हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/विनय पत्रिका/(३)ऐसो को उदार जग माहीं।
सन्दर्भ
[सम्पादन]प्रस्तुत पद भक्तिकालीन राम काव्यधारा के प्रवर्तक तुलसीदास द्वारा रचित 'विनयपत्रिका' से अवतरित है।
प्रसंग
[सम्पादन]इस पद में तुलसी श्री राम की उदारता और कृपा का गुणगान कर रहे हैं।
व्याख्या
[सम्पादन]ऐसो कौ उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर, राम सरस कोउ नाहि ॥1।।
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥2।।
जो संपति दस सीस अरप करि रावण सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित हरि दीन्हीं ॥3।।
तूलसीदासलसीदास सब भांति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तो भजु राम काम सब पूरन करहि कृपानिधि तेरो ॥
तुलसी अपने आराध्य का गुणगान करते हुए कह रहे हैं कि हे ईश्वर! इस संसार में आपसे ज्यादा कौन उदार है ? जो किसी दीन-दुखी पर व्यर्थ ही, बिना किसी कारण के द्रवीभूत हो जाए, वह हे राम आपके समान कोई दूसरा नहीं है। बड़े-बड़े मुनि और ज्ञानी भी बड़े योग और यल से जो गति नहीं प्राप्त कर पाते हैं अर्थात् मोक्ष उसे प्रभु श्रीराम, जटायु, शबरी जैसे अपने भक्तों को सहज में ही दे देते हैं। देते ही नहीं अपितु देते हुए भी संकोच करते हैं। जो धन-सम्पदा रावण ने बडे तप से शिव द्वारा प्राप्त की थी, वही सम्पदा विभीषण को देते हए श्रीराम संकोच करते हैं। तुलसीदास अपने मन को इसलिए समझाते हुए कह रहे हैं कि मेरे मन तुझे जो सारे सुख चाहिए तो राम का भजन कर। वे कृपा-निधि श्रीराम सारे काम पूरे कर देंगे अर्थात मनोकामना पूरी कर देंगे।
विशेष
[सम्पादन]1. अवधी भाषा है।
2. श्री राम की भक्ति प्रधान है।
3. दैन्य-भाव है।
4. एकनिष्ठ भावना है।
5. श्रीराम के शील, उदार-रूप का चित्रण है।
6. रामचरितमानस में भी तुलसी ने यह भाव व्यक्त किया है।
शब्दार्थ
[सम्पादन]द्रवै - कृपा कर। द्रवीभूत होना। सरिस = समाना। अरपि करि - अर्पण कर।