हिंदी आलोचना एवं समकालीन विमर्श/नगेंद्र की रसवादी और मनोवैज्ञानिक समीक्षा
डाॅ. नगेन्द्र स्वच्छन्दतावादी एवं सौष्ठावादी समीक्षक पध्दति के आलोचक हैं। इन्होंने हिन्दी आलोचना के व्यावहारिक एवं सैध्दान्तिक दोनों दृष्टियों से व्याख्या किए हैं। डाॅ. नगेन्द्र रहे ने अपनी प्रथम कृति 'सुमित्रानन्दन पन्त्र (१९३७) के प्रकाशन के साथ किया था।[१] छायावादी काव्य की अन्तमुखी विशेषताएं सौन्दर्यभावना (प्रकृति) मानव जगत के प्रति भावना, पुरातन पर्यावर्तन आत्मभिव्यंजना (व्यक्तिव) निति विद्रोह, करूणा की धारा दु:खवाद, रहस्यवाद और शैली कला पर विचार किया गया है। डाॅ. नगेन्द्र 'पंतजी' को सुन्दर कवि ही नहीं मानते हैं, यधपि उनका सुन्दर शिंव और सत्य से शून्य नहीं है। [२]उसका सूक्ष्म-से-सूक्ष्म क्रिया-कम्पन इसके हृदय में पुलक और प्राणों में स्पन्दन भर देता है। कोमल प्रकृति के सूक्ष्म स्पन्दनों को पन्तजी को दिव्य अनुभूति है। डाॅ. नगेन्द्र छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रह मानते हैं। वे लिखते हैं स्थूल ने एक बार फिर सूक्ष्म के प्रति विरूध्द किया।यह प्रतिक्रिया दो रूपों में व्यक्त हुई- एक तो छायावाद की पलायन वृति के विरूध्द, दूसरी उसकी अमूर्त उपासना के विरूध्द। .... इन्हीं दोनों प्रवृतियों का सम्मिलित रूप आज प्रतिवाद के नाम से पुकारा जाता है। [३]
अब तक डाॅ. नगेन्द्र ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, आचार्य शुक्ल, मैथलिशरण गुप्त, प्रसाद, पन्त, निराला,राहुल सांकृत्यायन, महादेवी वर्मा, दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर आदि अनेक कवियों और लेखकों की अनेक कृतियों की व्यावहारिक समीक्षाएं प्रस्तुत कर चुके हैं। इस प्रकार देखते हैं कि उनकी आलोचना कृति छायावाद से लेकर आधुनिक काल तक सम्मलित रही हैं। [४]उनके कुछ निबंधों में फ्रायडीन प्रभाव की झलक मिलती है। इसलिए उन्होंने मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या की है। वे पाश्चात्य आलोचक आई. ए. रिर्चड्स और क्रोचे विशेष प्रभाव ग्रहण किए हैं। वे रस सिध्दान्त में फ्रायड दर्शन का साधन मानते हैं बाधक नहीं, क्योंकि दोनों ही आनन्द के सिध्दान्त प्लेजर प्रिंसिपुल' को लेकर चलते हैं। [५]
डाॅ. नगेन्द्र ने आलोचक की आस्था (१९६६ ई.) निबन्ध संग्रह में संग्रहीत प्रथम तीन निबन्धों के अन्तर्गत अपनी साहित्यिक मान्यताओं को स्पष्ट किया है। इस संदर्भ में उन्होंने [६]साहित्य-सम्बन्धी केई मूलभूत-प्रश्नों का समाधान करने की चेष्टा की है। साहित्य का स्वरूप, उसका प्रयोजन, उसमें अन्तर्निहित मूल्य, उसके तत्व और उपादान अनुभूति और अभिव्यक्ति का सम्बन्ध, उसमें निहित सत्य की युग-बध्दता एवं युग-मुक्ता आदि।[७]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रस-मिमांसा उस समय ही सर्वाधिक प्रसिध्दि थी। आचार्य शुक्ल की मीमांसा के बाद यदि डाॅ. नगेन्द्र ने रस सिध्दांत, (१९६४ ई.) पर ग्रंथ लिखकर उसे प्रकाशित कराया तो निश्चित रूप से उन्होंने स्वतन्त्र चिन्तन के उपरान्त कुछ[८]नये विचार समाने लाने की आवश्यकता का अनुभव किया होगा ज्ञात होता है कि आचार्य शुक्ल के समय भी लोग 'रस' के नाम पर नाक-भौ सिकुड़ते थे और इसी पर थोड़ा झुंझलाकर उन्होंने इन्दौरवाले भाषण में कहा था,दिन में सैकड़ों बार हृदय की अनुभूति, हृदय की अनुभूति' चिल्लाएंगे पर रस का नाम सुनकर ऐसा मुंह बनाएंगे मानो उसे न जाने कितना पीछे छोड़ आए हैं। भलेमानस इतना भी नहीं जानते कि हृदय की अनुभूति ही साहित्य 'रस' और भाव कहलाती है। यदि अज्ञेय नई कविता को रस की कविता नहीं मानते तो डाॅ. नगेन्द्र ने उनकी कविता (सोन मछली) में ही रस प्रमाणित कर दिया है। अज्ञेय का मत है कि अनुभूति आज की कविता में भी है, किन्तु रस जिस व्यवस्था पर आधारित है वह आस्तिकता है। लेकिन डाॅ. नगेन्द्र 'रस' को आस्तितकता पर आधारित न मानकर मानव संवेदना पर आधारित मानते हैं। डाॅ. नगेन्द्र रस की अनुभूति आनन्द रूप को मानते हैं। जबकि आचार्य शुक्ल इसका विरोध करते हैं। कहते हैं कि क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि श्रोता के हृदय में रहते हैं पर क्या मृत पुत्र के लिए विलाप करती हुई शैव्या से राजा हरिश्चन्द्र का कफ़न मांगना देख सुनकर आंसू नहीं आ जाते, दांत निकल पड़ते हैं? [९]डाॅ. नगेन्द्र इसका उत्तर यों देते हैं "माना कि, 'सत्य हरिश्चन्द्र' का प्रेक्षण सहृदय दांत निकालने के लिए नहीं करता, पर क्या आंसू बहाने के लिए, वह समय और धन का व्यय कर रहा है। [१०]
