हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/कृष्ण भक्ति

विकिपुस्तक से

कृष्ण भक्ति काव्यधारा[सम्पादन]

भक्तिकाल की सगुण भक्तिधारा में कृष्ण काव्य का विशेष महत्व है। संस्कृत में जयदेव ने गीत-गोविंद की रचना करके कृष्ण भक्ति की परंपरा को आरंभ किया जो कि विद्यापति की पदावली से होते हुए हिंदी साहित्य में भी चलती रही। कृष्ण भक्ति के प्रचार में वल्लभाचार्य के 'पुष्टि संप्रदाय' का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। वल्लभाचार्य ने कृष्ण भक्तों को श्रीकृष्ण की लीलाओं का गुणगान करने की प्रेरणा दी। उनके प्रमुख शिष्य सूरदास थे जो इस शाखा के प्रतिनिधि कवि भी हैं। वल्लभाचार्य के बेटे श्री विट्ठलनाथ ने पुष्टिमार्गी कवियों में से चार कवि अर्थात् सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास और कृष्णदास को तथा अपने चार शिष्यों नंददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविंदस्वामी को लेकर अष्टछाप की स्थापना की। इन आठ कवियों में सूरदास तथा नंददास अग्रणी हैं। मीराबाई इस काव्यधारा की प्रमुख कवयित्री हैं। भागवत पुराण इस काव्यधारा का आधार ग्रंथ है।

भावगत विशेषताएँ[सम्पादन]

कृष्ण के लीला पुरुषोत्तम रूप की स्थापना
इस काव्यधारा में कृष्ण के लोक रंजक स्वरूप व माधुर्य से पूर्ण लीलाओं का चित्रण किया गया है। सूरदास भी विट्ठलनाथ से मिलने के पूर्व दास्य भाव की भक्ति किया करते थे। मान्यता है कि विट्ठलनाथ ने ही सूरदास से कहा कि 'सूर होके काहें घिघियात हो, कछु लीला गान करो' जिसके बाद वे लीला पुरुषोत्तम कृष्ण के चरित गायन में प्रवृत्त हुए। लीलाओं का मुख्य उद्देश्य आनंद प्रदान करना है। बाल कृष्ण की वात्सल्य से पूर्ण लीलाएँ, बाल गोपालों के साथ सख्य रूप स्थापित करती लीलाएँ और ब्रज की गोपियों व राधा के साथ रास रचाने वाली माधुर्यमयी लीलाएँ संपूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य में विद्यमान है। कृष्ण ब्रजवासियों को भयमुक्त करने हेतु पूतना वध, शेषनाग दमन आदि लीलाएँ भी करते हैं। ये लीलाएँ जनमानस के मन को आकृष्ट करने वाली हैं।
वात्सल्य का विशद वर्णन
कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण के जन्म से उनके मथुरा जाने तक के समय को चित्रित करते हुए बाल कृष्ण के वात्सल्य से पूर्ण विविध चित्र प्रस्तुत किए हैं। रामचंद्र शुक्ल ने तो यहाँ तक कहा कि "बाल सौंदर्य और स्वभाव वर्णन में जितनी सफलता सूर को मिली है, उतनी अन्य किसी को नहीं। वे अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं।" सूरदास ने सूरसागर में वात्सल्य का सजीव व सर्वांगपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया है। यशोदा व नंद की गहन अनुभूतियों का अत्यंत सहज व स्वाभाविक चित्रण द्रष्टव्य है -

"सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए।"

प्रेम का जनतांत्रिक स्वरूप
कृष्ण भक्त कवियों ने अन्य धाराओं के भक्त कवियों की तरह प्रतीकात्मक और श्रद्धा से संयमित प्रेम को नहीं अपनाया। इनका कृष्ण के प्रति प्रेम जनतांत्रिक प्रकृति का है जहाँ पहली बार परिचय के माध्यम से प्रेम होता है -

"बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥"

