हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/राम भक्तिकाव्य

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रामभक्ति काव्यधारा[सम्पादन]

रामानुज ने शंकराचार्य के भक्ति विरोधी दर्शन 'अद्वैतवाद' के खंडन हेतु 'विशिष्टाद्वैत' दर्शन तथा 'श्री संप्रदाय' की स्थापना की। उन्हीं की शिष्य परंपरा में रामानंद ने रामभक्ति शाखा की स्थापना की। इनके अनुसरण में अनेक रामभक्त कवियों ने इस शाखा को विकसित किया। इस शाखा के अग्रणी कवि तुलसीदास हैं। उनके अतिरिक्त केशवदास, नाभादास, अग्रदास, हृदयराम आदि अन्य प्रसिद्ध कवि हैं। राम काव्यधारा में अवतारवादी उपासना तथा समन्वयवादी दृष्टिकोण है। रामभक्ति काव्य की प्रवृत्तियों का विवेचन निम्नांकित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है -

भावगत विशेषताएँ[सम्पादन]

राम के मर्यादा पुरुषोत्तम रूप की स्थापना
मर्यादा एक मूल्य है जो व्यक्ति को संयम से रहने की प्रेरणा देता है और समाज को संगठित रखता है। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना करके विविध मर्यादाओं की स्थापना की। राम राजा होकर भी एकपत्नीव्रत धारण करते हैं जिससे सामन्तवादी चेतना और बहुपत्नीवाद का विरोध होता है। राम का चरित्र समाज के विभिन्न रिश्तों का मर्यादित स्वरूप प्रस्तुत करता है।
लोकमंगल की साधना
रामभक्त कवि समाज में मंगल लाने के इच्छुक हैं। वे काव्य को 'स्वांतः सुखाय' कहने के बावजूद समाजहित की साधना हेतु ही रचना करते हैं। उनके यहाँ 'धर्म' शब्द व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है। वह 'कर्तव्य' का नियामक है और मानव मात्र का कर्तव्य दूसरों को सुख देना है -

"परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।"
"कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई।"

समन्वयात्मक जीवनदृष्टि
भारत विविधताओं का देश है इसलिए यहाँ समन्वयात्मक दृष्टिकोण अनिवार्य है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि, "भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय का अपार धैर्य लेकर आया हो।" उन्हें तुलसी में समन्वय की विराट चेष्टा दिखी। उन्होंने विभिन्न सांप्रदायिक एवं वैचारिक पद्धतियों में समन्वय स्थापित किया -

"अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं श्रुति पुरान बुध बेदा।"
"शिवद्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहिं सपनेहुँ नहिं भावा।"

तुलसीदास ने संस्कृत, अवधी और ब्रज में रचनाएँ कर भाषाई समन्वय के साथ-साथ शास्त्र और लोक का भी सुंदर समन्वय किया।

गहन राजनीतिक बोध
भक्तिकाव्य में केवल रामकाव्य परंपरा ने तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों का मूल्यांकन किया है। एक अच्छा कवि सदैव समाज के लिए सोचता है तथा उसकी चिंताओं के प्रति सचेत रहता है। तुलसीदास ने रामराज्य की धारणा से प्रजातांत्रिक राजतंत्र की कल्पना की है जहाँ व्यक्ति को अपनी जरूरत के मुताबिक सभी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध हों तथा जहाँ प्रजा की सुविधाओं का राजा सदा ध्यान रखें। राम का राज्य ऐसा ही है जहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबके लिए सुलभ हैं - 'सुलभ पदारथ चारि'। तथा जिसके स्थापित होने पर सामाजिक ऊँच-नीच का भेद मिट जाता है - 'बयरु न कर काहू सन कोई, रामराज विषमता खोई'। रामराज में दुःख दारिद्र्य का भी कोई स्थान नहीं है - 'नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना'। तुलसी तो यहाँ तक कहते हैं कि जो राजा प्रजा का ध्यान नहीं रखता उसे नर्क भोगना पड़ता है - 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नर्क अधिकारी।' तुलसीदास का राजनीतिक आदर्श 'रामराज' है जिसके बारे में वे उत्तरकांड में कहते हैं -

"दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।"

