हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/साहित्येतिहास लेखन में काल विभाजन की आवश्यकता

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हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग हजार वर्ष पुराना है। इस दीर्घ अवधि के साहित्य को पढ़ना, समझना और आत्मसात करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। एक मान्यता यह भी रही कि इसी चुनौती को ध्यान में रखकर हिंदी साहित्य के इतिहास को कालखंडों में बाँटा गया। साहित्य के विकास की यह प्रक्रिया सीधी और सरल नहीं रही बल्कि अनेकों उतार-चढ़ाव से गुजरी। हिंदी साहित्य के हजार वर्ष के लंबे इतिहास में अनेक परिवर्तन हुए। यह परिवर्तन इतना बड़ा है कि कई बार सारे साहित्य को एक ही भाषा का साहित्य मानने में भी कठिनाई होती है। इसलिए हिंदी साहित्य के इतिहास में सतत प्रगति ढूंढना वैसे ही है जैसे समूचे साहित्य के इतिहास में समान स्तर के श्रेष्ठ साहित्य की अपेक्षा करना। साहित्येतिहास की इस जटिलता को समझने के लिए भी काल-विभाजन की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा करते हुए काल-विभाजन का लक्ष्य अंततः इतिहास की विभिन्न परिस्थितियों के सन्दर्भ में उसकी घटनाओं एवं प्रवृत्तियों के विकास को स्पष्ट करना होता है।

इतिहासलेखन में काल विभाजन की जरूरत[सम्पादन]

इतिहासकार का सरोकार अतीत के मानव-समाज की तस्वीर की पुनर्रचना करने और समय के साथ समाज में आने वाले बदलावों का निर्देश करने से होता है। इतिहासलेखन का काम मानव-समाज के विकास के दौरान घटित परिवर्तनों को समझना, उनकी व्याख्या करना, परिवर्तनों के आपसी सम्बन्धों की संगति-असंगति पर विचार करना और नए परिवर्तनों को प्रेरित करना है। मनुष्य जिस परिेवेश में जीता है उसके सन्दर्भ में उसके इतिहास की पुनर्रचना करने के लिए इतिहासकार विगत सदियों के उपलब्ध साक्ष्यों का उपयोग करता है। हालांकि यह और बात है कि अतीत से सम्बन्धित साक्ष्यों एवं तथ्यों-सूचनाओं का संग्रह करने मात्र से ही इतिहास नहीं लिखा जाता। तथ्यों का सुसंगत दृष्टिकोण से संचयन और व्याख्या करना इतिहास का काम है। इतिहास में तथ्यों की व्याख्या करने वाले दृष्टिकोण की और व्यवस्था बनाने वाले सचंयन-पद्धति की आवश्यकता होती है। संचयन करने की इस पद्धति का गहरा सम्बन्ध काल विभाजन से है। जो लोग इतिहासलेखन में काल विभाजन की जरूरत नहीं समझते उनकी इस समझदारी के पीछे भी प्रायः काल विभाजन की पद्धति नहीं, बल्कि विभिन्न साहित्येतिहासों में प्रचलित काल विभाजन के ढांचे के अपूर्ण होने एवं पूरी तरह से निर्देश नहीं होने की ही बात निहित है। कालविभाजन की समस्या का जटिल होना भी एक वजह है जिसके कारण साहित्य के इतिहासलेखन पर विचार करते हुए कुछ लोग इसकी चर्चा से बचते हैं और कुछ इसे अनावश्यक बताते हुए छोड़ देने की सलाह देते हैं। इस प्रकार देखें तो काल विभाजन का इतिहास से जितना नहीं है, उतना इतिहास लेखन से है। कहना न होगा कि लेखन का अनिवार्य संबंध पाठकों से है। इतिहास के पाठकों की अपेक्षा होती है कि उसके सामने ऐतिहासिक विषय की स्पष्ट और अपेक्षाकृत सरल व्याख्या आए। इतिहास के संदर्भ में सामान्य पाठक स्पष्ट दिशानिर्देश चाहता है। जाहिर है कि यह सुनिश्चित दिशानिर्देश और कुछ नहीं बल्कि काल-विभाजन ही है। वह इतिहास जिसमें केवल वर्णन किया गया हो, निरा वृत्तांत होता है। यह वर्णन जब विश्लेषण के साथ होता है, तब इतिहास उत्पन्न होता है। इतिहास में स्वरूप की समस्या इसी कारण पैदा होती है कि उसे अतीत के अनुभव की जटिलता ही नहीं प्रस्तुत करनी होती है, उस जटिलता को कालक्रम की गति के संदर्भ में भी प्रस्तुत करना होता है। इसीलिए इतिहासकार को वर्णन और विश्लेषण के बीच, तिथिक्रम और विषयक्रम के बीच संतुलन स्थापित करना होता है। यहाँ आकर पहले तो काल विभाजन की और फिर काल विभाजन में भी कल्पनाशीलता और रचनात्मक निर्णय की जरूरत होती है। इतिहास में किसी वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और विचारों में एक गतिशीलता, परिवर्तनशीलता और क्रमबद्धता भी दिखाई पड़ती है। यह क्रमबद्धता केवल कालानुक्रम नहीं होता, इस क्रमबद्धता में आंतरिक विकास की गति का पता चलता है। यही कारण है कि साहित्यिक प्रवृत्ति के अंत से ही दूसरी साहित्यिक प्रवृत्ति की उत्पत्ति जुड़ी होती है। इस प्रक्रिया को समझते हुए साहित्य के इतिहास में वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और विचारों में असंगति अथवा अंतर्विरोध को पहचानना होता है। यह पहचान इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वस्तुतः इन असंगतियों के सहारे ही एक युग में पायी जाने वाली अनेक प्रवृत्तियों का कार्य-कारण संबंध स्थापित किया जा सकता है। काल-विभाजन साहित्य के इतिहास में इस पहचान का आधार बनता है।

