हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण की अवधारणा
उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान संपूर्ण भारत में एक नयी बौद्धिक चेतना और सांस्कृतिक उथल-पुथल दृष्टिगोचर होती है। प्लासी के युद्ध (१७५७ ई॰) में विदेशी सत्ता के हाथों पराजय, उपनिवेशवाद तथा ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से यह जागृति उत्पन्न हुई। इस जागृति के दौरान मानव को केन्द्र में लाया गया, विवेक की केन्द्रीयताा, ज्ञान-विज्ञान का प्रसार, रूढ़ियों का विरोध और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का नये सिरे से चिन्तन आरम्भ हुआ।
प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चंद्र के अनुसार १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रतिक्रिया हुई। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार, औपनिवेशिक संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार से भारतीयों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अपना आत्मनिरीक्षण करें। यूँ तो यह चेतना हर समाज और हर स्थान पर अलग-अलग समय पर आयी किन्तु सबको एहसास हो गया कि धर्मिक सांस्कृतिक जीवन में सुधार आवश्यक है।
इस चेतना से पूर्व साहित्य राज दरबारों में ही सिर झुका रहा था, किन्तु अब साहित्यकार समाज से जुड़कर समाज में फैले आडम्बर, रूढ़ि, वर्ण-वर्ग भेद, कुरीति, सती प्रथा, बाल-विवाह आदि का विरोध करने लगे। विधवा विवाह का समर्थन और सामंती व्यवस्था, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद का विरोध प्रखर हुआ। पत्र-पत्रिकाओं के विकास के साथ-साथ खड़ी बोली हिंदी और गद्य का भी विकास हुआ। १८२६ ई॰ में जुगल किशोर सुकुल द्वारा प्रथम हिंदी साप्ताहित पत्रिका "उदन्त मार्तंड" का संपादन किया गया। देश में स्वराज्य की इच्छा जगी। व्यापक स्तर पर जन-आन्दोलन शुरू हुए। लोग तार्किक होने लगें और आँख बंद करके किसी पाखण्ड को मानने की जगह उस पर तर्कपूर्ण विचार करने लगें।
भारत में यह ऐसी चेतना पंद्रहवीं शताब्दी में भी देखी गई जब इस्लाम का विधिवत आगमन हुआ। आरंभ में भारतीय संस्कृति के साथ उसका संघर्ष हुआ, फिर आदान-प्रदान की प्रक्रिया घटित हुई। रामविलास शर्मा इसे लोकजागरण का काल मानते हैं। लोकजागरण इसलिए क्योंकि इसका स्रोत भी लोक था और लक्ष्य भी लोक ही था। इस काल के कवियों ने शासन और शासक के बजाय लोकजीवन और परमतत्व में अपनी आस्था प्रकट की। यह परमतत्व किसी के लिए निर्गुण ब्रह्म था तो किसी के सगुण ईश्वर। कबीर, जायसी, तुलसी, सुरदास, गुरू नानक, चैतन्य महाप्रभु जैसे भक्त, समाज सुधारक और कवियों के साथ-साथ अक्क महादेवी (१२वीं शताब्दी), अंडाल, लल्लद्य, मीरा और ताज[१] जैसी कवयित्रियाँ भी दिखाई देती हैं। इन्होनें मानवीय शोषण के वाहक कुरीति, पाखण्ड व आडम्बर तथा उनकी पोषक सामंती चेतना की जड़ें हिला दी थी। इन्होंने सामंती व्यवस्था पर सवाल खड़े किए तथा स्त्रियों पर लगे परम्परा के बन्धन को तोड़ दिया। भक्त कवयित्रियों में बहिणाबाई, लल्लेश्वरी, कुबरी बाई, ब्रज दासी, मुदुछुपलानी, वीरशैव धर्म संबंधी कन्नड़ कवयित्री भी विख्यात हैं। हालांकि जिस सामन्ती विचार के विरोध में ये लड़ रहे थे, उसी सामन्ती विचार ने धीरे-धीरे इस चेतना को कमजोर किया और साहित्य में रीतिकाल का आगमन हुआ।
नवजागरण की अवधारणा और यूरोप
[सम्पादन]नवजागरण या पुनर्जागरण की यह प्रक्रिया यूरोप में ८वीं से १६वीं शताब्दी के बीच घटित होती है। समाज में धार्मिक पाखण्ड, परम्परा, कुप्रथा के बढ़ने से धर्म सत्ता का विरोध आरम्भ हुआ। "मैकियावेली" ने अपनी पुस्तक "प्रिंस" में राजा को पोप से अधिक शक्तिशाली कहकर धार्मिक पाखण्ड का विरोध किया।
