हिंदी कविता (छायावाद के बाद) सहायिका/रोटी और संसद

विकिपुस्तक से
हिंदी कविता (छायावाद के बाद) सहायिका
 ← मोचीराम रोटी और संसद शंभुनाथ सिंह → 
रोटी और संसद

व्याख्या[सम्पादन]

>'रोटी और संसद>' में कवि धूमिल अराजक राजनीति के सामंती व पूंजीवादी मुखौटे को संसद से उठाकर सडक़ तक ले आए

एक आदमी रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है

एक तीसरा आदमी भी है

जो न रोटी बेलता है

न रोटी खाता है

वह सिर्फ रोटी से खेलता है

मैं पूछता हूं

यह तीसरा आदमी कौन है>?

तो मेरे देश की संसद मौन है।

> (>रोटी और संसद>->धूमिल>)

प्रश्न पूछता हुआ आदमी खतरनाक होता है। वह आपको कटघरे में खडा करता है>, जिरह करता है और आपकी समाज सम्मत उपदेयता को रेखांकित करता है। देश जब आजाद हुआ उन दिनों यह रोटी बेलने वाला आदमी किसान हुआ करता था>, यह आदमी आज आम मजदूर या सर्वहारा के नाम से जाना जाता है जो कि रोटी पैदा कर रहा है। ये रोज नए सिरे से कुआं खोदने की स्थिति में जी रहे लोगबाग हैं। आबादी का एक बडा हिस्सा राष्ट्रीय चिंतन के दायरे से बाहर है। इनकी चिन्ता की जाती है तो सिर्फ औपचारिक खानापूर्ति के लिहाज से खासकर चुनाव के दिनों में। रोजगार गारन्टी योजना>, स्वर्ण जयंती रोजगार योजना>, पढाे>-लिखो योजना चलाकर इनसे तटस्थता का यह खेल संसद में बैठा हुआ आदमी खेलता है। दूसरा रोटी खाता है >(यह उपभोक्ता है>) इसके लिए मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में लिखा था>-पूंजीवादी वर्ग ने हर पेशे की इज्जत उतार ली है।> अब तक लोग जिन पेशों को श्रध्दा से देखते और उनका आदर करते थे>, उनका गौरव खत्म हो गया। उसने डॉक्टर>, वकील>, पुरोहित>, कवि>, वैज्ञानिक को पगार पाने वाला मजदूर बना दिया।> तीसरा जो रोटी से खेलता है वह है>- मुनाफाखोर>, पूंजीपति वर्ग>, सामन्तशाह। इसे आप हम नंदीग्राम सहित देश के विभिन्न भागो में जमीन के लिए अर्जी लगाते देखते हैं। प्रस्तुत कविता को पढते हुए पारंपरिक पाठक चौंक पडता है>- यह भी कोई कविता है>? निरा गद्य कविता का रंग न ढंग>, अलंकार>, रूपवाद>, प्रतिकों>, बिम्बों>, नवीन प्रयोगों का क्या हुआ। न दांव न पेंच।>

कवि कविता नहीं लिखता वह रोजमर्रा की भाषा में पूछता है>, यह तीसरा आदमी कौन है>? ऐसा लगता है सामान्यजन के बीच से कोई खडा होकर जनता के पक्ष में लड पडा हो>- मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है>? ऐसे आदमी को हमारे जांजगीर जिला>-जनपद छत्तीसगढ में >'हितवा>' कहा जाता है। पढे लिखे सुधिजन ऐसे आदमी को कवि कहा करते हैं।

