हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)/सारग्राही कौ अंग

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हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)
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सारग्राही कौ अंग


(9)

कबीर औगुँण ना गहैं गुँण ही कौ ले बीनि।

घट घट महु के मधुप ज्यूँ, पर आत्म ले चीन्हि।।

(10)

बसुधा बन बहु भाँति है, फूल्यो फल्यौ अगाध।

मिष्ट सुबास कबीर गहि, विषमं कहै किहि साध।।