अतः डाॅ. नगेन्द्र ने रस को व्यापक रूप में ग्रहण किया है। वह विभावानुभाव व्याभिचारि संयुक्त स्थायी' आर्थात् परिपाक आवस्था का ही वाचक नहीं वरन् उसमें काव्य की सम्पूर्ण भाव-सम्पदा का अन्तर्भाव माना है। काव्य की अनुचिंतन से प्राप्त रागात्मक अनुभूति के सभी रूप और प्रकार- सूक्ष्म और प्रबल, सरस और जटिल, क्षणिक और स्थायी संवेदन, स्पर्श, चित्त-विकार, भाव-बिम्ब संस्कार मनोदशा, शील सभी रस की परिधि में आ जाते हैं। [११]एक ओर उन्होंने समस्त प्राचीन भारतीय काव्य सम्प्रदायों- अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति और औचित्य को रस के संदर्भ में देखा-परखा है तो दूसरी ओर पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सभी प्रमुख वादों- अभिजात्यवाद, स्वच्छन्दतावाद, आर्दशवाद, यथार्थवाद, अभिव्यंजनावाद, प्रभाववाद, प्रतीकवाद आदि को रस सिध्दांत की व्याप्ति के भीतर समेट लिया है। आपकी स्थापना है कि - "रस-सिध्दांत एक ऐसा व्यापक सिध्दांत है जिसमें इन वादों का विरोध मिट जाता है, जो सभी के अनुकूल पड़ता है। और सभी का अपने स्वरूप में समन्वय कर लेता है।" तात्पर्य यह है कि डाॅ. नगेन्द्र ने रस का सम्बन्ध मानवीय अनुभूति से या मानव की रागात्मक [१२]चेतना से जोड़कर उसे कविता मात्र के (वाल्मीकि से लेकर गिरिजा कुमार माथुर तक) मूल्यांकन का शाश्र्वत मानदण्ड बना दिया है। 'नयी कविता' के संदर्भ में विचार करते हुए वे कहते हैं- चालिस वर्ष पूर्व छायावाद ने भी रस का विरोध किया था, पर आज रस ही उसका प्राण सर्वस्व है, उसके प्राय: दो दशक बाद प्रगतिवाद ने उस पर प्रहार किया था, किन्तु आज उसका जितना भी अंश अवशिष्ट है वह रस के आधार पर ही जीवित है। इसलिए 'नयी कविता' का भी कल्याण इसी में है कि वह इन रसमय बन्धनों को स्वीकार कर लें। [१३]
अत: कविवर सुमित्रानन्दन पन्त के शब्दों में- डाॅ. नगेन्द्र रसचेता तथा रस-द्रष्टा है। रस की अजस्त्र एवं निगूढ़ आनन्द साधना के लिए जिन बौध्दिक तथा हार्दिक गुणों अभीप्सा, सूक्ष्म संवेदन-क्षमता, अन्र्तदृष्टि, संकल्प-शक्ति, सत्य-प्रतिति तथा निश्छल निष्ठा आदि की आवश्यकता होती है, वे डाॅ. नगेन्द्र में प्रचुर मात्रा में है।[१४]
संदर्भ
[सम्पादन]- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १०५
- ↑ हिन्दी आलोचना- विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, २०१८, पृष्ठ-१५६
- ↑ हिन्दी आलोचना- विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, २०१८, पृष्ठ-१५८
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १०६
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- ९८
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- ९९
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १००
- ↑ हिन्दी आलोचना- विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, २०१८, पृष्ठ-१६३
- ↑ हिन्दी आलोचना- विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, २०१८, पृष्ठ-१६४
- ↑ हिन्दी आलोचना- विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, २०१८, पृष्ठ-१६५
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १०२
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १०३
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १०४
- ↑ हिन्दी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार - रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, २०१४, पृष्ठ- १०७