर सतह पीले-हल्के भूरे रंग की होती है। गर्रा सिम्बलबैरेन्सिस की मानक लंबाई 69 मिमी. (दुम के बिना 69 मिमी.) है, यह पीले-हल्के भूरे रंग की होती है। दोनों मछलियाँ जिनकी माप सात सेंटीमीटर से भी कम होती हैं, वे पहाड़ी जलधाराओं अथवा तेजी से जल प्रवाह के अनुरूप विशेष रूप से अभ्यस्त हैं।
दिल्ली ड्रैगनफ्लाई उत्सव- 18 अगस्त, 2019 से वर्ल्ड वाइड फंड (WWF) और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री (BNHS) के सहयोग से दिल्ली तथा उसके पड़ोसी क्षेत्रों में एक महीने तक आयोजित किया गाय। यह उत्सव ड्रैगनफ्लाईज़ और डैम्सलफ्लाईज़ को समर्पित दूसरा ऐसा आयोजन है जिसका उद्देश्य इनकी जनगणना करना और इनके महत्त्व के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। ये कीट किसी क्षेत्र के पारिस्थितिक स्वास्थ्य के महत्त्वपूर्ण जैव-संकेतक के रूप में कार्य करते हैं। ड्रैगनफ्लाईज़ मच्छरों और अन्य कीड़ों को खाते हैं जो कि मलेरिया और डेंगू जैसी जानलेवा बीमारियों के वाहक हैं। इनकी पहली जनगणना पिछले साल की गई थी, जिसने NCR में इन कीड़ों की कुल 51 विभिन्न प्रजातियों का खुलासा किया था। ये मच्छरों की आबादी को कम करने के लिये सबसे अच्छे शिकारियों में से हैं। यह बड़ी संख्या में मच्छरों के लार्वा भी खाते हैं। ये दिल्ली के शहरी जंगल में मच्छरों की समस्या का समाधान हो सकते हैं। इस उत्सव में प्रतिभागियों को कई समूहों में विभाजित किया जाएगा और सर्वेक्षण के लिये दिल्ली-NCR में विभिन्न स्थानों का दौरा किया जाएगा। BNHS और WWF के विशेषज्ञ इस कार्य में उनका साथ देंगे और उन्हें कीड़ों और उनके आवास के बारे में प्रशिक्षित करेंगे। इस दौरान स्वयंसेवकों को कीड़ों के लिये कृत्रिम निवास स्थान बनाने के अलग-अलग तरीके सिखाए जाएंगे, जो उनके प्रजनन के लियेअनुकूल होंगे। ये प्रजातियाँ हमारे आसपास के वातावरण को स्वस्थ और स्वच्छ बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जबकि नागरिकों को उनके महत्त्व के बारे में बहुत कम जानकारी है।
जंगली भैंसे- इस वर्ष अक्तूबर में (मॉनसून के अंत तक) छतीसगढ़ राज्य के उदंती वन्यजीव अभयारण्य में असम से पाँच मादा जंगली भैंसों (Wild Buffaloes) को लाया जाना सुनिश्चित किया गया है। उदंती वन्यजीव अभयारण्य में पाँच राज्यों से गुजरते हुए असम के मानस नेशनल पार्क से लाई जाने वाली ये जंगली भैंसें लगभग 1,500 किमी. की दूरी तय करेंगी। पिछली जनगणना के अनुसार, उदंती वन्यजीव अभयारण्य (Udanti Wildlife Sanctuary) में केवल 10 जंगली भैंसे शेष पाई गईं, जिनमें से आठ नर तथा 2 मादा भैसें हैं। इतनी कम संख्या में जंगली भैंसों के पाए जाने का कारण उनके प्रजनन एवं वृद्धि में समस्या हो सकती है वन्यजीव वैज्ञानिकों के अनुसार, असम से आने वाली मादा जंगली भैंसें छत्तीसगढ़ में प्रजनन कर यहाँ के नर-मादा अनुपात को संतुलित कर सकती हैं। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु जंगली भैंसा है जो विलुप्त होने की कगार पर है। पूर्वोत्तर में जंगली भैंसों (Bubalus arnee) की अनुमानित आबादी लगभग 3,000-4,000 है, जो देश में सबसे ज़्यादा है, यह दुनिया भर के भैंसों की आबादी का 92% है। चरने वाले (Grazers) ये जीव न केवल पारिस्थितिक तंत्र को व्यवस्थित बनाए रखने में सहायता प्रदान करते हैं बल्कि इनका आर्थिक महत्त्व भी है| भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (Wildlife Trust of India- WTI) के अनुसार, इसे वाइल्ड लाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1972 की अनुसूची 1 के तहत सूचीबद्ध किया गया है तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) की रेड लिस्ट में विलुप्त हो रही (Endangered) प्रजातियों की सूची में शामिल किया गया है।
उदंती वन्यजीव अभयारण्यछत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर ज़िले में अवस्थित,इस अभयारण्य की स्थापना “वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972” के तहत वर्ष 1983 में की गई थी। यह अभयारण्य तकरीबन 232 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है। यह अभयारण्य जंगली भैंसों की बहुतायत के लिये प्रसिद्ध था ये भैंसें वर्तमान में विलुप्ति के कगार पर हैं। इस अभयारण्य में मानव निर्मित अनेक तालाब भी अवस्थित हैं।
विश्व हाथी दिवस दुनिया भर में हाथियों की रक्षा व सम्मान करने तथा उनके सामने आने वाले महत्त्वपूर्ण खतरों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिये प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को विश्व हाथी दिवस (World Elephant Day) मनाया जाता है।
इस दिवस को मनाने का प्रमुख उद्देश्य हाथियों का संरक्षण करना, जंगली हाथियों की संख्या, उनकी स्थिति एवं प्रबंधन के बारे में जानकारी मुहैया कराना है। हाथियों का अवैध शिकार, आवास की हानि, मानव-हाथी संघर्ष तथा कैद में रखकर उनके साथ दुर्व्यवहार अफ्रीकी और एशियाई दोनों देशों में हाथियों के लिये सामान्य खतरों के तहत आते हैं। हाथियों के संदर्भ में एशियाई हाथी की तीन उप-प्रजातियाँ हैं: भारतीय, सुमात्रन तथा श्रीलंकन। IUCN के रेड लिस्ट में अफ्रीकी हाथियों को सुभेद्य (vulnerable) तथा एशियाई हाथियों को संकटापन्न (Endangered) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। भारत में हाथी को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 (Wildlife (Protection) Act, 1972) की अनुसूची I में शामिल करते हुए भारतीय वन्यजीव कानून के तहत उच्चतम संभव संरक्षण प्रदान किया गया है। भारत सरकार ने हाथियों के संरक्षण के लिये कई पहलें शुरू की हैं।
टारडिग्रेड्स-हाल ही में इस बात की संभावना व्यक्त की गई है कि अप्रैल 2019 में चंद्रमा की सतह पर इजराइल के अंतरिक्षयान के क्रैश होने के बाद टारडिग्रेड्स नामक सूक्ष्म जीव (पृथ्वी पर पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव) चंद्रमा पर अब भी जीवित अवस्था में हो सकते हैं। इजराइल द्वारा बेरेशीट प्रोब के दौरान यह अंतरिक्षयान क्रैश हुआ था। बेरेशीट प्रोब इज़राइल की गैर-लाभकारी संस्था SpaceIL निजी मिशन है जिसे फरवरी 2019 में, फाल्कन 9 राकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। टार्डिग्रेड्स आर्कटिक से अंटार्कटिक तक स्थलीय, समुद्री और मीठे पानी के वातावरण में पाए जाते हैं, जिसमें व्यापक गहराई और ऊँचाई भी शामिल हैं। ये जीवाणु अत्यधिक विकिरण, गर्मी तथा ब्रह्मांड के सबसे कम तापमान को भी झेल सकते हैं और भोजन के बिना भी दशकों तक जीवित रह सकते हैं। ये सूक्ष्मजीव वाटर बीयर या मोस पिग्लेट्स के नाम से भी जाने जाते हैं तथा 150 डिग्री सेल्सियस के गर्म तापमान से -272 डिग्री सेल्सियस तक के कम तापमान में जीवित रह सकते हैं।
हेराक्लेस इनएक्सपेक्टेटस(Heracles inexpectatus)-जीवाश्म वैज्ञानिकों (Palaeontologists) की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने न्यूज़ीलैंड में एक विशालकाय तोते (जिसकी ऊँचाई मानव की सामान्य ऊँचाई की लगभग आधी थी) के अवशेष प्राप्त किये हैं।
ये तोते संभवतः 19 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी पर पाए जाते थे।
वैज्ञानिकों ने पक्षी के पैर की हड्डियों के आकार को देखते हुए इसकी लंबाई लगभग एक मीटर तथा वज़न सात किलोग्राम तक होने का अनुमान लगाया है।
हालाँकि इसकी हड्डियों के अवशेष वर्ष 2008 में प्राप्त हुए थे लेकिन उस समय इसके बारे में कुछ भी निश्चित नहीं किया जा सका था।
आकार, शक्ति एवं खोज की अप्रत्याशित प्रकृति के कारण इस तोते को हेराक्लेस इनएक्सपेक्टेटस (Heracles inexpectatus) नाम दिया गया है।
वैज्ञानिकों ने इसका आकार डोडो पक्षी के समान होने की संभावना व्यक्त की है।