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कबीर ने मध्यकालीन धर्म और निरंकुशता की राजनीति को बीच चौबट्टे पे खडा किया। भारतेन्दु ने आयातित अंग्रेजकालीन भारतीय सामंती शोषण की राजनीति का भाण्डाफोड किया। निराला ने हिन्दी के जातीय परम्परा की मान रक्षा और विकास का कार्य अपने ढंग से किया। वहीं मुक्तिबोध ने स्वतंत्रोत्तर भारतीय परिवेश में नवनिर्मित प्रजातांत्रिक राजनीति के मुखौटे को >(चांद का मुंह टेढाअंधेरे में>) खोला है तो कविता >'रोटी और संसद>' में कवि धूमिल अराजक राजनीति के सामंती व पूंजीवादी मुखौटे को संसद से उठाकर सडक़ तक ले आए। जो आज तक यथावत संसद और सडक़ के मध्य एक दूसरी प्रजातंत्र की तलाश में ज्यों का त्यों रखा हुआ है। लोग आते हैं गरीब की रोटी खाते हैं और संसद में आसीन होकर राजनीति से निरंतर बोलते हैं। राजनीति को सत्ता की साधना और अर्थशास्त्र को बाजार के तर्क शास्त्र शासित वैध लूट में तब्दील कर धर्म>, जाति>, भाषा>, सम्प्रदाय>, लूट>-हत्या>, बलात्कार>, भय>, आतंक का दर्शन बांटते संसद से सडक़ तक अपनी>-अपनी कुर्सी की रक्षा में प्रतिबध्द मुस्कुराकर पूछना नहीं भूलते>- कहो तुम कौन हो>? तुम्हारा पार्टीगत गोत्र क्या है>? तुम्हारा झंडा कौन सा है>, धार्मिक विश्वास कैसा>? राजनीति लेख किस गधे का है जरा कहना>, तुम किस टाइप के आदमी हो>? प्रमाणिकरण के लिए तुम्हारा हलफनामा कौन देगा>, तुम पक्के बेईमान हो इसकी गारंटी क्या है>?

सुदामा पाण्डेय धूमिल खेवली वाराणसी से >12 किमी दूर पश्चिम पंचकोशी के तीसरे मुकाम रामेश्वर महादेव से >3 किमी>. पूर्व वरूणा नदी के दाहिने किनारे के कवि हैं। >1936 में जन्मे धूमिल की कविता वरूणा नदी की रुद्र क्रुध्द जलधारा के समान उफनती चलती है। साहित्य भाषा में कवि की जनपदीय पहचान भारतेन्दु का व्यंग्य निराला जैसी अक्खड़ता>, अदम्य>, साहस तथा संघर्ष>, ग>.म>. मुक्तिबोध जैसे संभावना के कवि धूमिल से साहित्य में जनवाद का एक नया गोत्र आरंभ होता है।

कुल जमा कबीर की मुखरता>, भारतेन्दु का जातीय गौरव निराला के विद्रोही आत्मा का औदस्य तथा कविता में मुक्तिबोध के राजनीतिक समझ का आग्रह>, धूमिल का साबूत एकलव्यीय अंगूठा मिलकर एक मजबूत मुट्ठी बनता है>- कविता की दुनिया में इसे हम आप >कोदण्ड मुष्टि खर रूधिर स्राव> के रूप में जानते हैं।

धूमिल काव्य का पहला आदमी जाहिर तौर पर मोचीराम>, लौहसाय>, पलटू जैसा आम आदमी है जो रोटी बेलता है और आए दिन आत्महत्या करने को मजबूर है। अपने समय की जन आकांक्षाओं से प्रतिबध्द कवि पतनशील बुर्जुआ संस्कृति को नंगा करने के लिए ही प्रश्न करता है>- यह तीसरा आदमी कौन है>? जो रोटी बेलता है >(किसान>, मजदूर >(उत्पादक>)) है। जो रोटी खाता है यह वह उपभोक्ता वर्ग है>- एक अदद नौकरी के लिए>, एक प्याली >(चाय>) शराब>, एक गुलाबी खुशबू के लिए>, मुनाफाखोरी में हिस्सा पाने के लिए अक्सर अपनी रचनात्मक जोश बेच देता है। ये ऐसे मध्यम वर्ग हैं जिन्हें गुलाम रहने की आदत सी होती है।

तीसरा जो रोटी बेलता है न खाता है >(मुनाफाखोर की सामंतशाह व पूंजीपति>) जो रोटी से खेलता है। धूमिल की रचना से दिन>-प्रतिदिन अराजक हो रहे राजनीति का प्रतिफल प्रजातंत्र में नीहित भ्रष्टाचार उसे फासीवाद की ओर ले जा रहा है जिसकी परिणति तानाशाही प्रजातांत्रिक अधिनायकवाद में होती है। तीसरा आदमी इसी का प्रतिनिधि है। प्रस्तुत कविता स्वतंत्रोक्तर भारतीय राजनीति और संविधान का पूंजीवाद से कदमताल करते चले जाने का एक छोटा किन्तु पुख्ता उदाहरण है। यही कारण है कि धूमिल प्रजातंत्र की तलाश में मुनासिब कार्यवाही करते कहना नहीं भूलते>-'कल सुनना मुझे।>' क्योंकि कवि को इस बात का पूरा अहसास है कि जानवर होने के लिए जिन्हें स्वतंत्र भारत के इतने दिन लग गए>, उन्हें आदमी बनने में जाने कितना वक्त लगे। इसी से कविता की कालजयी भूमिका तय होती है।

