हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक) सहायिका/पेशोला की प्रतिध्वनि
संदर्भ
पेशोलो की प्रतिध्वनि कविता छायावादी काव्याधारा के प्रमुख आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित है। साहित्यिक जगत में प्रसाद जी एक सफल व श्रेष्ठ कवि, नाटककार कथाकार व निंबंध लेखक के रूप में विख्यात रहे है।
प्रसंग
पेशोलो की प्रतिध्वनि कविता में कवि ने महाराणा प्रताप सिंह की उत्तराधिकारी की आस का वर्णन किया है कि किस प्रकार वह अपने अंतिम समय में अपनी आस को पूरा होते देखना चाहते थे।
व्याख्या
कवि कहते है सूर्य का लाल प्रकाश में हो गया है संध्या हो गई है। सूर्यमंडल में धूम्र रहित हो कर जल रहा है। ऐसा लगता है मानो अनेकों परिवर्तनों के कारण व्याकुल ओर चक्कर खाने के की वजह से शांत है। अब आशय होकर आमं में छिपने जा रहा है। यह सूर्य कभी विश्व की निरंतर आहुति स्वीकार करता था। वह अपनी हजारों किरणों की माला से कदम्ब वृक्ष के समान तेज, ओज,ओर शक्ति का उदरपुर्वक दान करता था। पेशोलो की लहरे शांत है उन्न लेहरो के ऊपर तट पर खड़े ऊंचे ऊंचे वृक्ष की छाया पद रही है ऐसा लग रहा है मानो तरल चित्रकरी के विचित्र किया गया हो। रात पर अनेक झोपड़े है। झोपड़े दुख में जले खण्डरो के समान लग रहे है। विशाल तट पर दूर दूर झोपड़े मेघ में बिखरे हुए बदल के समान लग रहे थे। जैसे जैसे सूर्य डूबता जा रहा है पृथ्वी पर अंधकार बढ़ता जा रहा है। यह अंधकार संध्या के लिए कलंक है। इस समय दुदुंभी, मृदंग, सूर्य आदि वाद्य यंत्रों की ध्वनि शांत है। अर्थात् चारों ओर शांति है। शांत वातावरण की शांति को भंग करती हुई एक आवाज गूंज रही है। पेशोला के तट पर महाराणा प्रताप सिंह की आवाज गूंज रही है कि वह मेवाड़ छोड़ कर जा रहे है अब उत्तरदायित्व को कोन संभालेगा। कोन ऐसा व्यक्ति है जो कठिन समय में भी विचलित नहीं होगा। कवि कहते है गूंजती हुई आवाज को कौन अस्थिमास के व्यक्तित्व पर अटास करेगा। अर्थात् वह वृद्धावस्था के कारण मेवाड़ त्याग रहे है। अब उनके स्थान पर ऐसा को है जो लोहे से ठोक, वज्र से परख कर, प्रयकलिं उल्का के खंडो की कसौटी पर कसकर अपनी हड्डियों के चूर्ण राशि पर हंसते हुए इसके रक्षा का भार लेगा। ऐसा कौन है जिसकी ध्वनि सुन कर राक्षसों की साधना टूट जाए। राजा पूछते है बताओ कौन है जो मेरे पद को सम्भाल सकेगा। ऐसा कौन है जिसकी सांसे सचे अर्थों में को रही है जो कह सके कि वह मेवाड़ की रक्षा करेगा। अरावली के भांति स्वतंत्रता का सार झुकने नहीं देगा। ऐसा कोई दिखाई नहीं दे रहा हो इस भार को उठा सके। चारी ओर अंधकार है। जो धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है। यह जीवन का खेल है कि कोई भी इस भर को उठाना नहीं चाहता। राजा इसीलिए अधिक चिंतित है क्योंकि उन्हें कोई ताकतवर उत्तराधिकारी नहीं मिला है। इसीलिए मेवाड़ से जुड़ी समस्त आशाएं धूमिल हो रही हैं। मृत्यु उन्हें अपनी ओर खीज़ रही है परन्तु मछली के समान उनकी जान इससे आस में अटकी है कि उन्हें कोई उत्तराधिकारी मिल जाए। राजा के स्वर आज भी पोशाल के तट पर घूम रहे है। आज भी उनके व्याकुल शब्द भवरो में चक्कर काट रही है। परंतु गौरवशाली मेवाड़ दुर्ग में उनकी आवाज नहीं है। पेशोला के तट पर आज भी तरलता के साथ तैर रहा है।
विशेष
1) भाषा सरल एवं सहज है
2)आखिरी आस का वर्णन किया गया है।
3) माधुर्य गुण विद्यमान हैं।