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हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/भक्तिकाल/ज्ञानाश्रयी शाखा

विकिपुस्तक से

भक्ति साहित्य की दो धाराओं, निर्गुण काव्य और सगुण काव्य का उल्लेख किया जा चुका है। इन दोनों धाराओं को दो-दो उपधाराएँ हैं। निर्गुण काव्य की इन उपधाराओं को 'ज्ञानाश्रयी शाखा' और 'प्रेमाश्रयी शाखा' कहा जाता है। प्रेमाश्रयी काव्य ही हिंदी का सूफ़ी काव्य है। सगुण धारा की दो उपधाराएँ हैं- राम भक्ति शाखा और कृष्ण-भक्ति शाखा। कबीर आदि निर्गुण संतों के साहित्य को ज्ञानाश्रयी कहने का कारण यह प्रतीत होता है कि इन संतों ने 'ज्ञान' पर सूफ़ियों की अपेक्षा अधिक बल दिया है। कबीर आदि के यहाँ भगवत्प्रेम पर कम बल नहीं है किंतु सूफ़ी कवि प्रेम का जितना विशद चित्रण करते हैं, कबीर आदि नहीं करते।


कबीर ( 1398-1518 )

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कबीर का जन्म 1398 में माना जाता है। उनके जन्म और माता-पिता को लेकर बहुत विवाद है। लेकिन यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि उन्होंने अपने को कविता में अनेक बार जुलाहा कहा है। कहा जाता है कि वे विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसे लोकापवाद के भय से जनमते ही काशी के लहरतारा ताल के पास फेंक दिया गया था। अली या नीरू नामक जुलाहा बच्चे को अपने यहाँ उठा लाया। इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से पैदा हुए थे, लेकिन उनका पालन-पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ। बाद में वे जुलाहा ही प्रसिद्ध हुए। कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है कि हिंदू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफ़नाना। इस पर विवाद हुआ, कितु पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है। वहाँ कुछ फूल पड़े मिले। उनमें से कुछ फूलों को हिंदुओं ने अग्नि के हवाले किया और कुछ फूलों को मुसलमानों ने ज़मीन में दफ़ना दिया। कबीर की मृत्यु मगहर ज़िला बस्ती में सन् 1518 में हुई।


कबीर का अपना पंथ या संप्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वे रामानंद के शिष्य के रूप में विख्यात हैं, किंतु उनके 'राम' रामानंद के 'राम' नहीं हैं। शेख तकी नाम के सूफ़ी संत को भी कबीर का गुरु कहा जाता है, किंतु इसकी पुष्टि नहीं होती। संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे वे किसी-न-किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे।


इससे प्रकट होता है कि कबीर की जाति के विषय में यह दुविधा बराबर बनी रही है। इसका कारण उनके व्यक्तित्व, उनकी साधना और काव्य में ऐसी विशेषताएँ हैं,जो हिंदू या मुसलमान कहने-भर से प्रकट नहीं होती। उनका व्यक्तित्व दोनों में से किसी एक में नहीं समाता।


उनकी जाति के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक कबीर में प्राचीन उल्लेखों, कबीर की रचनाओं, प्रथाओं, वयनजीवी (बुनकर) जातियों की रीति-रिवाजों का विवेचन-विश्लेषण करके दिखाया है कि आज की बयनजीवी जातियों में से अधिकांश किसी समय ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती थीं। जोगी नामक आश्रम-भ्रष्ट घर-बारियों की एक जातिं सारे उत्तर और पूर्व भारत में फैली थी। ये नाथपंथश्री थे, कपड़ा बुनकर और सूत कातकर या गोरखनाथ और भरथरी के नाम पर भीख माँगकर जीविका चलाया करते थे। इनमें कुछ निराकार भाव की उपासना प्रचलित थी, जाति-भेद और ब्राह्मण-श्रेष्ठता के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं थी और न ही अवतारवाद में कोई आस्था थी। आसपास के वृहत्तर हिंदू समाज की दृष्टि में ये नीच और अस्पृश्य थे। मुसलमानों के आने के बाद ये धीरे-धीरे मुसलमान होते रहे। पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में इनकी कई बस्तियों ने सामूहिक रूप से मुसलमानी धर्म ग्रहण किया। कबीरदास इन्हीं नवधर्मांतरित लोगों में पालित हुए थे।


कबीर के काव्य पर इन सबका प्रभाव देखा जा सकता है। उनमें वेदांत का अद्वैत, नाथपंथियों की अंतस्साधनात्मक रहस्य-भावना, हठयोग, कुंडलिनी योग, सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरबाद सब कुछ मिलता है।


