हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/रीतिबद्ध काव्यधारा
रीतिबद्ध काव्यधारा उन कवियों की है जिन्होंने राजाओं (उनकी पत्नी या प्रेमिकाओं) को शास्त्रीय ज्ञान देने के लिए लक्षण ग्रंथों की रचना की। ये कवि पहले संस्कृत से काव्य लक्षण या सिद्धांत का अनुवाद ब्रज भाषा में करते, उसके बाद उदाहरण के रूप में कविता लिखते थे। इसी काव्यधारा को लक्षण-ग्रंथ परंपरा भी कहा जाता है तथा इनके कवियों को आचार्य। मध्यकाल में दरबार पर आश्रित कवियों के बड़े हिस्से में रीति या पद्धति से बद्ध काव्य रचने वाले कवि आते हैं। इन्होंने आत्म-प्रदर्शन या काव्य रसिकों को ज्ञान देने के लिए इस तरह के काव्य का सृजन किया। रीतिबद्ध काव्यधारा में केशवदास, चिंतामणि त्रिपाठी, कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास, पद्माकर और मतिराम आदि महत्वपूर्ण कवियों को रखा जा सकता है।
रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी में रीति ग्रंथों की परंपरा का आरंभ चिंतामणि त्रिपाठी (१६४३ ई.) से माना है। हालांकि उनसे पहले लगभग १६०१ ई. में केशवदास ने 'कविप्रिया' नामक लक्षण ग्रंथ लिखना आरंभ कर दिया था। केशवदास के बाद लगभग ४० वर्षों तक किसी ने भी लक्षण ग्रंथ नहीं लिखा। दूसरी बात यह भी है कि केशवदास ने संस्कृत के आचार्यों का अनुसरण किया किंतु चिंतामणि और उनके बाद के कवियों ने संस्कृत आचार्यों की अनूदित रचनाओं जैसे 'चंद्रालोक', 'कुवलयानंद' का अनुसरण किया। यही कारण था कि शुक्ल जी ने चिंतामणि से ही रीतिकाव्य का आरंभ माना, केशवदास से नहीं। नगेंद्र ने शुक्ल जी के इस मत का विरोध किया और केशवदास को ही रीतिकाव्य परंपरा का प्रवर्तक माना है।
रीतिकाव्य के लेखकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है। जिन कवियों ने काव्यशास्त्र के सभी संप्रदायों का विवेचन किया, उन्हें सर्वांगविवेचक वर्ग में रखा जाता है जिनमें केशवदास, कुलपति मिश्र, भिखारीदास के नाम उल्लेखनीय हैं। दूसरे वर्ग विशिष्टांगविवेचक में उन कवियों को रखा जाता है जिन्होंने एक-दो काव्यांगों का ही विवेचन किया, जिनमें मतिराम, देव, पद्माकर आदि उल्लेखनीय हैं। इस धारा के कवियों में 'लक्षण ग्रंथ' लिखने की परंपरा थी, अर्थात पहले काव्यांग का लक्षण देकर बाद में उसका उदाहरण देने की परंपरा, जैसे -
"जदपि सुजात सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषण बिन न बिराजई कविता, बनिता, मित्त।।" (केशवदास)
"जहाँ एक ही बात को उपमेयो उपमान।
तहां अनन्वय कहत है कवि मतिराम सुजान।।" (मतिराम)
इन रचनाकारों की कविता में प्रायः अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के भाव दिखते हैं। यही कारण है कि इनके वर्णन प्रायः शृंगार प्रधान हैं जिनमें अधिकांशतः विलास व भोग की प्रवृत्ति है। जैसे -
"गुलगुली गिल में गलीचा है, गुनीजन है, चाँदनी है, चिक है, चरागन की माला है।
कहै पदमाकर ज्यों गिजा है सजी, सेज है, सुराही है, सुरा है और प्याला है।।"
कहीं कहीं आश्रयदाता की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी दिखायी पड़ जाता है - "उपक्कैं तपक्कैं धड़क्कै महा हैं, प्रलै चिल्लिका सी भड़क्कै जहाँ हैं।" (पद्माकर)
रीतिबद्ध कवियों का आचार्यत्व : रीतिबद्ध काव्यधारा के 'लक्षण-ग्रंथ' लिखने वाले कवियों को आचार्य कहा गया। हालांकि इनके आचार्यत्व पर यह प्रश्न सदैव उठता रहा कि क्या इन्हें आचार्य माना जाय और माना भी जाय तो किस आधार पर? आचार्य प्रायः ऐसे विद्वान को कहा जाता है जो नया सिद्धांत प्रस्तुत करे। दूसरे अर्थों में वह व्यक्ति आचार्य हो सकता है जिसका आचरण अनुकरणीय हो। इन दोनों दृष्टियों से रीतिबद्ध काव्यधारा के कवि आचार्य नहीं माने जा सकते क्योंकि इन्होंने लक्षणों का केवल अनुवाद किया है, किसी प्रकार की मौलिकता प्रस्तुत नहीं की। इनका साहित्य भोगमूलक शृंगार, राजाओं की नकली वीरता तथा सामंती मानसिकता से भरा पड़ा है इसीलिए यह अनुकरणीय भी नहीं। हालांकि आचार्य शब्द का एक अन्य अर्थ भी है जिसके अनुसार ज्ञान को सरल बनाकर प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को भी आचार्य कहा जाता है। इस दृष्टि से रीतिबद्ध काव्यधारा के लक्षण-ग्रंथकार कवि निश्चित रूप से आचार्य पद के अधिकारी हैं क्योंकि इन्हें यह श्रेय तो दिया ही जाता है कि इन्होंने पहली बार साहित्य तथा अन्य कलाओँ के नियम और परंपरा के ज्ञान को जनसामान्य की भाषा में अभिव्यक्त किया।