१६वीं शताब्दी में इटली में एक नयी चेतना का विकास हुआ। इटली की इस चेतना को "ला रिनास्विता" (पुनर्जन्म) कहा गया। इसके अन्तर्गत तार्किक चेतना प्रधान थी। १८वीं शताब्दी में इस चेतना नें फ्रांस में कदम रखा। फ्रांस में इसे "रिनेसाँ" (पुनर्जागरण) नाम दिया गया। इसके केन्द्र में भाईचारा, परम्परा का विरोध, जनवादी चेतना आदि थे। पूरे यूरोप में यहीं चेतना "एनलाइटेनमेंट" (ज्ञानोदय या प्रबोधन) काल में दिखाई पड़ती है। इस समय पूरी शक्ति से इस चेतना ने सामाजिक-राजनीतिक विषमता का अंत किया।
भारतीय नवजागरण
[सम्पादन]रिनेसांस की चेतना जिस प्रकार यूरोप में एनलाइटेनमेंट काल में अपने प्रफुल्ल रूप में दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार से पंद्रहवीं शताब्दी की चेतना उन्नीसवीं शताब्दी में फोर्ट-विलियम कॉलेज की स्थापना और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार में अपने प्रफुल्ल रूप में दृष्टिगोचर होती है। यहीं कारण है कि "बंकिम चंद्र और नामवर सिंह" जैसे समीक्षक भक्तिकाल को रिनेसांस और उन्नीसवीं शताब्दी की चेतना को ज्ञानोदय के तुल्य मानते हैं।
इसी से सहमति जताते हुए "राम स्वरूप चतुर्वेदी" मानते हैं कि पन्द्रहवीं शताब्दी की जागृति इस्लाम के आगमन और उसके सांस्कृतिक मेल-जोल से उत्पन्न हुई और उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश के आगमन और दो संस्कृति के मेल से एक रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न हुई। आरम्भ में इस चेतना को समीक्षक नवोत्थान, प्रबोधन, रिनेसांस, पुनरूत्थान आदि कई नामों से पुकारते थे किन्तु १९७७ में रामविलास जी की पुस्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण में नवजागरण नाम सामने आया और सभी ने उन्नीसवीं शताब्दी को नवजागरण और भक्तिकाल को लोकजागरण नाम से स्वीकार कर लिया।
भारत में यह चेतना हर जगह हर समाज में अलग-अलग वक्त पर आयी किन्तु सबका उद्देश्य सुधार ही लाना था। रेल, तार, डाक का जाल बिछाना, प्रेस खोलना, अंग्रेजी शिक्षा का नींव डालना और फोर्ट विलियम कॉलेज बनवाना सब अंग्रेज़ों ने अपने हित के लिए ही किया पर इससे नवजागरण का विकास भी भारत में हुआ। फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए अंग्रेजों द्वारा अपने देश से मंगाई पुस्तकों से हमने भी लाभ ग्रहण किया और हमारी अंधविश्वास में फंसी बुद्धि आधुनिकता की और अग्रसर हुई। प्रेस की स्थापना का श्रेय बैपतिस्ट मिशन के प्रचारक कैरे को दिया जाता हैं। सन् १८०० में वार्ड कैरे और मार्शमैन ने कलकत्ता से थोड़ी दूर श्रीरामपुर में डैनिश मिशन की स्थापना की।
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- बांग्ला नवजागरण
एस॰सी॰ सरकार के अनुसार सन् १७५७ में बंगाल में आधुनिक काल का उदय और मध्य काल का अन्त होता है। इसी वर्ष प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की विजय और बंगाल के नवाब की पराजय हुई थी। बांग्ला नवजागरण का विशेष महत्व है। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना भी बंगाल में ही हुई थी। भारतीय नवजागरण का जिन तीन स्थानों पर विशेष प्रभाव पड़ा उनमें बंगाल एक महत्वपूर्ण स्थान हैं। १८२८ में इस चेतना से प्रभावित हो कर "राजा राम मोहन राय" के सहयोग से "ब्रह्म समाज" की स्थापना हुई।
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१८५६ में स्त्रियों के जीवन में सुधार लाने के प्रयास से "ईश्वर चंद्र विद्यासागर" नें विधवा विवाह का कानून पास कराया। बाल विवाह का विरोध भी तेजी से हुआ। १८४९ में कलकत्ता में स्त्री शिक्षा के लिए "बेथुन स्कूल" की स्थापना हुई। बंगाली नवजागरण के केन्द्र में "बौद्धिकता" की चेतना थी।