क्राइसोमालोन स्क्वैमिफेरम-हिंद महासागर में केवल तीन स्थानों पर पाया जाने वाला एक दुर्लभ घोंघा (Snail) क्राइसोमालोन स्क्वैमिफेरम (Chrysomallon Squamiferum) गहन समुद्री खनन के कारण संकट में हैं। यह स्नेल मैडागास्कर के पूर्व में हिंद महासागर में तीन हाइड्रोथर्मल वेंट्स (Hydrothermal Vents) में पाया जाता है। इसे IUCN द्वारा 18 जुलाई, 2019 को लुप्तप्राय प्रजाति की अद्यतन रेड लिस्ट में शामिल किया गया था, जो गहरे समुद्र में खनन के कारण आधिकारिक रूप से संकटग्रस्त घोषित होने वाली पहली प्रजाति बन गया है। हालाँकि वर्तमान में सभी वैश्विक महासागरों में गहन खनन गतिविधियों पर रोक है, फिर भी संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरनेशनल सी-बेड अथॉरिटी वर्तमान में समुद्र-तल खनन का संचालन करने के लिये दिशा-निर्देश तैयार कर रही है, जिसे वर्ष 2020 तक पूरा किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि हाइड्रोथर्मल वेंट्स के कारण लगभग 14 प्रजातियों को रेड लिस्ट में शामिल किये जाने की संभावना है।
दो सिर वाला कछुआ
हाल ही में मलेशिया में एक आकर्षक दो सिर वाला कछुए का बच्चा पाया गया था लेकिन कुछ दिनों बाद ही इसकी मृत्यु हो गई। यह कछुआ मबूल द्वीप (Mabul Island) पर, ग्रीन टर्टल्स (Green Turtles) के एक घोंसले में पाया गया था। कुछ विसंगतियों के साथ भी यह चलने-फिरने और तैरने के क्रम में अपनी गतिविधियों को समन्वित करने में सक्षम था लेकिन लंबे समय तक इसके जीवन के आसार कम थे। पर्यावरणविदों/अध्ययनकर्त्ताओं ने इसे एक दुर्लभ घटना बताया है। हालाँकि इस तरह के दुर्लभ कछुए के जन्म की यह घटना पहली बार नहीं थी इससे पहले वर्ष 2014 में मलेशिया के पूर्वी तट के एक द्वीप पर ऐसा ही एक कछुआ पाया गया था जो तीन महीने तक जीवित रहा।
लॉगरहेड कछुए (Loggerhead Turtles)- हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार, केप वर्डे (Cape Verde) के एक प्रमुख प्रजनन क्षेत्र में पैदा होने वाले लॉगरहेड कछुओं (Loggerhead turtles) की नई पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के कारण संभवतः मादा ही होगी। केप वर्डे मध्य अटलांटिक महासागर में स्थित एक द्वीपीय देश है। कछुओं के लिंग का निर्धारण इन्क्यूबेशन (Incubation) के तापमान के आधार पर किया जाता है और गर्म तापमान मादा कछुओं के अनुकूल होता है। यदि उच्च कार्बन उत्सर्जन जारी रहता है तो 90% से अधिक नर कछुओं पर इसका घातक प्रभाव पड़ सकता है। वर्तमान उत्सर्जन परिदृश्य के तहत वर्ष 2100 तक लगभग 99.86% कछुओं के बच्चे मादा होंगे। वर्तमान में केप वर्डे में 84% बच्चे मादा हैं। केप वर्डे लॉगरहेड कछुओं का तीसरा सबसे बड़ा केंद्र है। द इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर ने लॉगरहेड कछुओं को अतिसंवेदनशील श्रेणी में रखा है। लॉगरहेड समुद्री कछुओं को उनके बड़े सिर के कारण यह नाम दिया गया है। लॉगरहेड्स कछुए भूमध्यसागर में सबसे ज़्यादा पाए जाते हैं, इनके घोंसले ग्रीस और तुर्की से लेकर इज़राइल एवं लीबिया के समुद्र तटों पर पाए जाते हैं। समुद्री कछुए न केवल सरीसृपों के एक समूह के प्रतिनिधि हैं, बल्कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों में एक मूल कड़ी के रूप में भी उपस्थित है। यह प्रवाल भित्तियों और समुद्री शैवाल को संरक्षित रखने में भी मदद करते हैं।
सारस क्रेन- उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में सारस क्रेन (Grus Antigone) की आबादी में पिछले पाँच वर्षों में कोई वृद्धि नहीं हुई है। प्रभागीय वन विभाग द्वारा आयोजित वार्षिक जनगणना के अनुसार, गाज़ियाबाद ज़िले के मुरादनगर में केवल एक जोड़ी सारस क्रेन पाए गए जिसे लगातार पाँच वर्षों से देखा जा रहा है। सारस दुनिया का सबसे लंबा उड़ने वाला पक्षी है। वर्ष 2014 में इसे उत्तर प्रदेश का आधिकारिक राज्य पक्षी घोषित किया गया था। सारस क्रेन आमतौर पर आर्द्रभूमि जैसे दलदली स्थानों में निवास करते हैं। एक कृषि क्षेत्र में सिर्फ एक जोड़ी सारस देखे जाते हैं जो अनुसंधान का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। यह वाइल्डलाइफ (संरक्षण) अधिनियम, 1972 [Wildlife (Protection) Act, 1972] की अनुसूची IV के तहत तथा IUCN रेड लिस्ट में भेद्य (Vulnerable) के रूप में भी सूचीबद्ध है। हाल की एक जनगणना के दौरान उत्तर प्रदेश के हापुड़ ज़िले में 30 वयस्क सारस क्रेन तथा इनके 16 चूजों की उपस्थिति की सूचना मिली। गौतम बुद्ध नगर में जून में एक जनगणना में पाँच वन रेंज और आर्द्रभूमि पर कुल 140 सारस क्रेन की संख्या दर्ज की गई थी। हालाँकि गाज़ियाबाद से सटे अन्य क्षेत्रों में बहुत से सारस देखे गए, लेकिन गाज़ियाबाद में लगातार पाँच वर्षों से सिर्फ एक जोड़ी सारस का देखा जाना चिंता का विषय है।
ग्रीन सी टर्टल (चेलोनिया मायदस)
Green Sea Turtle (Chelonia mydas) हरे रंग के इस समुद्री कछुए को ग्रीन सी टर्टल/ब्लैक सी टर्टल (Black Sea Turtle) या पैसिफिक ग्रीन टर्टल (Pacific Green Turtle) भी कहते हैं यह चेलोनीडी (Cheloniidae) कुल की बड़े समुद्री कछुए की एक प्रजाति है। यह वंश चेलोनिया (Chelonia) की एकमात्र प्रजाति है
कॉमन लाइनब्लू एवं डार्क सेरुलियन (Common Lineblue and Dark Cerulean)- वर्ष 2018 में दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं द्वारा तितली की दो दुर्लभ प्रजातियों कॉमन लाइनब्लू (Common Lineblue) एवं डार्क सेरुलियन (Dark Cerulean) को लगभग आधी शताब्दी के अंतराल के बाद देखा गया। कॉमन लाइनब्लू को वर्ष 1962 में दिल्ली में अंतिम बार देखा गया था, जबकि डार्क सेरुलियन को 90 के दशक के अंत में देखा गया था। दोनों तितलियाँ आमतौर पर हिमालय की तलहटी में पाई जाती हैं। लेपिडोपेट्रोलॉजिस्ट (Lepidopterologist) के अनुसार, दिल्ली में तितलियों की दो दुर्लभ प्रजातियों का पुनः देखा जाना इस क्षेत्र की पर्यावरणीय विविधता का संकेतक है। लेपिडोपेट्रोलॉजी (Lepidopterology) कीट-विज्ञान की एक शाखा है, जो पतंगों (Moths) के वैज्ञानिक अध्ययन तथा तितलियों की तीन सुपरफैमिली से संबंधित है। इस क्षेत्र में अध्ययन करने वाले को लेपिडोपेट्रोलॉजिस्ट कहा जाता है।
‘जमील’डुगोंग के अनाथ बच्चे (Baby Dugong)। दक्षिणी थाई समुद्र तट पर फँसे इस जीव का नामकरण थाईलैंड के राजकुमारी सिरिवनवरी द्वारा किया गया।यवी भाषा के इस शब्द का अर्थ है ‘समुद्र का सुंदर राजकुमार’ (Handsome Sea Prince)।डुगोंग को समुद्री गाय के नाम से भी जाना जाता है। दक्षिणी थाईलैंड का जल लगभग 250 स्तनधारियों के लिये असुरक्षित (Vulnerable) है।कुछ समय पहले एक अन्य बेबी डुगोंग ‘मरियम’ इसी बीच/तट पर पाया गया था। जमील को अब फुकेत समुद्री जैविक केंद्र (Phuket Marine Biological Centre) में एक पूल में रखा गया है।
बिहार के किशनगंज ज़िले में गंगा की सहायक महानंदा नदी में पहली बार लुप्तप्राय गंगा नदी डॉल्फ़िन पाई गई है। तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के विक्रमशिला जैव विविधता अनुसंधान और शिक्षा केंद्र (VBREC) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने सर्वेक्षण के दौरान 14 गंगा नदी डॉल्फ़िन पाए। अलग-अलग स्थानों पर सामान्यतः इसे गंगा नदी डॉल्फ़िन, ब्लाइंड डॉल्फ़िन, गंगा ससु, हिहु, साइड-स्विमिंग डॉल्फिन, दक्षिण एशियाई नदी डॉल्फिन आदि नामों से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम प्लैटनिस्टा गैंगेटिका (Platanista gangetica) है। यह CITES के परिशिष्ट 1 में सूचीबद्ध है। तथा IUCN की लुप्तप्राय (Endangered) सूची में शामिल है।