अंतस्साधनात्मक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग उन्होंने खूब किया हैं. साथ ही अहिंसा की भावना और वैष्णव प्रतिवाद भी। कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' कहलाता है। इसके तीन भाग हैं-1. रमैनी, 2. सबद और 3. साखी। रमैनी और सबद में गेय पद हैं, साखी दोहों में है। रमैनी और सबद ब्रजभाषा में हैं, जो तत्कालीन मध्यदेश की काव्य-भाषा थी।


साखियों में पूर्वी का प्रयोग अधिक है, जिसे स्थानीय या क्षेत्रीय प्रभाव मानना चाहिए। कबीर साहसपूर्वक जन-बोली के शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में करते हैं। बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा जाता है। उनकी अनंत तेजस्विता उनकी भाषा-शैली में भी प्रकट है। काजी, पंडित, मुल्ला को संबोधित करते हुए वे प्राय: तन जाते हैं- पांडे कौन कुमति तोहि लागि, कस रे मुल्ला बाँग नेवाजा।


किंतु सामान्य जन को या हरिजन को संबोधित करते समय वे भाई' या 'साधो' जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। कबर तथा अन्य निर्गुण संतों की उलटबाँसियाँ प्रसिद्ध हैं। उलटबाँसियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों की 'संधा भाषा' में मिलता है। उलटबाँसियाँ अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को असामान्य प्रतीकों में प्रकट करती हैं। वे वर्णाश्रम व्यवस्था को माननेवाले संस्कारों को धक्का देती हैं। इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलटबाँसियाँ समझ में आती हैं।


कबीर ने भक्ति-पूर्व धार्मिक साधनाओं को आत्मसात अवश्य किया था, किंतु वे इन साधनाओं को भक्ति की भूमिका या तैयारी मात्र मानते थे। जीवन की सार्थकता वे भक्ति या भगवद्विषयक रति में ही मानते थे। यद्यपि उनके राम' निराकार हैं, तथापि वे मानवीय भावनाओं के अवलंबन हैं। इसीलिए कबीर ने निराकार निर्गुण राम को भी अनेक प्रकार के मानवीय संबंधों में याद किया है। वे 'भरतार' हैं, कबीर 'बहुरिया'हैं। वे कबीर की माँ हैं- हरिजननी मैं बालक तोरा। वे पिता भी हैं, जिनके साथ कबीर बाज़ार जाने की ज़िद करते हैं ।


कबीर भक्ति के बिना सारी साधनाओं को व्यर्थ और अनर्थक मानते हैं। इसी प्रेम एवं भक्ति के बल पर वे अपने युग के सारे मिथ्याचार, कर्मकांड, अमानवीयता, हिंसा, पर-पीड़ा को चुनौती देते हैं। उनके काव्य, उनके व्यक्तित्व और उनकी साधना में जो अक्खड़पन, निभीकता और दोटूकपन है वह भी इसी भक्ति या महाराग के कारण। व पूर्व-साधनाओं की पारिभाषिक शब्दावली को अपनाकर भी उसमें जो नई अर्थवत्ता भरत हैं, वह भी वस्तुत: प्रेम भक्ति की ही अर्थवत्ता है।


कबीर अपने अनुभव, पर्यवेक्षण और बुद्धि को निर्णायक मानते हैं, शास्त्र को नहीं। इस दृष्टि से वे यथार्थ-बोध के रचनाकार हैं। उनके यहाँ जो व्यंग्य की तीव्रता और धार है वह भी कथनी-करनी के अंतर को देख पाने की क्षमता के कारण है। अपने देखने या अनुभव को न झुठलाने के कारण ही वे परंपरा द्वारा दिए गए समाधान को अस्वकार करक नए प्रश्न पूछत हैं चलन-चलन सब लोग कहत हैं, न जानों बैकुंठ कहाँ है? या न जाने तेरा साहब कैसा है?


कबीर बहुत गहरी मानवीयता और सहदयता के कवि हैं। अक्खडता और निर्भयता उनके कवच हें, उनमें मानवीय करुणा, निरीहता, जगत के सौंदर्य से अभिभूत होने वाला हृदय विद्यमान है। कबीर की एक और विशेषता है- काल का तीव्र-बोध। वे काल को सर्वग्रासी रूप में चित्रित करते हैं और भक्ति को उस काल से बचने का मार्ग बताते हैं।


परंपरा पर संदेह, यथार्थ-बोध, व्यंग्य, काल-बोध की तीव्रता और गहरी मानवीय करुणा के कारण कबीर आधुनिक भाव-बोध के बहुत निकट लगते हैं। किंतु कबीर में अंतस्साधनात्मक रहस्य- भावना भी है और राम में अनन्य भक्ति तो उनकी मूल भाव-भूमि ही है ।