![१९७० में भारत सरकार ने विद्यासागर जी की स्मृति में एक डाक-टिकट जारी किया](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/5/5a/Ishwar_Chandra_Vidyasagar_1970_stamp_of_India.jpg/200px-Ishwar_Chandra_Vidyasagar_1970_stamp_of_India.jpg)
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/d2/Romesh_Chunder_Dutt_photo.jpg/220px-Romesh_Chunder_Dutt_photo.jpg)
इस चेतना के फलस्वरूप लोग पुराने पाखण्डों को आँख बन्द करके विश्वास करने के जगह उस पर तार्किक सवाल करने लगे। वेदांत में कहा गया था कि सभी ब्रह्म हैं, इस कारण सभी में अंहकार की भावना ने घर कर लिया था। इसे तोड़ने के लिए नववेदांत अर्थात वेदों की नयी व्याख्या हुई। १८२३ में भारत में अंग्रेजों में एक आज्ञापत्र जारी किया जिससे समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। राजा राममोहन राय ने ने इसका डटकर विरोध किया और कलकत्ता उच्च न्यायालय में इसके विरुद्ध एक याचिका दाखिल कर दी। रमेशचंद्र दत्त के अनुसार संवैधानिक ढंग से अधिकार प्राप्त करने का आरंभ यहीं से होता है। इससे लोगों में अपने अधिकारों के प्रति सजगता और अन्याय के विरोध में शक्ति आयी।
उर्दू के क्षेत्र में नवजागरण की चेतना उसी वक्त से दृष्टिगोचर होती है, जब रीतिकाल चल ही रहा था। उस वक़्त ग़ालिब, सय्यद अहमद, मीर और हाली (मुक़दमा शेर-ओ-शायरी) जैसे समाजसुधारक समाज में फैल रहे धार्मिक आडम्बर का विरोध कर रहे थें। ग़ालिब कहते हैं -
"ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर |
वहीं मीर दीन-ओ-मज़हब की बात पूछने वालों से कहते हैं -
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो |
- मराठी नवजागरण
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/6/6b/Ranade_Statue.jpg/220px-Ranade_Statue.jpg)
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/4/42/Mphule.jpg/220px-Mphule.jpg)
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/3/33/Atmaram_Pandurang.jpg/220px-Atmaram_Pandurang.jpg)
नवजागरण के तीन महत्वपूर्ण स्थानों में महाराष्ट्र का भी महत्वपूर्ण नाम है। मराठी नवजागरण के केन्द्र में दलित चेतना थी। समाज के पिड़ितों के उद्धार के लिए यहाँ १८६७ में आत्माराम पाण्डुरंग जी ने अन्य समाजसेवियों के सहयोग से "प्रार्थना समाज" की स्थपना की। इस नवजागरण के विकास में "आत्माराम पांडुरंग, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे" नें सहयोग दिया।
- केरल नवजागरण
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केरल नवजागरण के केन्द्र में भी दलित चेतना काम कर रही थी। "नारायण गुरू" इस नवजागरण के प्रमुख सहयोगकर्ता थें। उन्होनें दक्षिण भारत में दलितों के उद्धार के लिए विशेष भूमिका का संचार किया। दरअसल वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे, जहाँ आम से आम आदमी भी जुड़ाव महसूस कर सके। नारायण गुरु के अनुसार सभी मनुष्यों के लिए एक ही जाति, एक धर्म और एक ही ईश्वर होना चाहिए। नारायण गुरु मूर्तिपूजा के तो विरोधी थे पर वह राजा राममोहन राय की तरह मूर्तिपूजा का विरोध नहीं कर रहे थे। वह ईश्वर को आम आदमी से जोड़ना चाह रहे थे। आम आदमी को एक बिना भेदभाव का ईश्वर देना चाहते थे। उन्ही दिनों गाँधी जी भी अछूत उद्धार की लड़ाई लड़ रहे थे और इन दोनों की मुलाकात भी इस दौरान हुई।
- तमिल नवजागरण
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"इरोड वेंकट नायकर रामासामी(पेरियार)" के नेतृत्व में दलित चेतना का समर्थन करते हूए तमिल नवजागरण ने भी अपनी विशेष भूमिका अदा की। पेरियार ने जस्टिस पार्टी का गठन किया जिसका सिद्धांत स्वाभिमानी हिन्दुत्व का विरोध था। जो दलित समाज के विनाश का एकमात्र कारण था।
- उड़िया नवजागरण