सफेद गले वाली गौरेया (White-throated Rail) उड़ने में अक्षम पक्षी प्रजाति है जिसे अल्दाब्रा गौरेया (Aldabra Rail) भी कहा जाता है। यह अल्दाब्रा में पाई जाती है जबकि एज़म्पशन द्वीप में पाई जाने वाली एज़म्पशन गौरेया (Assumption Rail) अत्यधिक शिकार के कारण 20वीं शताब्दी की शुरुआत में विलुप्त हो गई। यह ड्रायोलिमनस वंश (Genus Dryolimnas) का अंतिम जीवित सदस्य है और माना जाता है कि यह हिंद महासागर में उड़ने में अक्षम पक्षी (Flightless Bird) की अंतिम प्रजाति है। इसे IUCN रेड लिस्ट में कम चिंतनीय (Least Concerned) का दर्जा प्राप्त है। यह पाया गया है कि विलुप्त होने के बाद ‘पुनरावर्ती विकास’ (Iterative Evolution) नामक एक प्रक्रिया के माध्यम से सफेद गले वाली गौरेया वापस प्रकृति में लौट आई है। इसे पहली बार गौरेया में ही देखा गया है। पुनरावर्ती विकास का अर्थ है-एक ही पूर्वज से अलग-अलग समय पर समान या समानातंर संरचनाओं का पुन: विकास।
गोवा में ‘कुदक्रमिया वंश’ की ततैया की एक नई प्रजाति की पहचान की है।इसको कुदक्रमिया रंगनेकरी (Kudakrumia Rangnekari) नाम दिया गया है। इसका नामकरण गोवा के एक शोधकर्त्ता पराग रंगनेकर (Parag Rangnekar) की स्मृति में किया गया है। भारत में इस ततैया की प्रजातियाँ गोवा और केरल में पाई जाती है, देश के बाहर यह पड़ोसी देश श्रीलंका में भी पाई जाती है।
तमिल योमनतमिलनाडु ने योमन (Yeamon) तितली को राजकीय तितली (State Butterfly) घोषित किया है। पश्चिमी घाट के इस स्थानिक प्रजाति का वैज्ञानिक नाम Cirrochroa thais है। गहरे नारंगी तथा भूरे रंग वाली योमन तितली पश्चिमी घाट में पाए जाने वाले 32 तितली प्रजातियों में से एक है। कुछ स्थानों विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाने वाली यह तितली बड़ी संख्या में समूहों में देखी जाती है। इसे तमिल मारवन (Tamil Maravan) के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है योद्धा। ये तितलियाँ पर्यावरण के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये परागण और खाद्य श्रृंखला में मुख्य भूमिका निभाती हैं। साथ ही ये तितलियाँ कई अन्य वर्गों जैसे- पक्षियों एवं सरीसृपों का शिकार भी बनती हैं। तमिलनाडु राज्य तितली की घोषणा करने वाला देश का पाँचवां राज्य है, जबकि महाराष्ट्र देश का पहला राज्य है जिसने राजकीय तितली (ब्लू मोरमोन) की घोषणा की। उत्तराखंड में कॉमन पीकॉक (Common Peacock), कर्नाटक में दक्षिणी बर्डविंग (Southern Bird Wings) तथा केरल में मालाबार बैंडेड पीकॉक (Malabar Banded Peacock) को राजकीय तितली का दर्ज़ा प्राप्त है।
‘इम्प्रेस्ड कछुआ’(Impressed Tortoise)अरुणाचल प्रदेश में लोअर सुबनसिरी ज़िले के याजाली इलाके में खोज की गई। इसका वैज्ञानिक नाम मनौरिया इम्प्रेस्सा है तथा इसकी वंश/जीनस (Genus) ‘मनौरिया’ है। नर इम्प्रेस्सा कछुआ मादा की तुलना में छोटा होता है। मनौरिया इम्प्रेस्सा दक्षिण-पूर्व एशिया में वनों में निवास करने वाले कछुओं की अब तक ज्ञात चार प्रजातियों में से एक है। मनौरिया जीनस के तहत कछुओं की केवल दो प्रजातियाँ हैं जिसमें भारत में केवल एक एशियाई वन कछुआ मनौरिया ईमेस (Manouria emys) ही पाया जाता है। इससे पहले ऐसा माना जाता था कि यह कछुआ पश्चिमी म्याँमार तक सीमित है, लेकिन यह थाईलैंड, लाओस, वियतनाम, कंबोडिया और दक्षिणी चीन तथा प्रायद्वीपीय मलेशिया के क्षेत्रों में भी पाया जाता है। पारंपरिक चिकित्सा एवं व्यापार हेतु अवैध शिकार किये जाने के कारण कछुए की यह प्रजाति खतरे में है। इसी वज़ह से यह CITES परिशिष्ट II के अंतर्गत सूचीबद्ध है, तथा IUCN के रेड लिस्ट में भेद्य (Vulnerable) सूची के अंतर्गत शामिल है।
जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन, ICC (Internatioanl Conservation Charity) और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के भारतीय वैज्ञानिकों ने अरूणाचल प्रदेश की दिबांग घाटी में सुनहरी बिली के 6-रंगों की खोज की है। उल्लेखनीय है कि यह दिल्ली उत्तर-पूर्वी भारत, इंडोनेशिया तथा पूर्वी नेपाल में पाई जाती है। इसे IUCN की रेड लिस्ट में निक्ट संकटग्रस्त (Near Threatned) श्रेणी में रखा गया है।
सेक्रेड लंगूर,हिमाचल प्रदेश के चंबा ज़िले मेंलगभग 91 साल बाद विश्व भर में विलुप्त हो चुकी लंगूर के इस प्रजाति को यहां देखा गाय।
इससे पहले वर्ष 1928 में चंबा ज़िले में यह लंगूर देखा गया था वर्ष 1928- 2012 तक इससे संबंधित कोई जानकारी नही मिली थी।
चंबा सेक्रेड लंगूर (चंबा पवित्र लंगूर) भी कहा जाता है।
यह प्रजाति लंगूर की सात प्रजातियों में सबसे भिन्न है।इन लंगूरों के कश्मीर और पाकिस्तान की घाटी में भी पाए जाने की संभावना है।
ये लंगूर फल, बीज, फूल, जड़ें, छाल और कलियां खाते हैं।
यह प्रजाति विश्व में मात्र चंबा में ही पाई जाती है। इसलिए इस प्रजाति के संरक्षण को लेकर प्रभावी कदम उठाए जाने की योजना है।
‘सभी जानवर इच्छा से पलायन नहीं करते’ जागरूकता अभियान,संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण भारत और भारत के वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो (Wildlife Crime Control Bureau- WCCB) द्वारा शुरू किया गया। यह अभियान देश भर के प्रमुख हवाई अड्डों पर संचालित किया जाएगा।यह अभियान संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण के एक वैश्विक अभियान,‘जीवन के लिये जंगल’के ज़रिये वन्य जीवों के गैर-कानूनी व्यापार पर रोक लगाने हेतु विश्वव्यापी कार्रवाई का पूरक है।अभियान के पहले चरण के अंतर्गत बाघ, पैंगोलिन, स्टार कछुआ और टाउकेई छिपकली को चुना गया है, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में अवैध व्यापार के कारण इनका अस्तित्व खतरे में है।
पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER) की टीम ने पिट वाइपर साँप की लाल-भूरे रंग की एक नई प्रजाति खोजी है जिसमें गर्मी को महसूस करने की अनूठी क्षमता है। यह पिछले 70 साल में मिली पहली ऐसी प्रजाति है। इस प्रजाति का नाम इसकी खोज की जगह अरुणाचल प्रदेश के नाम पर Trimeresurus Arunachalensis रखा गया है। अरुणाचल प्रदेश के ईगलनेस्ट क्षेत्र में जैवविविधता सर्वेक्षण के दौरान साँप की इस प्रजाति का पता चला। साँप के DNA अनुक्रमों के तुलनात्मक विश्लेषण और रूपात्मक विशेषताओं की जाँच से पता चला कि साँप की ऐसी प्रजाति वर्णन पहले नहीं मिलता।
पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा देश में पाए जाने वाले सभी गैंडों का डीएनए प्रोफाइल बनाने हेतु एक परियोजना की शुरुआत की गई।यह परियोजना वर्तमान में चल रहे ‘राइनो कंज़र्वेशन प्रोग्राम’ का ही एक हिस्सा है। इस परियोजना की समय-सीमा वर्ष 2021 है।
डेटाबेस तैयार हो जाने के बाद मारे गए या शिकार किये गए गैंडों की पहचान करने में आसानी होगी।
गैंडों की तीन प्रजातियों में से केवल एक (भारतीय गैंडा) देश में पाई जाती है।
भारत में गैंडों की संख्या लगभग 2,600 है, इनमें से 90% से ज़्यादा गैंडे असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाते हैं।
भारत में गैंडों की अच्छी खासी आबादी थी जो लगभग पूरे देश में पाई जाती थी। किंतु अवैध शिकार की वज़ह से 20वीं सदी के अंत तक इनकी आबादी महज 200 की संख्या पर सिमट गई थी।
सफेद गले वाली रेल (White-Throated Rail) या कुवियर की रेल, रैलिडी (Rallidae) परिवार की एक पक्षी प्रजाति है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘Dryolimnas Cuvieri’ है। यह पक्षी प्रजाति कोमोरोस, मेडागास्कर, मायोटी और सेशेल्स में पाई जाती है।उड़ने में अक्षम उप-प्रजाति एल्डेब्रा (Aldabra) रेल (एल्डेब्रा में पाई जाने वाली) और अज़म्पशन (Assumption) की अज़म्पशन रेल 20वीं शताब्दी की शुरुआत में इनके अत्यधिक शिकार किये जाने के कारण विलुप्त हो गई।