नाद, बिंदु, कुंडलिनी, षड्चक्रभेदन आदि का बार-बार वर्णन कबीर-काव्य का अंतस्साधनात्मक रहस्यवादी पक्ष है। कबीर में स्वाभाविक रहस्य-भावना बड़ मार्मिक तौर पर व्यक्त की गई है। ऐसे अवसरों पर वे प्राय: जिज्ञासु होते हैं- कहो भैया अंबर कासं लागा।


कबीर में जीवन के द्वंद्वात्मक पक्ष को समझ लेने की अद्भुत क्षमता थी। इस परस्पर-विरोधिता को न समझने पर कबीर का मर्म नहीं खुलता। जिसे जीना कहा जाता है, वह वस्तुत: जीवित रहने और मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते रहने की प्रक्रिया है। फिर भी लोग कुशल पूछते हैं और कुशल बताते हैं। लोग जीने का केवल एक पक्ष देखते हैं, दूसरा नहीं। कबीर इसपर व्यंग्य करते हैं, हँसते हैं और करुणा करते हैं-

कुसल-कुसल ही पूछते, कुसल रहा न कोय।

जरा मुई न भय मुआ, कुसल कहाँ ते होय!।


कबीर विशाल गतिशील बिंब प्रस्तुत करते हुए आकाश और धरती को चक्की के दो पाट बताते हैं-

चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।॥


वे समाधि, सत्संग, गुरु-उपदेश, हरिभजन आदि की सुखानुभूति का चित्रण उत्कृष्ट इंद्रियबोधात्मक तीव्रता के साथ करते हैं.

सतगुर हमसू रीझकर, कहा एक परसंग।

बादर बरसा प्रेम का, भीज गया सब अंग।।


कबीर सादृश्य-विधान प्राय: अवर्ण जातियों के व्यवसाय के आधार पर खड़ा करते हैं। जुलाहा, माली, कुम्हार, लोहार, व्याध, कलवर आदि के व्यवसायों का उपयोग वे प्रायः अलंकार योजना में करते हैं। यह प्राय: सभी कवियों में पाया जाता है।


रैदास ( 1388-1518 )

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रैदास भी रामानंद के शिष्य कहे जाते हैं। उन्होंने अपने एक पद में कबीर और सेन का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि वे कबीर से छोटे थे। अनुमानत: पंद्रहवीं शती उनका समय रहा होगा। धन्ना और मीराबाई ने रैदास का उल्लेख आदरपूर्वक किया है। यह भी कहा जाता है कि मीराबाई रैदास की शिष्या थीं। रैदास ने अपने को एकाधिक स्थानों पर चमार जाति का कहा है- कह रैदास खलास चमारा या ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारा|

रैदास काशी के आसपास के थे। रैदास के पद आदि गुरुग्रंथ साहब में संकलित हैं। कुछ फुटकल पद सतबानी में हैं।

रैदास की भक्ति का ढाँचा निर्गुणवादियों का ही है, किंतु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रामक नहीं। रैदास की कविता की विशेषता उनकी निरीहता है। वे अनन्यता पर बल देते हैं। रैदास में निरीहता के साथ-साथ कुंठाहीनता का भाव द्रष्टव्य है। भक्ति-भावना ने उनमें ह बल भर दिया था जिसके आधार पर वे डंके की चोट पर घोषित कर सके कि उनके कुटुंबी आज भी बनारस के आसपास ढोर (मुर्दा पशु) ढोते हैं और दासानुदास रैदास उन्हीं का वंशज है -

जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा।

आचार सहित बिप्र करहिं डंड उति तिन तनै रविदास दासानुदासा ।।


रैदास की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेयता के गुणों से युक्त है।

गुरु नानक(1469-1538)

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गुरु नानक का जन्म 1469 में तलवंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था। इनकी मृत्यु 1538 में हुई। इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री तथा माँ का नाम तृप्ता था। इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी था। कहते हैं कि इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत उद्यम किया, किंतु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया। इन्होंने हिंदू-मुसलमान, दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया तथा वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया। गुरु नानक ने व्यापक देशाटन किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की। कहते हैं कि मुगल सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी। यात्रा के दौरान साथ में इनके साथी और शिष्य रागी नामक मुस्लिम रहते थे, जो इनके द्वारा रचित पदों को गाते थे। गुरु नानक ने सिख धर्म का प्रवर्तन किया। गुरु नानक ने पंजाबी के साथ हिंदी में भी कविताएँ लिखीं। इनकी हिंदी में ब्रजभाषा और खड़ी बोली, दोनों का मेल है। इनके भक्ति और विनय के पद बहुत मामिक हैं। शामकता इनके व्यक्तित्व और रचना की विशेषता है। गुरु नानक ने उलटबाँसी शैली नहीं अपनाई है। इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार गुँथे हैं, जैसे कबीर की रचनाओं में। आदि गुरुग्रंथ साहब के अंतर्गत 'महला' नामक प्रकरण में इनकी बानी संकलित है। उसमें सबद, सलोक मिलते हैं। गुरु नानक की रचनाएँ हैं- जपुजी, आसादीवार, रहिरास और सोहिला। गुरु नानक की ही परंपरा में उनके उत्तराधिकारी गुरु कवि हुए। इनमें गुरु अंगद (जन्म 1504), गुरु अमरदास (जन्म 1479), गुरु रामदास (जन्म 1514), गुरु अर्जुन (जन्म 1563), गुरु तेगबहादुर (जन्म 1622) और दसवें गुरु गोविंदसिंह (जन्म 1664) हैं। गुरु गोविंदसिंह ने अनेक ग्रंथों की रचना की।