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उड़िया नवजागरण नें अन्नदाता किसानों को केन्द्र में रखा। साथ ही मजदूर वर्गों से सहानुभूति जतायी। इसका नेतृत्व "फकीर मोहन सेनापति" द्वारा हुआ। उन्होंने ना केवल समाजसेवियों की तरह लड़कर बल्कि कवि के रूप में भी उन्होंने अबसर-बासरे, बौद्धावतार काव्य आदि लिखे, जिसमें कवि की भावात्मकता एवं कलात्मकता का रम्य रूप दृश्यमान होता है।
हिन्दी नवजागरण
[सम्पादन]हिन्दी नवजागरण से पूर्व बांग्ला नवजागरण और बंकिमचंद्र आदि लेखकों की दृष्टि प्रायः सोनार बांग्ला से आगे नहीं जाती। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गद्यकार चिपलूणकर वर्ण-भेद की खाई नहीं पार कर पाये थे, किन्तु हिन्दी का क्षेत्र बड़ा था। हम कह सकते है कि नवजागरण की चेतना अपने विकसित रूप में हिन्दी नवजागरण में ही दिखती है। अभी तक दलित, मजदूर और किसान चेतना से संबंधित सामाजिक विषय केन्द्र में थे। पहली बार 'राष्ट्रीयता' को केन्द्र में हिन्दी नवजागरण ने रखा। राम विलास शर्मा जैसे आलोचक हिन्दी नवजागरण की शुरूआत "१८५७ की राज्यक्रांति" के बाद से मानते है, किन्तु इस नवजागरण को विकसित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका "भारतेन्दु" ने निभाई।
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/0/03/Bharatendu_Harishchandra_1976_stamp_of_India.jpg/220px-Bharatendu_Harishchandra_1976_stamp_of_India.jpg)
उनके द्वारा सम्पादित विभिन्न पत्रिकाओं का हिन्दी नवजागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके द्वारा सम्पादित "कवि वचन सुधा (१८६८), हरिश्चंद्र मैगजिन (१८७३), बाला बोधिनी (१८७४)" में देश की उन्नति और देश के विकास को रोकने वाली कुप्रथाओं की विवेचना की गई है। बाला बोधिनी पत्रिका तो मूल रूप से स्त्रियों के लिए ही निकाली गई थी। १८८४ में उन्होनें देश के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण भाषण दिया, जो "बलिया व्याख्यान" के नाम से प्रसिद्ध है। १८७० में अपने युवावस्था में ही उन्होनें "लेवी प्राण लेवी" लेख में अंग्रेजों के विरूद्ध बात की। एक युवा का ऐसा साहस देख सभी के भीतर देश प्रेम की भावना उमड़ उठी। नवजागरण की इस भावना से प्रेरित "बालकृष्ण भट्ट" ने साहित्य को जनता से जोड़ते हुए कहा––"साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।" १८८४ में भारतेन्दु जब महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की सूची काल चक्र नाम से निर्मित कर रहे थे, उसी वक्त उन्होंने हिन्दी नये चाल में ढली (१८७३) का भी उल्लेख किया। प्रश्न यह है कि दुनिया की प्रसिद्ध घटनाओं में हिन्दी का नये चाल में ढलना भी क्या एक प्रसिद्ध घटना है? अगर है तो १८७३ को ही इसके घटित होने का समय क्यों चुना गया? इसका उत्तर आचार्य शुक्ल ने दिया––"संवत १९३० (सन् १८८७३ ई॰) में उन्होंने हरिश्चन्द्र मैगजीन नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम ८ संख्याओं के उपरांत हरिश्चन्द्र चन्द्रिका हो गया। हिन्दी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले-पहल इसी 'चन्द्रिका' में प्रकट हुआ। भारतेंदु ने नई सुधरी हुई हिन्दी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने कालचक्र नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि, "हिन्दी नये चाल में ढली, सन् १८७३ ई॰।" भारतेन्दु लोकभाषा के समर्थक थे। वे टकसाली भाषा के विरूद्ध थे। टकसाली अर्थात गढ़ी हुई भाषा। भारतेन्दु भाषा का सहज, सरल, प्रवाहमय और विनोदपूर्ण रूप स्वीकार करते थे। भारतेन्दु 'निज भाषा की उन्नति' के पक्षधर थे। वे कहते थे :
"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल |
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/3/3c/William_Carey.jpg/220px-William_Carey.jpg)