यह जीनस ड्रायोलिमनस (Genus Dryolimnas) का अंतिम जीवित सदस्य है और माना जाता है कि यह हिंद महासागर में अंतिम उड़ने में अक्षम पक्षी (Flightless Bird) है।
इसके प्राकृतिक आवास उपोष्णकटिबंधीय या उष्णकटिबंधीय नम भूमि वन और उपोष्णकटिबंधीय या उष्णकटिबंधीय मैंग्रोव वन हैं।
यह IUCN की रेड लिस्ट में कम चिंतनीय का दर्जा प्राप्त है।
अरुणाचल पिट वाइपर
उभयचरों पर अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों (Herpetologists) ने अरुणाचल प्रदेश के कामेंग ज़िले के जंगल से लाल-भूरे रंग के पिट वाइपर की एक अद्वितीय और नई प्रजाति की खोज की है। जो गर्मी के प्रति संवेदनशील है।
पिट वाइपर की यह नई प्रजाति, ट्राइमेरासुरस अरुणाचलेंसिस (Trimeresurus Arunachalensis) है। यह भारत के सभी ज्ञात पिट वाइपरों से भिन्न है।
यह पिट वाइपर की ऐसी पहली प्रजाति है जिसका नाम राज्य के नाम पर रखा गया है।
यह दुनिया के सभी ज्ञात पिट वाइपरों में सबसे दुर्लभ है।
भारत में अन्य ज्ञात पिट वाइपर इस प्रकार हैं-
मालाबार पिट वाइपर (Trimeresurus malabaricus)
हॉर्सशू पिट वाइपर (Trimeresurus strigatus Gray)
हम्प-नोज्ड पिट वाइपर (Hypnale hypnale Merrem)
हिमालयन पिट वाइपर (Protobothrops himalayanus)
पर्पल फ्रॉग (Nasikabatrachus sahyadrensis), लगभग पूरी जिंदगी भूमिगत सुरंगों में रहता है, एक वर्ष में एक ही दिन के लिये सतह पर निकलता है और अंडे देने के बाद पुनः पृथ्वी की सबसे गहरी परतों में लौट जाता है।इसे जल्द ही केरल के राज्य उभयचर के रूप में नामित किया जा सकता है।
इसे इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) की लाल सूची में लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
जाँघिल या जांघिल (Painted stork) पक्षियों के स्टॉर्क परिवार की एक प्रजाति है।
छिछले पानी का यह पक्षी भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया में पाया जाता है।
यह पक्षी नवंबर-दिसंबर में दक्षिण-पूर्व एशिया से भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवास करता है।
जल की कमी और छोटी मछलियों की संख्या में गिरावट की वज़ह से इस पक्षी की आबादी लगातार कम हो रही है।
कंबोडिया ने 20 सदर्न रिवर टेरापिन (कछुओं की एक प्रजाति), रॉयल टर्टल (Royal Turtles) को नदियों में छोड़ा है।
सदर्न रिवर टेरापिन कंबोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड में पाए जाते हैं।
इसे IUCN लाल सूची में गंभीर रूप से विलुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
ओडिशा के कलाम द्वीप में हाल ही में लगभग एक लाख से अधिक छोटे-छोटे ओलिव रिडले कछुए अंडों से निकलकर बंगाल की खाड़ी में समुद्र में अपने ठिकानों की ओर रवाना हो गए। यह प्रक्रिया अभी जारी रहेगी. क्योंकि इस साल लगभग साढ़े चार लाख से ज़्यादा ओलिव रिडले कछुए हज़ारों मील दूर प्रशांत महासागर से गहिरमाथा मरीन सैंक्चुअरी में अंडे देने पहुँचे थे। इनकी सुरक्षा के लिये गहिरमाथा व ऋषिकुल्या क्षेत्रों में मछुआरों तथा पर्यटकों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया है।बंगाल की खाड़ी में ओडिशा के तट कछुओं के लिये अंडे देने की सबसे बेहतर जगह माने जाते हैं। ये कछुए गंजाम जिले के ऋषिकुल्या नदी, केंद्रपाडा जिले में गहिरमाथा नदी और पुरी ज़िले के देवी नदी में प्रजनन करने आते हैं। [४]विलुप्ति की कगार पर खड़े इन कछुओं के संरक्षण और अंडे देने तथा प्रजनन की प्रक्रिया के दौरान उन्हें नुकसान से बचाने के लिये सरकार इन क्षेत्रों में 20 किमी. के दायरे में मछली पकड़ने पर 1 नवंबर से 31 मई तक प्रतिबंध लगा चुकी है।
IUCN-Vulnerable(सुभेद्य)[५]
काकापो तोता (Strigops Habroptila)
न्यूजीलैंड के संरक्षण विभाग (DOC) के अनुसार, काकापो (Kakapo) जो कि तोता (Parrot) की दुनिया की सबसे भारी प्रजाति है, के प्रजनन का यह वर्ष सबसे सफल सीज़न रहा है।
शोधकर्त्ताओं के अनुसार, इस तोता के प्रजनन पैटर्न में बदलाव के लिये जलवायु परिवर्तन ज़िम्मेदार हो सकता है।
काकापो तोता (माओरी में ‘रात का तोता’), जिसे उल्लू तोता (Owl Parrot) भी कहा जाता है, न्यूजीलैंड में पाया जाने वाला रात्रिचर (Nocturnal) तथा उड़ने में असमर्थ होता है।
काकापोस, जिनकी वर्तमान में कुल संख्या 147 है जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered) होने के कगार पर हैं।
इसे IUCN की लाल सूची के परिशिष्ट 1 में ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ की श्रेणी में रखा गया है।
अलेक्जेंड्रिन पैराकेट्स-(IUCN) की रेड लिस्ट में ‘निकट संकटग्रस्त’ (Near Threatened) की श्रेणी में
राजस्थान के झालावाड़ जिला प्रशासन ने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिये इसको मतदाता जागरूकता कार्यक्रम का शुभंकर बनाया है।
अलेक्जेंड्रिन पैराकेट्स तोते की एक प्रजाति है जो मानव भाषाओँ की हुबहू नकल कर सकता है।
ये अंडे देने के लिये पेड़ों की सबसे ऊँची डालियों पर घोंसला बनाते हैं।
मानव भाषाओं की हुबहू नकल उतारने के कारण इनकी मांग उच्च रहती है एवं इनका अवैध व्यापार भी होता है।
हाल ही में पंजाब के तीन व्यक्तियों को जामा मस्जिद, शास्त्री पार्क और राजधानी के अन्य क्षेत्रों में 150 से अधिक अलेक्जेंड्रिन पैराकेट्स को बेचने की कोशिश करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।
यह वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची 1 (B) के तहत संरक्षित है। यह दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया का मूल निवासी है।
हैब्रोसेस्टेम लॉन्गिस्पिनम’- कोच्चि के सेक्रेड हार्ट कॉलेज के जंतु वैज्ञानिकों द्वारा एर्नाकुलम के इलिथोडु जंगलों में पहली बार कूदने वाली मकड़ियों के एक समूह को देखा गया। मकड़ी की यह प्रजाति मुख्यतः यूरेशिया और अफ्रीका में पाई जाती है और ‘हैब्रोसेस्टेम जीनस’ (Habrocestum) से जुड़ी एक नई प्रजाति है।[६] टीम को अलग-अलग दिखने वाली कई मकड़ियाँ मिली जिनमें से छह सफेद और क्रीमी-पीले पैच के साथ लाल-भूरे रंग एवं काले रंग की थी। अध्ययन में यूरोपीय हैब्रोस्टेम मकड़ियों के साथ तुलना करने पर पता चला है कि इलिथोडु में पाई गई मकड़ियाँ पूरी तरह से एक नई प्रजाति है क्योंकि उनके पास अलग-अलग प्रजनन अंग हैं। मकड़ियों के पहले दोनों पैरों के नीचे एक लंबी रीढ़ होती है और इसलिये इसका वैज्ञानिक नाम ‘हैब्रोसेस्टेम लॉन्गिस्पिनम’ (Habrocestum longispinum ) रखा गया है।
एशियाई जंगली कुत्ते या ढोल जो कि शिकारी जानवर हैं, भारत के जंगलों से विलुप्त होने के कगार पर IUCN ने ढोल (जिसे एशियाटिक वाइल्ड डॉग, इंडियन वाइल्ड डॉग तथा रेड डॉग भी कहा जाता है) को लुप्तप्राय श्रेणी (EN) में सूचीबद्ध किया है।ये वनों में अपने शिकार की आबादी को संतुलित करते हैं तथा एक स्वस्थ वन पारिस्थितिकी तंत्र हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आवास हानि,शिकार का अभाव,घरेलू कुत्तों से बीमारी का संचरण और अन्य प्रजातियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा इनकी संख्या के कम होने का मुख्य कारण है।
ढोल के पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में वैज्ञानिकों को अधिक जानकारी नहीं है, इसलिये इनका संरक्षण किया जाना कठिन है|
बंगलूरू स्थित सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज (CWS) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार पश्चिमी घाटों के सर्वेक्षण में 37,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इनके विलुप्त होने का खतरा है।
