हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/रीति-इतर साहित्य
प्रत्येक युग में कई साहित्यिक धाराएँ साथ-साथ चलती हैं। रीतिकाल में भी शृंगार व रीति वर्णन के साथ-साथ रीतितर धाराएँ चलती रहीं जिनमें नीतिपरक काव्य, भक्तिपरक काव्य एवं वीरतापरक काव्य लिखे गए।
- भक्तिपरक काव्य
- शृंगारप्रधान प्रवृत्ति के रहते हुए भी इस काल के कुछ कवियों ने किसी न किसी रूप में भक्ति का चित्रण किया। इस समय संत काव्यधारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। यारी साहब, भीखा साहब, दरिया साहब, पलटू साहब तथा गोबिंद सिंह आदि संत उल्लेखनीय हैं। नारी के प्रति इनका बदलता दृष्टिकोण द्रष्टव्य है -
"नारी जननी जगत की, पाल पोस दे पोष।
मूरख राम बिसारि कै, ताहि लगावत दोष।।" (दरिया साहब)
निर्गुण ब्रह्म की बात भीखा कहते हैं -
"भीखा बात अगम की कहन सुनन की नाहिं।
जानत है सो कहत नहिं, कहत सो जानत नाहिं।।"
कासिम शाह, नूर मुहम्मद आदि सूफी कवि भी इस काल में हुए किंतु उनमें पहले की सी रंगत व तड़प न रह गई। इस समय के सूफी कवियों में सांप्रदायिकता की गंध आने लगी थी। रामकाव्य व कृष्ण काव्य लिखने वाली सगुण धाराएँ भी विद्यमान थीं किंतु दोनों में ही सामंती विलास घर कर गया और 'राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो' हो गए। रामभक्त कवियों में केशवदास, सेनापति तथा कृष्णभक्त कवियों में गुमान मिश्र व कृष्णदास का नाम लिया जा सकता है।
- नीतिपरक काव्य
- संपूर्ण हिंदी साहित्य में पहली बार स्वतंत्र नीतिकाव्य इस समय ही मिलता है। इसके पहले नीतिवर्णन स्वतंत्र नहीं था बल्कि धार्मिक व सांप्रदायिक साहित्य पर आश्रित था। नीतिपरक सूक्तियों को लिखने में वृन्द, गिरिधर कविराय, दीनदयाल गिरि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाओं में 'वृन्द सतसई' सर्वप्रमुख है। जीवन में व्यवहार के लिए उपयोगी शिक्षा इन नीतिपरक सूक्तियों में मिलती है -
"सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जलावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।"
"अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए, जेती लांबी सौर।। (वृन्द)"
ये नीतिपरक सूक्तियाँ लोक-व्यवहार से ली गई हैं, इसलिए इनमें ग्राम्य जीवन से जुड़ाव है। लोकभाषा की सहजता तो इनमें है ही, नीतिपरक बात को लोकजीवन के सरलतम उदाहरणों से समझाने का कौशल भी है।
- वीरतापरक काव्य
- औरंगजेब के अत्याचारों ने वीरात्मक प्रवृत्तियों को जगा दिया था। दक्षिण में महाराजा शिवाजी, पंजाब में गुरु गोबिंद सिंह, मध्य देश में छत्रसाल आदि वीर देश की रक्षा के लिए औरंगजेब से संघर्ष को उठ खड़े हुए थे। कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के उत्साहवर्द्धन के लिए वीर रस से परिपूर्ण कविताओं की रचना की। गोबिंद सिंह ने 'चंडी शतक' लिखा जिसमें देवी चंडी के माध्यम से दानवों के संहार की बात की गई -
"केते मारि डारे और केतक चबाई डारे,
केतक बगाई डारे काली कोपी तबहीं।"
भूषण कवि राजा शिवाजी के आश्रय में रहते थे। उन्होंने 'शिवराज बावनी' की रचना की -
"तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर
त्यों मलेच्छ वंस पर सेर सिवराज हैं।"
इस प्रकार देखा जाय तो रीतिकाल में इन कवियों ने शृंगार एवं रीति पद्धति से अलग अपनी स्वतंत्र चेतना का निर्वाह किया।