नवजागरण के संदर्भ में देखें तो हिंदी नवजागरण में भी छापेखाने और पत्र-पत्रिकाओँ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। कैरे ने पंचानन कर्मकार और मनोहर की सहायता से सन् १८०३ में देवनागरी अंकों की ढलाई की और एक प्रेस खोला। श्रीरामपुर से ही दो पत्र भी प्रकाशित हुए––समाचार दर्पण और दिग्दर्शन। इसके बाद तो देश-भर में धड़ाधड़ छापाखाने खुलने और समाचार पत्र निकलने लगे। इन पत्रिकाओं द्वारा नवजागरण की चेतना सारे हिन्दी प्रदेश के साथ-साथ पूरे भारत में फैली। सन् १८२६ में हिन्दी का प्रथम पत्र 'उदंत मार्तंड' प्रकाशित हुआ। कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओँ का उल्लेख निम्नवत है ––
पत्रिका | सम्पादक | वर्ष | स्थान |
---|---|---|---|
उदन्त मर्तंड साप्ताहिक | जुगल किशोर | ३० मई १८२६ | कलकत्ता |
बंगदूत साप्ताहिक | राजाराम मोहन राय | १८२९ | कलकत्ता |
बनारस अखबार साप्ताहिक | राजा शिव प्रसाद सिंह सितारे हिंद | १८४५ | बनारस |
सुधाकर साप्ताहिक | बाबु तारा मोहन मित्र | १८५० | काशी |
प्रजा हितैषी | राजा लक्ष्मण सिंह | १८५५ | आगरा |
कवि वचन सुधा-मासिक, हरिश्चन्द्र मैगजीन-मासिक, बालाबोधिनी-मासिक | भारतेंदु | १८६८, १८७३, १८७४ | काशी (बनारस) |
हिन्दी प्रदीप-मासिक | बाल कृष्ण भट्ट | १८७७ | प्रयाग |
आनंद कादम्बिनी-मासिक | बदरी नारायण चौधरी | १८८१ | मिर्जापुर |
भारतेंदु | पं॰ राधा चरण गोस्वामी | १८८४ | वृंदावन |
ब्राह्मण-मासिक | प्रताप नारायण मिश्र | १८८३ | कानपुर |
सरस्वती | चिंतामणि घोष, श्याम सुंदर दास(१९०२), महावीर प्रसाद द्विवेदी (१९०३) | १९०० | काशी बाद में इलाहाबाद |
भारतेंदु के सामने संपूर्ण भारतवर्ष था न कि भारतवर्ष का कोई एक अंचल। वे भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है के संबंध में चिंतित थे। उन्होंने लिखा है––"भाई हिन्दुओ ! तुम भी मतमतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, वह हिन्दू है। हिन्दू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मण, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़े, तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे, वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिलती है, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इँगलैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है।"
नवजागरण की चेतना का ही असर था कि कई सारी स्त्रियों ने भी रचना करना आरम्भ किया क्योकि यह बात बिल्कुल सटीक है कि अपने निजी समस्या को हम स्वयं ही सबसे अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकते है।
![पंडिता रमाबाई](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/a/a1/Pandita_Ramabai_Sarasvati_1858-1922_front-page-portrait.jpg/200px-Pandita_Ramabai_Sarasvati_1858-1922_front-page-portrait.jpg)
नवजागरण के पश्चात कुछ प्रमुख महिला रचनाकार इस प्रकार हैंः- "एक अज्ञात हिन्दू महिला/ पंडिता रमाबाई (सीमंतनी उपदेश१८८२), बंग महिला (दुलाईवाली, चंद्र देव से मेरी बातें), सरस्वती गुप्ता (राजकुमार १८९८), साध्वी सती पति प्राणा अबला (सुहासिनी१८९०), प्रियवंदा देवी (लक्ष्मी), हेम कुमारी चौधरी (आदर्शमाता), यशोदा देवी (वीर पत्नी)।१८७५ में आर्य समाज की स्थापना भी हिन्दी नवजागरण से प्रेरित थी। भारतेन्दु ने वैष्णव भक्ति के लिए "तदीय समाज" की स्थापना भी की थी। साथ ही प्रताप नारायण मिश्र, राजा लक्ष्मण सिंह, शिव प्रसाद सिंह सितारे हिन्द आदि कवियों ने भी नवजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरस्वती पत्रिका और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो हिन्दी भाषा के लिए जो भी किया वह अद्वितीय है।