संरक्षित वन के कारण पश्चिमी घाटों और मध्य भारतीय जंगलों में ढोल की अपेक्षाकृत अधिक संख्या पाई जाती है, जबकि पूर्वी घाट, पूर्वोत्तर राज्यों, उत्तरी भारत, सिक्किम, लद्दाख इत्यादि में ढोल बहुत कम संख्या में पाए जाते हैं।
ढोल एक जंगली मांसाहारी जानवर है जो मुख्य रूप से दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में वन क्षेत्रों में निवास करता है। वैश्विक स्तर पर लगभग 82% ढोल अपने निवास क्षेत्र से गायब हो गए हैं।
एस्ट्रोबाट्राचस कुरिचियान-केरल के वायनाड में पाया गया
- “starry dwarf frog”
2 सेमी लंबे तथा विभिन्न रंगों वाले मेंढक की इस नई प्रजाति की खोज को एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
- जून 2010 में पहली बार इस मेंढक को केरल के वायनाड में पत्तियों के नीचे पाया गया था।
- मार्च में देश और विदेश के वैज्ञानिकों की एक टीम ने जीवों के शारीरिक संरचना, कंकाल और आनुवंशिक विशेषताओं का अध्ययन किया।
- उन्होंने दुनिया भर के संग्रहालय में संग्रहित समान प्रजातियों के मेंढकों के नमूनों की आपस में तुलना की।
- इस अध्ययन के अनुसार केरल के वायनाड में पाए जाने वाले मेढकों का आकार अन्य समान आकार के मेंढकों से पूरी तरह से अलग पाया गया।इसके सबसे करीबी परिवार पश्चिमी घाट में पाए जाने वाले Nycibatrachinae (नायसीबत्ट्राचिने) समूह तथा श्रीलंका में पाए जाने वाले लंकानेक्टिने समूह के मेंढक हैं।[७]
- यह विविध रंगों एवं आकार वाला यह छोटा मेंढक एस्ट्रोबाट्राचस वंश का है तथा इसे वहाँ पाए जाने वाले कुरिचियाना जनजातियों द्वारा कुरिचियाना नाम दिया गया था।
- आनुवंशिक विश्लेषण से पता चलता है कि यह प्रजाति कम-से-कम 60 मिलियन वर्ष पूर्व विकसित हुई हैं।[८]
- यह मेंढक एक नई प्रजाति के साथ ही नए परिवार से भी संबंधित है।
- कुरिचिया जनजातिमलाई ब्राह्मण (Malai Brahmins) या पहाड़ी ब्राह्मण (Hill Brahmins)के नाम से मसहूर,इस समूदाय के लोग मातृसत्तात्मक पारिवारिक प्रणाली का पालन करते हैं।
वायनाड जिले में दूसरे सबसे बड़े ये आदिवासी समुदाय,वायनाड की पहाड़ी जनजातियों के जाति पदानुक्रम में शीर्ष पर हैं।
कोट्टायम के राजा द्वारा इनको कुरिचिया नाम इनकी तीरंदाजी में विशेषज्ञता के लिये दिया गया था।
ये भूमि स्वामी समुदाय हैं और उनके स्लैम और बर्न (शिफ्टिंग) की खेती को पुनम खेती (Punam Cultivation)कहा जाता है।
ब्लैक सॉफ्टशेल टर्टल कछुए की यह प्रजाति भारत (असम) और बांग्लादेश में पाई जाती है। इसे IUCN की लाल सूची में ‘जंगलों में विलुप्त’ (Extinct in Wild) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
पंजाब सरकार द्वारा लुप्तप्राय (Critically Endangered) इंडस रिवर डॉल्फिन (Indus River Dolphin) को पंजाब का जलीय जीव घोषित इंडस रिवर डॉल्फिन एक समुद्री स्तनपायी है जो पंजाब में ब्यास नदी में पाई जाती है, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम रह गई है। इसे IUCN रेड लिस्ट के तहत लुप्तप्राय श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है और इसके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करने के लिये ‘लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन’ (Convention on International Trade in Endangered Species-CITES) के परिशिष्ट I के तहत सूचीबद्ध किया गया है। गंगा डॉल्फिन की तरह इंडस रिवर डॉल्फिन शारीरिक रूप से अंधी होती है और नदी के गंदे पानी में संचार और शिकार करने के लिये इको-लोकेशन पर निर्भर होती है।
28-29 जनवरी, 2019 को नई दिल्ली में बाघ संरक्षण पर अंतर्राष्ट्रीय समीक्षा सम्मेलन का आयोजन बाघ संरक्षण पर यह तीसरा अंतर्राष्ट्रीय समीक्षा सम्मेलन था। 2012 के बाद भारत में आयोजित होने वाला यह दूसरा समीक्षा सम्मेलन था। तीसरे समीक्षा सम्मेलन में बाघ रेंज के 13 देशों द्वारा वैश्विक बाघ पुनः प्राप्ति कार्यक्रम (Global Tiger Recovery Program-GTRP) की स्थिति और वन्य जीव तस्करी से निपटने जैसे विषयों पर चर्चा की गई। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा ग्लोबल टाइगर फोरम (Global Tiger Forum) जो दुनिया में बाघों के संरक्षण के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय, अंतर सरकारी संगठन है, के सहयोग से किया गया ।2012 के बाद भारत में आयोजित होने वाला यह दूसरा समीक्षा सम्मेलन था। तीसरे समीक्षा सम्मेलन में बाघ रेंज के 13 देशों द्वारा वैश्विक बाघ पुनः प्राप्ति कार्यक्रम (Global Tiger Recovery Program-GTRP) की स्थिति और वन्य जीव तस्करी से निपटने जैसे विषयों पर चर्चा की गई। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority), पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) द्वारा ग्लोबल टाइगर फोरम (Global Tiger Forum) जो दुनिया में बाघों के संरक्षण के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय, अंतर सरकारी संगठन है, के सहयोग से किया गया ।[९] बाघ रेंज के देशों ने 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में घोषणा के दौरान 2022 तक अपनी-अपनी रेंज में बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प व्यक्त किया था। सेंट पीटर्सबर्ग चर्चा के समय भारत में 1411 बाघ होने का अनुमान था जो कि अखिल भारतीय बाघ अनुमान 2014 के तीसरे चक्र के बाद दोगुना होकर 2226 हो गया है। वर्तमान में अखिल भारतीय बाघ अनुमान 2018 (All India Tiger Estimation) का चौथा चक्र जारी है।
- बाघ संरक्षण पर सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा-पत्र यह प्रस्ताव नवंबर 2010 में रूस में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय टाइगर फोरम में एकत्रित 13 टाइगर रेंज देशों (TRCs) द्वारा अपनाया गया था। टाइगर रेंज वाले 13 देश हैं: बांग्लादेश, भूटान, कंबोडिया, चीन, भारत, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्याँमार, नेपाल, रूस, थाईलैंड और वियतनाम।
- हिंद महासागरीय हंपबैक डॉल्फिन हिंद महासागर में दक्षिण अफ्रीका से भारत तक पाई जाती है।प्रकृति संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय संघ (IUCN) ने हिंद महासागरीय हंपबैक डॉल्फिन को लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया है। भारत में ये वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I के तहत संरक्षित हैं
तीन दिवसीय वार्षिक फ्लेमिंगो महोत्सव का आयोजन पुलीकट झील में किया जाता है। वुड स्नेक की यह प्रजाति मेघमलाई के जंगलों और पेरियार टाइगर रिज़र्व की स्थानीय प्रजाति है।मेघमलाई वन्यजीव अभयारण्य तमिलनाडु के थेनी ज़िले में 636 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो केरल में पेरियार टाइगर रिज़र्व की सीमा तक है।
झारखंड के हजारीबाग में दो सिनेरियस गिद्ध (Aegypius monachus-एजिपियस मोनाशस) देखे गए लैटिन भाषा से लिया गया नाम एजिपियस मोनाशस का तात्पर्य ‘हूड वाला’ होता है। आमतौर पर सर्दियों के दौरान काले रंग व गुलाबी चोंच वाला यह सिनेरियस गिद्ध(Cinereous vulture) यूरोप और एशिया के पहाड़ी क्षेत्रों से भारत जैसे गर्म स्थानों में पलायन करता है। यह प्रवासी पक्षी भारत के उत्तरी हिस्सों में राजस्थान तक आता है,लेकिन झारखंड के हजारीबाग में इसे देखा जाना बर्ड वॉचर्स और शोधकर्त्ताओं को चौंकाने वाला है। सिनेरियस गिद्ध को IUCN की लाल सूची में निकट-संकट (Near Threatened या NT) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पाई जाती हैं और इन पक्षियों की आबादी घटती जा रही है।भारत ने देश के कई हिस्सों में प्रजनन केंद्रों के माध्यम से इनके संरक्षण की योजना शुरू की है। महाराष्ट्र के मुंबई के गोराई में एस्सेल वर्ल्ड ने एक इंटरेक्टिव बर्ड पार्क लॉन्च किया। 1.4 एकड़ क्षेत्र में फैला अपनी तरह का पहला वर्षावन-थीम वाला पार्क 60 से अधिक प्रजातियों के 500 से अधिक विदेशी पक्षियों का घर है। इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसा बर्ड पार्क स्थापित करना है, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करता हो। पक्षियों के लिये उपयुक्त रहने की स्थिति सुनिश्चित करने के लिये पार्क को बेहद सावधानीपूर्वक बनाया गया है, ताकि इससे विभिन्न प्रकार के पक्षियों के बारे में लोगों को जागरूक किया जा सके। इस पार्क में जलीय पक्षियों के लिये छोटे तालाब बनाए गए हैं तथा उनके प्रजनन की विशेष व्यवस्था की गई है। पक्षियों के लिये पीने के पानी की व्यवस्था के साथ इसमें एक विशेष पक्षी-रसोई और स्वास्थ्य सेवा केंद्र भी है।
