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हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)/रामचरितमानस

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हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)
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रामचरितमानस


(1)

देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥

जरई नगर भा लोग बिहाला। झापट लपट बहु कोटि कराला॥

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा॥

हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।।

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।

जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥

ता करा दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥

उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥


दोहा-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।

जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥


(2)

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा।।

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी हरहु नाथ मम संकट भारी॥

तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समझाएं॥

मास दिवस महुँ नाथु न आवा तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥

कह कपि केहि बिधि राखे प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।।

तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहँ सोइ दिनु सो राती।।


दोहा-जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥


(3)

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥

नदी सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा॥

हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाने॥

मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥

मिले सकल अति भए सुखारी, तलफत मीन पाव जिमि बारी॥

चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥

तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।।

रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।


दोहा-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।

सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥


(4)

जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥

एहि बिधि पन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।।

आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिले सब नहीं अति प्रेम कपीसा॥

पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपन्हि के प्राणी॥

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेउ॥

राम कपिन्ह जब आवत देखा। कि काजल मन हरष बिसेषा।।

फटिक सिला बैठे दवौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥


दोहा-प्रेम सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज॥

पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।


(5)

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥

सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु लोक उजागर॥

प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरि हियँ लाए॥

कहतु तात केहि भांति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥


दोहा-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥


(6)

चलत मोहि चूड़ामणि दीन्ही। रघुपति हृदय लाइ सोइ लीन्ही॥

नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनक कुमारी॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दान बंधु प्रनतारति हरना॥

मन क्रम बचन चरम अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी॥

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥

नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा॥

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥

नयन स्ववहि जलु निज हित लागी। करै न पाव देह बिरहागी॥

सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥


दोहा-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।

बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