हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक) सहायिका/रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह 'दिनकर' सन् 1908- 1974 ई.
रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म सन् 1908 ई. बिहार के मुंगेर जिले के 'सिमरिया' नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने 'मोकामा-घाट' से मैट्रिक तथा पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) किया। बाल्यवास्था में ही इन्होंने अपनी सहित्य-सृजन की प्रतिभा का परिचय दे दिया था। जब वे मिडिल कक्षा में पढ़ते थे, तभी इनहोंने 'वीरबाला' नामक काव्य लिख लिया था। मैट्रिक में पढ़ते समय ही उनका 'प्राणभंग' काव्य प्रकाशित हो गया था। वर्ष 1928-29 ई. में इन्होंने विधिवत् साहित्य-सृजन के क्षेत्र में पदार्पण किया।
बी.ए. (आनर्स) करने के बाद दिनकर जी एक तर्ष तक मोकामा-घट के हाईस्कूल में प्रधानाचार्य रहे। सन् 1934 ई. में वे सरकारी नौकरी में आए तथा सन् 1934 ई. में ही बिटिश सरकार के युद्ध-प्रचार विभाग में उपनिदेशक नियुक्त किए गए। कुद समय बाद वे 'मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी-विभागाध्यक्ष हुए। सन् 1952 ई. में भारत के राष्ट्रपति ने इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। जहां वे सन् 1962 ई. तक रहें। सन् 1963 ई. में वे 'भागलपुर विश्वविद्यालय' के कुलपति नियुक्त किए गए। दिनकर जी ने भारत सरकार की हिन्दी-समिति के सलाहकार ओर आकाशवाणी के निदेशक के रूप में भी कार्य किया।
दिनकर जी की साहित्यिक प्रतिभा को सम्मान देने हेतु भारत के राष्ट्रपति ने सन् 1959 ई. में इनकों 'पद्मभूषण' की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें 'सहित्य-अकादमी' का पुरस्कार भी मिला । एक लाख रुपये के 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से भी इनको पुरस्कृत किया गया। हिन्दी का यह महान् साहित्यकार सन् 1974 ई. में इस असार संसार से विदा हो गया।
रामधारीसिंह 'दिनकर' ने एक कवि के रूप में अपेक्षकृत अधिक ख्याति प्राप्त की, यद्यपि उनका गद्य ओर पद्य की विभिन्न विधाओं पर समान अधिकार था। गद्य के क्षेत्र में भी वे एक श्रेष्ठ निबन्धकार, आलोचक एवं विचारक के रूप में हिन्दी -साहित्य जगत् में विख्यात है। गद्य के क्षेत्र में इन्होंने रारष्ट्रीय भावनाओं पर आधरित प्रचुर सहित्य की रचना की। इन्हें अपने देश एवं संस्कृति से प्रबल अनुराग था। 'संस्कृति के चार अध्याय' एवं 'भारतीय संस्कृति की एकता' इनकी राष्ट्रीय भावनाओं पर आधरित सर्वश्रेष्ठ कृतियॉं हैं। इनके आलोचनात्मक ग्रन्थों में भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा सिद्धन्तों का सुन्दर ढंग से विवेचन हुआ है। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधरित हदय स्पर्शी कविताऍं लिखने के कारण ये राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए।
कृतियॉं-
कृतियॉं दिनकर जी की प्रमुख रचनाऍं है निबन्ध
-संग्रह- मिट्टी की ओर अर्द्धनारीश्वर,रेती के फूल, उजली आग संस्कृति-ग्रन्थ- संस्कृति के चार अध्याय, भारतीय संस्कृति की एकता आलोचना-ग्रन्थ रेणुका, हँकार, सामधेनी, रूपवन्ती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा
भाषाशैली- दिनकर जी की भाषा-शैली बड़ी ही प्रभावपूर्ण है। सामान्यत: उनकी भाषा-शैली में गुण दिखाई देते है भाषा- दिनकर जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है, 'संस्कृति के चार अध्याय' जैसी गम्भीर विवेचनात्मक रचनाओं में दिनकर जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। यह भाशा तद्भव, तत्सम, देशज शब्दों और मुहावरे एवं लोकोक्तियों के सहज स्वाभाविक प्रयोग के कारा अत्यन्त प्रांजल और प्रौढ़ है, किन्तु इसमें भी सुबोधता ओर स्पष्टता सर्वत्र विद्यमान है। इनकी भाषा का दूसरा रूप उर्दू-फारसी के शब्दों से युक्त है। कहीं-कहीं अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों ओर उर्दू-फारसी की शब्दावली का सम्मिलित प्रयोग बड़ा ही मोहक लगता है । शैली- विवेचनात्मक शैली समीक्षात्मक शैली भावात्मक शैली सूक्तिपरक शैली
इन शैलियों के अतिरिक्त दिनकर जी की रचनाओं में आत्मकथात्मक शैली (आत्मपरक निबन्धों में) , वार्तालाप शैली, उद्धरण शेैली, उद्बोधन शैली आदि शेैलियों के दर्शन भी यत्र-तत्र हो जाते है।
हिन्दी-साळितय में स्थान- दिनकर जी समर्थ कवि ही नही, उत्कृष्ट गद्यकार भी थे। 'संस्कृति के चार अध्याय' ओर शुद्ध कविता की खोज' जैसी उच्चकोटि की गद्य-कृतियों इन्हें महान् चिन्तक और मनीषी गद्य-लेखक की कोटि में प्रतिष्ठित करती है। सरस्वती के इस अमर साधक ने अपने देश के प्रति असीम राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधरित इनका साहित्य, भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इनकी गणना विश्व के महान् साहित्यकारों में होती है