वायनाड में 4 इकोटूरिज़्म (पर्यावरण पर्यटन) केंद्र बंद
[सम्पादन]केरल उच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार, वायनाड ज़िले में दक्षिण वायनाड वन प्रभाग के अंतर्गत आने वाले चार प्रमुख इकोटूरिज़्म (पर्यावरण पर्यटन) केंद्रों में पर्यटकों का प्रवेश बंद कर दिया गया है। अदालत ने 21 मार्च को एक पर्यावरण संगठन ‘वायनाड प्रकृति संरक्षा समिति’ द्वारा दायर याचिका पर वन प्रभाग में सभी ईकोटूरिज़्म गतिविधियों पर अंतरिम रोक जारी की। अदालत के निर्देशानुसार बंद किये गए प्रमुख इकोटूरिज़्म पर्यटन केंद्र निम्नलिखित है:-
- मेप्पदी वन श्रेणी के अंतर्गत सोचीपारा जलप्रपात
- चेथलायथ वन रेंज के अंतर्गत कबानी पर कुरुवा द्वीप
- मेप्पदी वन रेंज के अंतर्गत चेम्बरा शिखर
- कालपेट्टा वन रेंज के तहत पदिन्हारेथरा (Padinharethara) में मीनमुट्टी जलप्रपात
सोचीपारा जलप्रपात और कुरुवा द्वीपों में पर्यटकों के प्रवेश को हाल ही में बंद किया गया, जबकि चेम्बरा शिखर और मीनमुट्टी जलप्रपात को जनवरी 2019 के मध्य से ही जंगल की आग के जोखिम के कारण बंद किया गया था। केरल प्रांत पर्यटन के लिये बहुत लोकप्रिय स्थान है, इसीलिये इसे 'God's Own Country' अर्थात् 'ईश्वर का अपना घर' नाम से पुकारा जाता है।
- इकोटूरिज़्म(पर्यावरण पर्यटन)का अर्थ है वातावरण की दृष्टि से धारणीय पर्यटन जिसमें प्रमुख रूप से उन प्राकृतिक क्षेत्रों का अनुभव प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है जो पर्यावरणीय और सांस्कृतिक समझ-बूझ, मूल्यांकन और संरक्षण को बढ़ावा देते हैं।
पर्यावरण पर्यटन का आशय यह है कि पर्यटन का प्रबंधन तथा प्रकृति का संरक्षण इस तरीके से किया जाए ताकि पर्यटन व पारिस्थितिकी के साथ-साथ रोज़गार की भी पूर्ति होती रहे।
वर्ष 2019 के चर्चित वनस्पति(flora)
[सम्पादन]- पूसा यशस्वी या HD-3226 भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा जारी अच्छी पैदावार वाली गेहूँ की एक किस्म है।
- अरबिडॉप्सिस थालियाना (Arabidopsis Thaliana) एक छोटा-सा फूल वाला पौधा है,जो व्यापक रूप से वनस्पति विज्ञान में एक मॉडल जीव के रूप में उपयोग किया जाता है।
इसका छोटा जीनोम आकार,तेज़ जीवन चक्र,ज़्यादा मात्रा में बीज उत्पादन,आनुवंशिक परिवर्तन में आसानी और प्रयोगशाला में बढ़ने की क्षमता इसे वनस्पति आनुवंशिकी,फिजियोलॉजी,जैव रसायन और विकास के अध्ययन के लिये एक मॉडल जीव बनाती है। अरबिडॉप्सिस थालियाना सरसों (Brassicaceae) परिवार का एक अवयव है, जिसमें गोभी और मूली जैसी प्रजातियाँ शामिल हैं। यह यूरोप, सुदूर पूर्व और पूर्वी अफ्रीका के समशीतोष्ण क्षेत्रों तक पाया जाता है।
- कैसिया ऑक्सीडेंटेलिस (Cassia Occidentalis) दक्षिण अमेरिकी मूल उष्णकटिबंधीय तथा समशीतोष्ण जलवायु में वृद्धि करने वाला पौधा है। ओडिशा राज्य में पाए जानेवाले इस पौधे को आमतौर पर कॉफी सेन्ना (Coffee Senna) तथा कॉफी वीड (Coffee Weed) के रूप में जाना जाता है।
इसके औषधीय गुण के कारण इसका उपयोग खाँसी,जुकाम,एक्ज़िमा आदि के उपचार में किया जाता है। इसकी जड़ों,पत्तियों,छाल एवं बीजों में फ्लेवोनोइड पाया जाता है जो प्राकृतिक एंटी-ऑक्सीडेंट के रूप में कार्य करता है एवं मुक्त कणों को नष्ट करता है तथा कैंसर-रोधी गतिविधियों को बढ़ावा देता है। रोज़वुड (शीशम) CITES के परिशिष्ट-II में तथा IUCN के "सुभेद्य"श्रेणी में हैं।भारत ने वन्यजीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अभिसमय (CITES) के परिशिष्ट-II से शीशम (डलबर्जिया सिस्सू) को हटाने का प्रस्ताव दिया है।भारतीय शीशम (डलबर्जिया लैटिफोलिया/D.Latifolia) भारत की मूल प्रजाति है। यह प्रजाति बहुत तेज़ी से बढ़ती है और इसमें अपनी मूल सीमा के बाहर की प्रकृति में भी आसानी से घुलने-मिलने की क्षमता है, इसलिये इसे दुनिया के कुछ हिस्सों में आक्रामक प्रजाति के रूप में जाना जाता है
- मणिपुर में शिरुई लिली (Shirui Lily) महोत्सव आयोजित
इस चार दिवसीय महोत्सव में नृत्य, भोजन, संगीत और पारंपरिक खेल का आयोजन किया जाता है। यह मणिपुर का राजकीय पुष्प है। यह तीन फीट लंबा और घंटी के आकार का नीला-गुलाबी रंग का पुष्प है। इसका वैज्ञानिक नाम लिलियम मैकलिनिया (Lilium mackliniae) है। यह ग्राउंड लिली (Ground Lily) की एक प्रजाति है जो केवल मणिपुर की शिरुई पहाड़ी (Shirui Hills) के आसपास पाई जाती है। इस क्षेत्र में तांगखुल नागा जनजाति निवास करती है। तांगखुल जनजाति द्वारा इसे स्थानीय भाषा में काशोंग तिम्रावोन (Kashsong Timrawon) कहा जाता है, जो तिम्रावोन के नाम पर रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि तिम्रावोन पौराणिक देवी फिलव (Philava) की बेटी है, जो शिरुई की पहाड़ियों में निवास करती है और इस जनजाति की रक्षा करती है।
वर्ष 1946 में अंग्रेज़ वैज्ञानिक फ्रैंक किंग्डन-वार्ड (Frank Kingdon-Ward) द्वारा इस पुष्प की खोज मणिपुर में की गई थी। अपनी विशेषताओं के कारण इस पुष्प ने वर्ष 1948 में रॉयल हॉर्टिकल्चरल सोसाइटी (Royal Horticultural Society- RHS) लंदन के एक फ्लॉवर शो में श्रेष्ठता पुरस्कार जीता था। शिरुई लिली को प्रभावित करने वाले कारक: अत्यधिक पर्यटन। आक्रामक बाँस प्रजातियाँ। शिरुई पहाड़ी को राष्ट्रीय उद्यान घोषित करने में हो रही देरी।
पूसा यशस्वी (HD-3226)-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान(IARI) द्वारा आगामी रबी फसल के मौसम में रोपण हेतु अच्छी पैदावार वाली एक किस्म पूसा यशस्वी या HD-3226 जारी की गई। इससे पहले IARI ने HD-2967 और HD-3086 किस्म तैयार की थी। जो देश के कुल गेहूँ उत्पादन क्षेत्र के लगभग 40% हिस्से पर उगाई जा रही है। नई किस्म पूसा यशस्वी पर पिछले तीन वर्षों में 56 स्थानों पर किये गए समन्वित परीक्षणों में 57.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की औसत उपज दर्ज की गई है। इस किस्म में प्रोटीन और ग्लूटीन की उच्च मात्रा दर्ज की गई है जिससे रोटी और बिस्किट की गुणवत्ता में सुधार होगा। इसमें सभी प्रमुख जंग कवकों, करनाल बंट (Karnal bunt) और अन्य कवकीय रोगजनकों जैसे फ्लैग स्मट (Flag Smut), पाउडर फफूंँद (Powdery Mildew) तथा फूट रॉट (Foot Rot) के खिलाफ उच्च प्रतिरोधक क्षमता है। इस किस्म की सामान्य बुवाई का समय 1 नवंबर से है, जबकि किसान इसकी बुवाई धान की कटाई के तुरंत बाद सामान्य बुवाई से 7-10 दिन पहले भी कर सकते हैं। इस किस्म की परिपक्वता की अवधि 150 दिनों की है जो अन्य गेहूँ की किस्मों से 10-15 दिन कम है और यह किस्म मार्च के अंत/अप्रैल की शुरुआत तक कटाई के लिये तैयार हो जाएगी।