कृष्ण प्रेम का संयोग वर्णन तो द्रष्टव्य है ही किन्तु साथ ही वियोग शृंगार भी अनुपम है। सूरदास के भ्रमरगीत का एक-एक पद इसका साक्षी है -

"निरखत अंक स्याम सुंदर कै, बार-बार लावति छाती,
लोचन जल कागद मसि मिलि कै, ह्वै गई स्याम स्याम की पाती।"

इनके वियोग वर्णन में स्वाभाविक गहराई है जो आम आदमी के हृदय को छू जाती है। इनका वियोग चमत्कृत नहीं करता वरन् पाठक को संवेदनशील बनाता है।

भ्रमरगीत में मौलिक उद्भावनाएँ
कृष्ण भक्त कवियों ने भ्रमरगीत परंपरा के द्वारा गोपियों और उद्धव के तर्क-वितर्क के माध्यम से सगुण की निर्गुण पर तथा भक्ति की ज्ञान पर विजय स्थापित की है। गोपियाँ जो कृष्ण के लोकरंजक रूप पर मोहित हैं, वे निर्गुण ब्रह्म के उपासक उद्धव पर व्यंग्य करती हैं -

"निरगुन कौन देस को बासी।
मधु हँसि समुझाय! सौंह दे, बूझति साँच न हाँसी।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।"

स्त्री मुक्ति की अभिव्यक्ति
मध्यकाल के जड़ सामंती परिवेश में जब स्त्रियाँ घर से निकल भी नहीं सकती थीं, ऐसे में विवाहित गोपियाँ पर-पुरुष कृष्ण संग प्रेम करती हैं। वे कृष्ण के साथ रास रचाती हैं। यह ऐसी भक्ति परंपरा है जहाँ मीराबाई जैसी कवयित्री भी लोकलाज तज कर स्त्री मुक्ति का मुखर स्वर बनती हैं। वे स्पष्ट तौर पर घोषित करती हैं कि 'मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।' उनके प्रेम में मस्ती है, सामाजिक बंधनों की बेबसी नहीं -

"पग घुंघरु बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो अपने नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहैं मीरा भई बावरी, न्यात कहैं कुलनासी रे।"

शिल्पगत विशेषताएँ[सम्पादन]

काव्य रूप
कृष्ण काव्य धारा लोक रंजक कृष्ण के प्रति प्रेम की गहन अनुभूति का काव्य है। अनुभूति की गहनता के कारण इन कवियों की रचनाएँ मुक्तक पदों में मिलती हैं। इन पदों में उन्मुक्त किस्म का प्रबंध भी दिखाई पड़ता है, इसलिए इन्हें 'लीला पद' की विशिष्ट संज्ञा भी दी गई है।
भाषा
इस काव्यधारा का संपूर्ण साहित्य ब्रज भाषा में रचित है। काव्य में ब्रजभाषा की सरसता और मधुरता सर्वत्र विद्यमान है।
रस, छंद एवं अलंकार
इस काव्यधारा में शृंगार रस की प्रधानता है। सूरदास ने अपने काव्य में शृंगार के रसराजत्व का आद्यंत निर्वाह किया है। संतान विषयक रति तथा दांपत्य रति के संयोग-वियोग दोनों पक्षों का सुंदर चित्रण किया गया है। छंदों में दोहा, कवित्त, सवैया आदि का प्रयोग किया गया है। पदों का प्रयोग भी कृष्ण काव्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। अलंकारों का भी यहाँ भरपूर प्रयोग हुआ है। शृंगार व वात्सल्य पर आधारित लीलाओं को विभिन्न अलंकारों के माध्यम से नए-नए रूपों में प्रस्तुत करने का कार्य इन्होंने किया है। हालांकि अलंकारों के अत्यधिक प्रयोग पर खिन्न होकर रामचंद्र शुक्ल ने टिप्पणी की - "सूर को उपमा देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा करते चले जाते हैं।"