दादूदयाल ( 1544-1603)

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कबीर की भांति दादू के जन्म और उनकी जाति के विषय में विवाद और अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ लोग उन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं, कुछ लोग मोची या धुनिया। प्रो. चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी और क्षितिजमोहन सेन के अनुसार दादू मुसलमान थे और उनका नाम दाऊद था। कहते हैं दादू बालक के रूप में साबरमती नदी में बहते हुए लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण को मिले थे। दादू के गुरु का भी निश्चित रूप से पता नहीं लगता। कुछ लोग मानते हैं कि वे कबीर के पुत्र कमाल के शिष्य थे। पं. रामचंद्र शुक्ल का विचार है कि उनकी बानी में कबीर का नाम बहुत जगह आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे उन्हीं के मतानुयायी थे। वे आमेर, मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए जयपुर आए। वहीं के भराने नामक स्थान पर इन्होंने 1603 में शरीर छोड़ा। वह स्थान दादूपंथियों का केंद्र है। दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने हरडेवानी नाम से किया था। कालातर में रज्जब ने इसका संपादन अंगवधू नाम से किया।


दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहज है। दादू भी कबीर के समान अनुभव को ही प्रमाण मानते थे। दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता के भाव हैं। कबीर की भाँति उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है। उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ है। उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिंदी है। इसमें अरबी-फ़ारसी के काफ़ी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है।

सुंदरदास ( 1596-1689)

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सुंदरदास 6 वर्ष की आयु में दाद के शिष्य हो गए थे। उनका जन्म 1596 में जयपुर के निकट द्यौसा नामक स्थान पर हुआ था। दादू की मृत्यु क बाद एक संत जगजीवन राम के साथ वे 10 वर्ष की आयु में काशी चले गए। वहाँ 30 वर्ष को आयु तक उन्होंने जमकर अध्ययन किया। काशी लौटकर वे राजस्थान में शेखावटी के निकट फतहपुर नामक स्थान पर गए। वे फ़ारसी भी बहुत अच्छी जानते थे। उनका देहांत सांगामेर में 1689 में हुआ।


निर्गुण संत कवियों में सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं सुशिक्षित थे। कहते हैं कि वे अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुंदर थे। सुशिक्षित होने के कारण उनकी कविता कलात्मकता से । युक्त और उनकी भाषा परिमार्जित है। निर्गुण संतों ने गेयपद और दोहे ही लिखे हैं । सुंदरदास ने कवित्त और सवैये भी रचे हैं। उनकी काव्य-भाषा में अलंकारों का प्रयोग खूब हुआ है। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ सुंदरविलास है। काव्य-कला में शिक्षित होने के कारण उनकी रचनाएँ निर्गुण साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं। निर्गुण साधना और भक्ति के अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक व्यवहार, लोकनीति और भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के आचार-व्यवहार पर भी उक्तियाँ कही हैं। लोकधर्म और लोकमर्यादा की उन्होंने उपेक्षा नहीं की है।

रज्जब (1567-1689)

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रज्जब (17 वीं शती) दादू के शिष्य थे। ये भी राजस्थान के थे इनकी कविता में सुंदरदास की शास्त्रीयता का तो अभाव है, किंतु पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "रज्जब दास निश्चय ही दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे। उनकी कविताएं भावापन्न, साफ़ और सहज हैं। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी अपेक्षाकृत अधिक हैं।"


निर्गुण संतों की ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्य प्रसिद्ध संत मलूकदास (जन्म 1574), अक्षर अनन्य (जन्म 1653), जभनाथ (1451), सिंगाजी (1519) और हरिदास निरंजनी (17 वीं शती) हैं। कबीर के पुत्र कमाल और शिष्य धर्मदास की गणना इसी परंपरा में होती है। इनमें धर्मदास (16 वीं शती) की रचनाओं का संतों में बहुत आदर है। इन्होंने कबीर का शिष्य बनने पर अपनी विशाल संपत्ति लुटा दी। इनकी कविताएँ सरल और भावापन्न हें।