टाइलोफोरा बालकृष्णनी तथा टाइलोफोरा नेग्लेक्टा(Tylophora balakrishnanii and Tylophora neglecta) नामक दो नई पौधों की प्रजातियों की खोज पश्चिमी घाट के शोला जंगलों में की गई। ये पौधे एसक्लीपिएडेसी (Asclepiadaceae) या मिल्कवीड (Milkweed) वर्ग से संबंधित है। पौधे के भागों में पाए जाने वाले लेटेक्स और रोमगुच्छ (Pappus) के रूप में उपस्थित बीज एसक्लीपिएडेसी वर्ग के पौधों की सामान्य विशेषताएँ हैं। शोधकर्त्ताओं द्वारा की गई इस खोज को पर्यावरण एवं जैव विविधता पर एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेबियो (NeBIO) में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्त्ताओं को 5-6 टाइलोफोरा बालकृष्णनी और 15-16 टाइलोफोरा नेग्लेक्टा पौधे मिले हैं जो पश्चिमी घाटों के पारिस्थितिक संवेदनशील क्षेत्रों के लिये एक संरक्षण रणनीति की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
टाइलोफोरा बालकृष्णनी की खोज वायनाड के थोलायिरम शोला (Thollayiram shola) में की गई है जो कि नीलगिरि बायोस्फीयर रिज़र्व के अंतर्गत एक जैव विविधता हॉटस्पॉट है। इस पौधे के फूल लाल-गुलाबी होते हैं और पौधों की यह प्रजाति तटीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले पौधे टाइलोफोरा फ्लेक्स ओसा (Tylophora flexuosa) के समान होती है। लेकिन इसके पुष्प के भागों का विन्यास और संरचना भिन्न होती है। इसका नामकरण केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड के सदस्य-सचिव और एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF), वायनाड के पूर्व निदेशक वी. बालकृष्णन के नाम पर किया गया है। टाइलोफोरा नेग्लेक्टा इसकी खोज कोल्लम में Achencoil वन प्रभाग के अंतर्गत आने वाली थूवल माला पहाड़ी (Thooval Mala hill) पर स्थित शोला वन में की गई है। इसकी प्रजाति के फूल एक-साथ बैंगनी और सफेद रंग के होते हैं। इसकी पत्तियाँ मोटी और काँटेदार होती हैं।
नगालैंड के पेरेन ज़िले में ज़िंगिबर प्रीनेन्स (Zingiber Perenense)और दीमापुर ज़िले में ज़िंगिबर डिमापुरेंस (Zingiber Dimapurense) नामक अदरख की दो नई प्रजातियों की खोज भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण(BSI) के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया।
- ज़िंगिबर की 141 प्रजातियाँ हैं जो संपूर्ण एशिया,ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में पाई जाती हैं। इसकी विविधता का केंद्र दक्षिण-पूर्वी एशिया है। पूर्वोत्तर भारत में इसकी 20 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
- ज़िंगिबर प्रीनेन्स के पत्तेदार शाखाओं (Leafy Shoots) की ऊँचाई 70 सेमी. तक होती है। इसके पुष्प का ओष्ठक (Labellum or Lip) सफेद होता है जिसके चारों ओर बैंगनी-लाल रंग की धारियाँ होती हैं। इसके पराग का आकार दीर्घवृत्ताकार होता है।
- ज़िंगिबर डिमापुरेंस-यह आकार में लंबा होता है तथा इसकी पत्तीनुमा शाखाएँ (Leafy Shoots) 90-120 सेंटीमीटर तक की ऊँचाई वाली होती हैं।
इसके ओष्ठक का रंग सफ़ेद होता है, साथ ही इस पर गहरे बैंगनी-लाल रंग के धब्बे होते हैं। इसका पराग अंडाकार-दीर्घवृत्ताकार होता है।
केरल राज्य के एक और उत्पाद तिरूर पान के पत्ते (Tirur Vettila) ने भौगोलिक संकेतक (GI Tag ) का दर्ज़ा प्राप्त किया है।
- तिरूर और मलप्पुरम जिले के आस-पास के क्षेत्रों में उत्पादित, तिरूर पान के ताजे पत्तों में क्लोरोफिल ( Chlorophyll) और प्रोटीन ( Protein ) की उच्च मात्रा का होना इसकी अद्वितीय विशेषता है।
- यूजेनॉल (Eugenol) तिरूर पान के पत्ते में पाया जाने वाला एक प्रमुख तेल है जो इसकी तीक्ष्णता बढ़ने में योगदान देता है। अन्य पान के पत्तों की तुलना में इसकी शेल्फ अवधि भी अधिक है।
- तिरूर पान के पत्ते में एंटीऑक्सिडेंट( Antioxident) क्षमता अधिक होती है जो कि इसके औषधीय गुणों को बढाता है। यह पान का पत्ता कई अन्य पान के पत्तों की तुलना में अधिक तीखा है।
- प्रसिद्ध ब्लॉक पंचायतों तिरूर, तानुर, तिरूरांगडी, कुट्टिपुरम, मलप्पुरम और वेंगारा में तिरूर पान की खेती प्रमुखता से की जाती है।
यह केरल कृषि विश्वविद्यालय के IPR सेल द्वारा राज्य कृषि विकास और किसान कल्याण विभाग तथा तिरूर वेटिला किसानों के साथ मिलकर की गई एक संयुक्त पहल है। दवा क्षेत्र में पान के पत्ते के अर्क के उपयोग की संभावना है। पान का पत्ता पारंपरिक रूप से विभिन्न रोगों के उपचार के लिये उपयोगी माना जाता है। वेटिला 'थमपुलडी थाइलम' का एक घटक है और इसका उपयोग खांसी के इलाज के लिये तथा स्वदेशी दवाओं के निर्माण में भी किया जाता है। भोजन के बाद पान के पत्ते का सेवन पाचन को बढ़ाता है। भारत में पान के पत्ते को सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अवसरों के दौरान नियमित रूप से उपयोग में लाया जाता है। वर्तमान में तिरूर वेटिला की खेती का क्षेत्र लगभग 266 हेक्टेयर है। लगभग 60 प्रतिशत तिरूर पान के पत्ते दिल्ली, मुंबई, जयपुर और इटारसी रेलमार्ग के द्वारा भेजे जाते हैं तथा पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भी इसका बाज़ार है।
वजाकुलम अनन्नास (Vazhakulam Pineapple)
बाढ़ के कारण केरल में वजाकुलम क्षेत्र में उत्पादित इस अनन्नास के उत्पादन में कमी का संकट उत्पन्न हो गया है।
- वजाकुलम अनन्नास (मॉरीशस ग्रेड) को वर्ष 2009 में कृषि-बागवानी उत्पाद श्रेणी में GI टैग प्रदान किया गया है।
- भारत दुनिया का छठा सबसे बड़ा अनन्नास उत्पादक देश है फिर भी वैश्विक बाज़ार में इसकी हिस्सेदारी नगण्य है।
केरल के अन्य प्रमुख GI टैग प्राप्त उत्पाद निम्नलिखित हैं:
- वायनादन की धान की किस्में- जीराकसाला और गंधकसाला (Wayanadan rice varieties Jeerakasala and Gandhakasala)
- पोक्कली चावल (Pokkali Rice)[१०]
- तिरुर की सुपारी वाली वाइन (Tirur Betel Vine)
- केले की प्रजाति- केंद्रीय त्रावणकोर की जग्गेरी तथा चेंगालिकोदन नेंद्रण
अंडमान समूह के दक्षिणी द्वीपों में राइट मायो (Wright Myo) के अर्द्ध-सदाबहार जंगलों में यूजेनिया वंश (Eugenia genus) से संबंधित पौधे की एक प्रजाति की खोज की वैज्ञानिकों ने दुर्लभ पौधों की प्रजातियों की खोज की है जो प्रायद्वीपीय भारत (Peninsular India) तथा श्रीलंका के बंगाल की खाड़ी में उपस्थित द्वीपों से अतीत के महाद्वीपीय संबंधों को जोड़ने में मदद कर सकती है।(अंडमान का प्रायद्वीपीय भारत से संबंध)
वर्ष 2003 में जवाहरलाल नेहरू ट्रॉपिकल बोटैनिकल गार्डन एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (Jawaharlal Nehru Tropical Botanic Garden and Research Institute- JNTBGRI) के वैज्ञानिकों ने ये पौधे एक जगह पर समुदाय में परिपक्व अवस्था में समूह में उपस्थित थे, इनमें से कुछ छोटे अर्थात् अंकुरित पौधों को इकठ्ठा कर वैज्ञानिकों ने इनका अध्ययन किया। इसके अंतर्गत पाया गया कि: इनकी विकास दर बेहद धीमी थी। एक पौधा लगभग 2 मीटर लंबा हो गया तथा वर्ष 2015 से इसमें फूल आने शुरू हुए अंततः वर्ष 2019 में इसमें फल विकसित हुआ। वैज्ञानिकों द्वारा किये गए विस्तृत वर्गिकी अध्ययनों (Taxonomical Studies) के पश्चात् इस प्रजाति को यूजेनिया मूनिआना (Eugenia mooniana) में रखा गया। यह पौधा केवल असम, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और श्रीलंका में पाया जाता है। अंडमान में पाए गए इस पौधे की प्रजातियों के भारत, श्रीलंका में भी पाए जाने से बंगाल की खाड़ी के द्वीपों तथा भारत एवं श्रीलंका के बीच निकटतम संबंध के बारे में भी पता भविष्य में लगाया जा सकता है।
