हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/हिन्दी नवजागरण और भारतेन्दु
डॉ. रामचन्द्र शुक्ल भी १८६८ से १८८३ तक के २५ वर्ष को काल की नयी धारा- प्रथम उत्थान के रुप में स्वीकृत करा हैं। मिश्र बंधुओं ने भी १८६८-१८८८ इन १९ वर्षों को भारतेन्दु युग कहा हैं। डॉ. केसरीनारायण शुक्ल ने १८६५ से १९०० तक के ३५ वर्षों को भारतेन्दु काल माना है। डॉ० रामविलास शर्मा भी १८६८ से १९०० तक के काल को भारतेन्दु युग ही मानते हैं किन्तु अधिकांश विद्वानों ने डॉ.नगेन्द्र के कालखन्ड को (भारतेन्दु युग) योग्य एवं तर्कशुध्द रुप में स्वीकार किया हैं। बात चाहे जो भी हो पर यह बात झुठलाया नहीं जा सकता कि नवजागरण को एक नया रूप देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भारतेंदु जी ने निभाई हैं। यही कारण है कि नवजागरण की शुरुआत जिस भारतेंदु युग से माना गया है उस भारतेंदु युग के समय का निर्धारण भारतेंदु जी के जन्म और मृत्यु के आधार पर रखने का प्रयास अवश्य दिखता है।
रीतिकाल का अंत हमने १८४३ माना हैं तो १८४३ से १८६७ के बीच किस प्रकार का काव्य लिखा जा रहा होगा ऐसा प्रश्न पाठकों के मन में उभर सकता हैं।
डॉ० नगेन्द्र ने उसका भी उत्तर दिया हैं--१८४३ से १८६७ तक का कृतित्व न तो पूर्णतः रीतिकाल के प्रभाव-क्षेत्र के अन्तर्गत आता हैं और न इसमें भारतेन्दु-युग की पुनर्जागरणमूलक प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। अतः इसका अनुशीलन भारतेन्दु युग की पृष्ठभूमि के रुप में किया जा सकता है। क्यों की इस कालखन्ड में भक्ति, श्रृंगार, नीति, हास्य, वीर भावनाओं की साहित्य सृजना हो रही थी। काव्यशास्त्रीय ग्रंथो का सृजन भी हो रहा था किन्तु आधुनिकता से उसका जुड़ाव पूर्णतः नहीं था। नये ढंग का लेखन मात्र भारतेन्दु से ही प्रारंभ हो जाता हैं। भारतेन्दु युग की कविता का लक्ष्य किसी सामंत राजा को रिझाना, प्रसन्न करना नहीं था, लोक जागरण फैलाना था। इसलिए उन्होंने काव्य रुप भी बदले और काव्य प्रवृत्तियाँ भी। परिवेश तो बदल ही रहा था।
हिन्दी नवजागरण से पूर्व बंगाल नवजागरण और बंकिमचंद्र आदि लेखकों की दृष्टि प्रायः सोनार बांग्ला से आगे नहीं जाती। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गद्यकार चिपलूणकर वर्ण-भेद की खाई नहीं पार कर पाये थे, किन्तु हिन्दी हिन्दी का देश बड़ा था। हम कह सकते है कि नवजागरण की चेतना अपने विकसित रूप में हिन्दी नवजागरण में दिखती है। अब तक दलित चेतना, मजदूरों और किसानों जैसे सामाजिक विषय केन्द्र में थे। पहली बार 'राष्ट्रीयता' को केन्द्र में हिन्दी नवजागरण ने रखा और इस हिन्दी नवजागरण के पिता भारतेंदु जी ही हैं। उनके द्वारा सम्पादित विभिन्न पत्रिकाओं का हिन्दी नवजागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके द्वारा सम्पादित "कवि वचन सुधा(१८६८), हरिश्चंद्र मैगजिन(१८७३), बाला बोधिनी(१८७४)" में देश की उन्नति और देश के विकास को रोकने वाली कुप्रथा की विवेचना की गई है। बाला बोधिनी पत्रिका तो मूल रूप से स्त्रियों के लिए ही निकाली गई थी। जो रीति काल से भिन्न स्त्रियों को कोई भोग की वस्तु ना मान कर उन्हें समाज में हक दिलाने की मानसिकता को व्यक्त करता है। १८८४ में उन्होनें देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण भाषण दिया, जो "बलिया व्यख्यान" के नाम से प्रसिद्ध है। १८७० में अपने युवावस्था में ही उन्होनें "लेवी प्राण लेवी" में अंग्रेजों के विरूद्ध बात की। एक युवा का ऐसा साहस देख सभी के भीतर देश प्रेम की भावना उमड़ उठना स्वाभाविक था।
१८८४ में भारतेन्दु जब महत्वपूर्ण एतिहासिक घटनाओं की सूची काल चक्र नाम से निर्मित कर रहे थे, उसी वक्त उन्होनें हिन्दी नये चाल में ढली(१८७३) का भी उल्लेख किया।
भारतेन्दु लोकभाषा के समर्थक थे। वे टकसाली भाषा के विरूद्ध थे। टकसाली अर्थात गढ़ी हुई भाषा। भारतेन्दु भाषा का सहज, सरल, प्रवाहमय रूप और विनोदपूर्ण रूप स्वीकार करते थे। भारतेन्दु निज भाषा के उन्नति के पक्षधर थे। वे कहते थे :
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत ना हिय को सूल।"