आज पूंजीवाद उत्पादक किसान की सामूहिकता को तोडक़र उसे क्षूद्र मानव >(मजदूर>) बना दिया है। फिर उसे मनुष्य से जन्तु में तब्दील करने की जिद ने उसकी यथार्थवादी सामाजिक>, ऐतिहासिक विकास की सारी भूमिका को समाप्त कर रोटी खाते दूसरे आदमी>, पेटी बुर्जुआ के साथ बंधक मजदूर बनाकर पूंजीवादी जहनियत का पोषक बना दिया है और इसके मूल में है रोटी। इसे पूंजीपति सामंतशाह पैदा नहीं कर सकता>, चालाकी से दूसरे आदमी के साथ केवल रोटी को छीन सकता है। रोटी >(उत्पादन>) के तमाम क्षेत्रों को अधिग्रहित कर पहले व दूसरे आदमी को पशु बनाए रखने के लिए एक से बढक़र एक चमत्कार बांटता है।

चूंकि कविता भाषा में आदमी होने की तमीज सिखाता है>, पूंजीपति वर्ग रोटी से खेलता जनता को हर बार भटकाने से बाज नहीं आता और इसी से कविता की सर्वदेशीय>-सर्वदेशीय कालजयी भूमिका मनुष्य की दुनिया में बनी रहेगी>, क्योंकि जड बदलेगा किन्तु न जीवन। जब तक कि जनता भाषा विहीन पशु >(गूंगी>) नहीं हो जाती।

> >रोटी और संसद का तीसरा आदमी>->निराला साहित्य में >(>राजेने रखवाली की>) >राजा व सामंत हैं जो मुक्तिबोध के यहां अंधेरे में यह तीसरा आदमी गांधी का चश्मा और खोपडी तोडा देता है जो पूरे गणतंत्र को अंधेरे में रखने का हिमायती है। नागार्जुन के यहां यह तीसरा आदमी >>शासन की बंदूक> >थामे नजर आता है। धूमिल इस तीसरे की पहचान रोटी पंजीया कर संसद में बंदरबांट करते जनप्रतिनिधि के रूप में करता है>, >जो चुनकर आता तो पहले आदमी के द्वारा जो उन्हीं के धर्म का है>, >उन्हीं का हितु है>, >उन्हीं के बीच का आदमी है और राजनीति की सडक़ें फर्लांघकर संसद में आता है। संसद के बीच का आदमी है। संसद में आते ही रोटी का स्वामी बन जाता है। पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि पुरुष बन जाता है। कल का हितु जनता का शोषक बन जाता है। अन्यथा किसान एकाएक मजदूर नहीं बन जाते। धूमिल अच्छे से जानता है पूंजीपति वर्ग>, >सामंतशाही वर्ग मजदूर के श्रम की रोटी खाता है। वह किसी भी स्थिति में रोटी हथियाने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता।

जनप्रतिधि सडक़ से चलकर जरूर आते हैं>, किन्तु संसद में बैठते ही उनका वर्ग>, जाति>, भाषा सब कुछ बदल जाता है। भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में धूमिल चुनाव व्यवस्था की पोल खोलकर रख देता है। आखिर यह तीसरा कद्दावर>, इतना सक्षम>, इतना आतंकी>, इतना विशिष्ट हो गया है कि इसके विरुध्द इस देश का संसद तक मौन है। और जहां की संसद मौन है वहां>- यह तीसरा कोन है>? पूछते ही यह तीसरा आदमी गरीब की रोटी से खेलता दृष्टिगत होता है। यही कारण है कि धूमिल दूसरे प्रजातंत्र की तलाश में जुट जाता है>, कारण यथास्मैरोचते विश्व तदेथं परिर्वतते विश्वं।