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/4/46/Mahavir_Prasad_Dwivedi_1966_stamp_of_India.jpg/220px-Mahavir_Prasad_Dwivedi_1966_stamp_of_India.jpg)
अंग्रेज के नीतियों के प्रति भारतेन्दु अपने देशवासियों को सचेत करते हैं। वे चाहते थे कि जो लोग अंग्रेजों के झूठे वादों और रूप को देख उनका सच नहीं देख पाते वे उनके सही रूप से अवगत हो सके।
भीतर-भीतर सब रस चुसे, हँसी-हँसी के तन-मन-धन लुटे |
आगे चल कर जनता में भाईचारे की भावना को भी साहित्य द्वारा सभी में विकसित करने की कोशिश भी की गई। इस भावना को विकसित करने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान द्विवेदी युगीन कवियों का था।
जैन, बुद्ध, पारसी, यहुदी, मुस्लिम, सिख, ईसाई |
भारत को विकास की दिशा में गमन कराने में भी इन कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनके अनुसार देश की उन्नति हमसे और हमारी उन्नति देश से जुरी हैं।
भारत की उन्नति सिद्धी में हम सब का कल्याण है |
देश में राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करते और उसके आजादी की भावना को जन-जन तक पहुँचाते हुए कवियों ने कहा हैंः-
देश भक्त वीरों मरने से नेक ना डरना होगा
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा
स्त्रियों को इससे पहले केवल भोग की वस्तु समझा जाता था किन्तु अब स्त्रियों की पीड़ा और उसके कष्टों पर लिखा जाने लगाः-
आंचल में है दुध और आँखों में पानी
मैथली शरण गुप्त तो स्त्रियों को श्यामा की भाँति अपने पीड़ा का नाश करने के लिए उत्तेजित करते हैंः-
लगता है विद्रोह मात्र ही अब उसका प्रतिकार है
नवजागरण की जिस चेतना को भारतेन्दु जी ने जन्म दिया था वह द्विवेदी युग से गुजरते हुए छायावाद युग में पहँचती है जहाँ वह सबसे प्रभावशाली रूप में द्रष्टव्य है। पुराने गौरव के साथ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित राष्ट्रीयता की एक कविता निम्न हैः-
स्वयं प्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
इन कवियों ने व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्रीय तक का सफर शुरू किया। ये कवि सबसे पहले पाखण्ड और धर्म में बंधे लोगों को आजाद करने की कोशिश की फिर राष्ट्रीय को आजाद करने के लिए जोर लगाया। इन्होनें अपने सुख में जनता का सुख और जनता के दुःख में अपना दुःख समझा। निराला की कविता की यह पंक्तियां इस बात को पूर्ण सत्य सिद्ध करती है:-
दुःख की छाया पड़ी हृदय में झट उमड़ वेदना आयी।
इसके साथ ही छायावाद में ही उन विरोधियों का भी मुँह बंद हुआ जो मानते थे खड़ी बोली हिन्दी में उत्तम कविता नहीं हो सकती क्योंकि वह नीरस हैं। निम्न कविता हिन्दी में लिखी एक सुंदर कविता का उदाहरण है :-
तुम विमल हृदय उच्चवास, मैं कांत कामिनी कविता
निराला ने तो स्त्रियों को उस काली की तरह चित्रित किया है जो ताण्डव कर अपने सारे दुःखो का नाश कर सकती हैं।
सामान सभी तैयार,
कितने ही हैं असुर , चाहिए कितने तुझको हार?
कर मेखला मुण्ड मालाओं से, बन मन अभिरामा...
एक बार बस और नाच तू श्यामा!
संदर्भ
[सम्पादन]- महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण-राम विलास शर्मा
- भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ-राम विलास शर्मा
- हिन्दी नवजागरण की समस्याएं-नामवर सिंह(आलोचनात्मक निबंध)
- आधुनिक साहित्यःविकास और विमर्श--पृष्ठ 140-डाँ. प्रभाकर सिंह
- हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास--पृष्ठ 277-294-बच्चन सिंह
- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास--रामस्वरूप चतुर्वेदी
- ↑ सुमन राजे, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, २००६ संस्करण, पृष्ठ १५१