काल-विभाजन की अनिवार्यता[सम्पादन]

साहित्य की साहित्यिकता कोई शाश्वत सत्य जैसी चीज नहीं होती। समय और समाज के परिवर्तन के साथ साहित्यिकता के प्रतिमानों में परिवर्तन होता है। परिवर्तनशील समाज में साहित्य बदलता है, उसकी रचना और बोध का स्वरूप बदलता है, उसकी प्रयोजन बदलता है, प्रासंगिकता बदलती है और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से स्वयं साहित्यिकता के मापदंडों में भी बदलाव होता है। कोई रचना जो किसी समय में साहित्यिक कृति के रूप में स्वीकृत है उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह एक दूसरे काल विशेष में भी साहित्यिक कृति के रूप में आदर पाए। इसी कारण यह माना गया है कि जिस प्रकार समाज के बारे में सुचिंतित और सुव्यवस्थित दृष्टिकोण के बिना समाज का कोई इतिहास नहीं लिखा जा सकता, उसी प्रकार साहित्य और साहित्यिकता संबंधी सुचिंतित और सुव्यवस्थित दृष्टिकोण के बिना साहित्य का इतिहास भी नहीं लिखा जा सकता।

काल-विभाजन की कठिनाइयाँ[सम्पादन]

कालविभाजन के समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई साहित्य के इतिहास में संक्रमण काल को लेकर सामने आती है। वास्तव में संक्रमण काल का अर्थ एक ऐसे कालखंड से है जब समाज, संस्कृति और साहित्य में पुरानी प्रवृत्तियाँ गायब हो रही हों तथा नवीन प्रवृत्तियों का उदय हो रहा हो, किंतु किसी का वर्चस्व न हो। चूंकि अतीत और भविष्य की तुलना में वर्तमान बहुत छोटा होता है इसीलिए संक्रमण काल भी बहुत लंबा नहीं होता। यह और बात है कि अवधि के छोटे होने मात्र से संक्रमण काल का महत्व कम नहीं हो जाता बल्कि रचनाशीलता की दृष्टि से तो संक्रमण का काल अत्यन्त उर्वर होता है। संक्रमण काल में दो तरह के रचनाकार होते हैं - एक तो विच्छेद के रचनाकार और दूसरे संधि के रचनाकार। विच्छेद के रचनाकारों का ध्यान जहाँ संक्रमण के हिस्सों को अलगाने पर होता है वहीं संधि के रचनाकार इन हिस्सों को मिलाने पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैंं। इस तरह स्वाभाविक रूप से संधि के रचनाकारों की रचनाओं में व्यतीत होते अतीत का प्रतिबिंबन और आने वाले भविष्य की उम्मीद का चित्रण होता है। इस प्रकार संक्रमण काल के रचनाकारों में दो प्रवृत्तियाँ एक साथ दिखाई पड़ती हैं। साहित्य के इतिहास में काल विभाजन करते समय किस प्रवृत्ति को ध्यान में रखा जाए, यह विचार करना ही कठिनाई उत्पन्न करता है। नामवर के अनुसार, "जिस संक्रमण बिंदु अथवा संधि रेखा पर इतिहास दो युगों में तोड़ा जाता है, वहाँ इतिहास की चिंताधारा ही नहीं टूटती, बल्कि इस टूटने की प्रक्रिया में बहुत कुछ छूट भी जाता है और छूटा ही रह जाता है। इसी प्रकार एक कालखंड का व्यवस्थित ढाँचा बनाते समय कुछ महत्वपूर्ण तथ्य, अथवा ऐसे तथ्य जो महत्वपूर्ण हो सकते हैं, समेटने से रह जाते हैं।" काल विभाजन के सामने दूसरी बड़ी कठिनाई तब उपस्थित होती है जब साहित्य के इतिहास के कालविभाजन तथा सामाजिक-राजनीतिक इतिहास के काल विभाजन में संगति और समानता की अपेक्षा की जाती है। हिंदी साहित्य के इतिहास में जिस अवधि को आदिकाल कहा गया है, सामाजिक-राजनीतिक इतिहास में उसी अवधि को मध्यकाल के अंतर्गत माना गया है।

काल-विभाजन की सीमाएं[सम्पादन]

निष्कर्ष[सम्पादन]