अगस्त्य पहाड़ियों में पाए जाने वाले एक ‘औषधीय पौधे’ ‘आरोग्यपाचा’ के आनुवांशिक बनावट को डीकोड किया है। यह पौधा ‘आरोग्यपाचा’ (Arogyapacha) एक चमत्कारिक पौधा है, जिसका वानस्पतिक नाम ट्राइकोपस ज़ेलेनियस (Trichopus zeylanicus) है। उल्लेखनीय है कि इस 'चमत्कारी पौधे' का उपयोग कनी जनजाति के समुदायों द्वारा पारंपरिक रूप से थकान दूर करने के लिये किया जाता रहा है। अध्ययन के अनुसार, इस पौधे में एंटी-ऑक्सीडेंट, एंटी-माइक्रोबियल, एंटी-इंफ्लेमेटरी, इम्यूनोमॉड्यूलेटरी, एंटी-ट्यूमर, एंटी-अल्सर, एंटी-हाइपरलिपिडेमिक, हेपेटोप्रोटेक्टिव और डायबिटिक जैसे औषधीय गुणों के विभिन्न वर्णक्रम पाए गये हैं।
बालसम या ज्वेल-वीड (Balsams or jewel-weeds) औषधीय गुणों से युक्त तथा उच्च स्थानिक/देशज पौधे हैं, जो वार्षिक एवं बारहमासी दोनों ही रूपों में पाए जाते हैं। भारत में बालसम की लगभग 230 प्रजातियाँ पाई जाती हैं और उनमें से अधिकांश पूर्वी हिमालय और पश्चिमी घाटों में पाई जाती हैं। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (Botanical Survey of India) द्वारा प्रकाशित पुस्तक में कई नए रिकॉर्ड सहित नई प्रजातियों का विवरण प्रस्तुत किया गया। वर्ष 2010 से 2019 के बीच वनस्पतिविदों और वर्गिकी वैज्ञानिकों ने पूर्वी हिमालयी क्षेत्र में इम्पेतिंस (Impatiens) जो पौधों का एक समूह है, की लगभग 23 नई प्रजातियों की खोज की। इम्पेतिंस पौधे के समूह को बालसम या ज्वेल-वीड (Balsams or jewel-weeds) के रूप में भी जाना जाता है। ड्रैकैना कैम्बोडियाना (Dracaena cambodiana) भारतीय वनस्पति शोधकर्त्ताओं ने असम में एक रक्त स्रावित वृक्ष की प्रजाति ड्रैकैना कैम्बोडियाना (Dracaena cambodiana) की खोज की है। यह ऐस्परैगेसी (Asparagaceae) परिवार से संबंधित है। इस पौधे से चमकदार लाल रंग का लेटेक्स स्रावित होता है जिसका उपयोग प्राचीन काल से दवा, वार्निश और कपड़ों की रंगाई आदि कार्यों में किया जाता है। चीन में एक पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इसका उपयोग किया जाता है। पहली बार भारत से किसी ड्रैगन ट्री प्रजाति की जानकारी प्राप्त हुई है। यह वृक्ष असम के पश्चिम कार्बी आंगलोंग के डोंगा सर्पो क्षेत्र में पाया गया है। इस पौधे को ड्रैगन ट्री प्रजाति के रूप में वर्गीकृत करने में लगभग चार साल का समय लगा। भारत में हिमालय क्षेत्र, उत्तर-पूर्व और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में ऐस्परैगेसी (Asparagaceae) परिवार से संबंधित ड्रेकेना वंश की लगभग 9 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ड्रैकैना कैम्बोडियाना ड्रैगन ट्री की एकमात्र शुद्ध प्रजाति है।
काप्पाफाइकस अल्वारेज़ी(Kappaphycus Alvarezii)-आक्रामक लाल समुद्री शैवाल
- यह प्रवाल भित्तियों को धीरे-धीरे खत्म करता है। अब यह मन्नार की खाड़ी में वलई द्वीपतक फैल चुका है और समुद्री राष्ट्रीय उद्यान के एक वृहद् प्रवाल क्षेत्र को दुष्प्रभावित कर सकता है।
- इसने मंडपम के शिंगल,कुरुसादाई और मुल्ली द्वीपों पर भी आक्रमण कर दिया है।
- GoM के मंडपम क्लस्टर में शिंगल, कुरुसादाई और मुल्ली द्वीपों पर आक्रमण करने के बाद, इस लाल शैवाल ने दक्षिण पाक खाड़ी में प्रवेश किया है तथा अब किलाकारई तट के साथ वलाई द्वीप पर आक्रमण का अंदेशा है।
- मन्नार की खाड़ी:-पूर्वी भारत और पश्चिमी श्रीलंका के बीच हिंद महासागर का एक प्रवेश-द्वार है।यह रामेश्वरम (द्वीप),एड्म ब्रिज और मन्नार द्वीप से घिरा है।
- यह खाड़ी 80-170 मील (130-275 किमी.) चौड़ी और 100 मील (160 किमी.) लंबी है। इसमें कई नदियाँ मिलती हैं जिसमें तांब्रपर्णी (भारत)और अरुवी (श्रीलंका) शामिल हैं।
- तूतीकोरिन का बंदरगाह समुद्री तट पर है। यह खाड़ी मोतियों के भंडार और शंख के लिये विख्यात है।
- समुद्री राष्ट्रीय उद्यानवन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधानों के तहत स्थापित,कुल क्षेत्रफल लगभग 162.89 वर्ग किमी.।
यह मन्नार की खाड़ी में जामनगर तट पर स्धित 42 द्वीपों में से अधिकांश चट्टानों से घिरे हैं। सुमात्रा राइनो जीवित बचे गैंडों में सबसे छोटे और दो सींग वाले एकमात्र एशियाई गैंडे हैं। ये लंबे बालों से ढके होते हैं। IUCN की रेड लिस्ट में इसे गंभीर रूप से संकटापन्न (Critically Endangered) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इसका निवास स्थान सघन उच्चभूमि और तराई भूमि तथा उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्णकटिबंधीय वन है।
जलकुंभी (Water Hyacinth)/(Eichhornia crassipes) एक अत्यधिक आक्रामक खरपतवार है जिसे कई जलीय पारिस्थितिक तंत्रों के लिये खतरा पैदा करने वाला माना जाता है। जलकुंभी की समस्या उन जल निकायों या जलाशयों में ज़्यादा होती है जिनमें बहाव धीमे हो।जल सतह पर जलकुंभी का घनत्व ज़्यादा होने से अन्य देशी जलीय पौधों पर दुस्प्रभाव पड़ता है। घनत्व ज़्यादा होने से सूर्य का प्रकाश अवरुद्ध होता है और इस प्रकार जलमग्न वनस्पति प्रकाश संश्लेषण में असमर्थ होने के कारण नष्ट होने लगती हैं। इसके साथ ही पानी में ऑक्सीजन की भी कमी होने लगती है और इस जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में मछली तथा अन्य जीवों की मृत्यु होने लगती है। हालाँकि ऑक्सीकृत जल की उपलब्धता की स्थिति में इसके कई सकारात्मक पर्यावरणीय लाभ भी होते हैं, जैसे- रिफ्यूजिया की उपलब्धता, मछलियों के लिये फीडिंग सेंटर्स।
लेकनोरिसिस ताईवानियाना (Lecanorchis taiwaniana)-असम में खोजे गए ‘खिलने की अवधि (Bloom Period) और आकार’ के संदर्भ में भारत के सबसे छोटे ऑर्किड में से एक है। इससे पहले जापान, ताइवान और लाओस में खोजे गए इस ऑर्किड की अधिकतम ऊँचाई 40 सेमी. और खिलने की अवधि पाँच-छह दिनों की होती थी।
- यह एक मायको-हेटरोट्रॉफ (Myco-Heterotroph) है। मायको-हेटरोट्रॉफ ऐसे परजीवी पौधे होते हैं जिनमें प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है।
फूलों के कई ऐसे पौधे हैं जिन्होंने प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) की प्रक्रिया को छोड़ दिया है।
ये दो श्रेणियों में वर्गीकृत हैं-
हस्टीरियल परजीवी (Haustorial Parasites)
मायको-हेटरोट्रॉफ (Myco-Heterotroph)
इन्हें परजीवी भी कहा जाता है, क्योंकि ये दोनों पौधे अपने पोषक तत्त्व दूसरे पौधों से प्राप्त करते हैं।
सन्दर्भ
[सम्पादन]- ↑ https://www.ndtv.com/science/new-dinosaur-species-discovered-by-japanese-scientists-2096480
- ↑ http://haryanaforest.gov.in/hi-in/Wild-Life/Jatayu-Conservation-Breeding-Center
- ↑ https://edition.cnn.com/2019/10/16/australia/tasmanian-tiger-intl-hnk-scli/index.html
- ↑ https://www.patrika.com/bhubaneswar-1/4-lakh-olive-ridley-turtle-came-to-give-eggs-on-the-beach-of-odisha-4231682/
- ↑ https://www.wwfindia.org/about_wwf/priority_species/lesser_known_species/olive_ridley_turtle/
- ↑ https://www.thehindu.com/sci-tech/science/kerala-forests-home-to-new-spider-species/article26750113.ece
- ↑ https://www.theguardian.com/environment/2019/mar/12/orange-bellied-starry-dwarf-frog-discovered-indian-mountains-astrobatrachus-kurichiyana
- ↑ https://indianexpress.com/article/explained/astrobatrachus-kurichiyana-frog-species-millions-of-years-old-newly-found-in-ghats-5627136/
- ↑ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (Indian Space Research Organization-ISRO) ने बेंगलुरु में ‘मानव अंतरिक्ष उड़ान केंद्र’ (Human Space Flight Center) का उद्घाटन किया है। अतः कथन 2 सही है। मानव अंतरिक्ष उड़ान केंद्र, इसरो में मानव-संबंधी सभी कार्यक्रमों का प्रभारी होगा, जिसमें गगनयान परियोजना भी शामिल है जिसके तहत पृथ्वी की कक्षा में तीन अंतरिक्ष यात्रियों को भेजा जाएगा।
- ↑ "Pokkali rice is now a brand name". The Hindu. पहुँच तिथि 2013-06-13.