नारी के प्रति संतुलित दृष्टिकोण का अभाव
रामभक्त कवियों ने अपने काव्य में दुःखी-दरिद्र जनता को स्थान देने का सामाजिक कार्य किया किन्तु नारी के प्रति उनकी दृष्टि प्रायः सामंती ही रही। तुलसी साहित्य में कई ऐसे प्रसंग हैं जहाँ नारी के प्रति संतुलित दृष्टि का अभाव दिखता है। जैसे - रामचरितमानस में समुद्र का कथन - 'ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी' या रावण का मंदोदरी से कहना - 'नारी सुभाव सत्य कवि कहहिं, अवगुन आठ सदा उर रहहिं' आदि। हालांकि यहाँ यह अवश्य ध्यान देना चाहिए कि ये सभी कथन खल-पात्रों अथवा प्रति-नायकों द्वारा कहे गए हैं। कई स्थानों पर तुलसी नारी परतंत्रता को दुःख का कारण भी बताने लगते हैं - "कत बिधि सृजी नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।" कुल मिलाकर नारी के प्रति सामंती दृष्टिकोण से ये कवि अधिक ऊँचा नहीं उठ सके।
वर्णव्यवस्था का समर्थन
तुलसीदास ने वर्ण-व्यवस्था का सिद्धांत रूप में समर्थन किया है। वे इस व्यवस्था को समाज को जोड़ने वाली व्यवस्था मानते थे। उन्होंने आदर्श वर्ण-व्यवस्था की कल्पना की है जहाँ राम जैसे शासक शबरी व निषाद जैसे अवर्णों के साथ मित्रता का संबंध रखते हैं। शंबूक वध प्रसंग को रामचरितमानस से हटाकर उन्होंने इस संबंध में अपनी प्रगतिशीलता का परिचय भी दिया है। हालांकि 'पूजिय बिप्र सकल गुन हीना, शूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना' कहकर उन्होंने वर्णव्यवस्था के उस रूप का ही समर्थन किया जो समाज में विषमता उत्पन्न करता है, कबीर जैसे लोगों ने जिसके खिलाफ लगातार आवाज उठायी। वर्णव्यवस्था के प्रति उनकी प्रगतिशील सोच का तत्कालीन ब्राह्मण समाज ने जो घोर तिरस्कार किया, उसकी प्रतिक्रिया हमें 'कवितावली' में दिखाई पड़ती है -

"धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जुलहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रूचे सो कहे कछु कोऊ
मांग के खाइबो , मसीत में सोइबो, लेवे को एक न देवे को दोऊ।।"

दास्य भक्ति
राम का चरित्र मर्यादाबद्ध है। वे पुरुषोत्तम हैं इसलिए भक्तों ने उनके प्रति श्रद्धा व दास्य भाव प्रकट करते हुए भक्ति की -

"राम सों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो
राम सों खरो है कौन, मोसों कौन खोटो।"

आर्थिक समस्याओं की पहचान
यह काव्यधारा अकेली काव्यधारा है जिसमें आधुनिक काल से पहले आर्थिक समस्याओं को पूरे विस्तार के साथ उठाया गया है -

"खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
 बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
 जीविकाबिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
 कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई , का करी?"

शिल्पगत विशेषताएँ[सम्पादन]

काव्य रूप
रामकाव्य मुख्यतः प्रबंधात्मक है। हालांकि अपवादस्वरूप कुछ मुक्तक रचनाएँ भी मिलती हैं। 'रामचरितमानस' इस धारा की सर्वश्रेष्ठ प्रबंधात्मक कृति है जो आज भी हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है। केशवदास ने भी 'रामचंद्रिका' नामक प्रबंध-काव्य रचा किंतु उसे रामचरितमानस वाली प्रतिष्ठा न मिल पायी।
भाषा
इस काव्यधारा की रचनाएँ अवधी व ब्रज में मिलती हैं। इन्होंने संस्कृत का तिरस्कार भले न किया किंतु उसके स्थान पर जन-भाषाओं को वरीयता दी। तुलसी का स्पष्ट मानना था -

"का भाषा का संसकीरत, प्रेम चाहिए साँच।
काम जु आवै कामरी, का लै करिय कुमाच।।"

रस, छंद, अलंकार
रामकाव्यधारा में समस्त रसों की सृष्टि हुई है। रामचरितमानस में तुलसीदास रसों के संबंध में कहते हैं कि - 'रामचरित जे सुनत अघाहीं, रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।' इस काव्यधारा में अर्थालंकार का प्रयोग शब्दालंकार की तुलना में अधिक किया गया है क्योंकि उनका उद्देश्य शब्द के बजाय अर्थ से चमत्कार उत्पन्न करना रहा। रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा आदि इसके प्रिय अलंकार हैं। जैसे - 'कीर के कागर ज्यों नृप चीर' (उपमा), 'चरण कमल बंदौं हरिराई' (रूपक) तथा 'संग सुबंधु पुनीत प्रिया, जनु धर्म क्रिया धरि देह सुहाई' (उत्प्रेक्षा) आदि। इस काव्यधारा के कवियों ने पद, दोहा, कुंडलियाँ, छप्पय, कवित्त, सवैया आदि छंदों का प्रयोग किया है।