हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/भक्तिकाल
भक्ति के उदय का सामाजिक आधार
[सम्पादन]भक्ति काव्य भक्ति आंदोलन पर आधारित है। यह आंदोलन सामाजिक और वैचारिक है। भक्ति में धर्म साधना का नहीं, भावना का विषय बन गया है। इसीलिए उसे धर्म का रसात्मक रूप कहा जाता है। हिंदी भक्ति साहित्य की परंपरा महाराष्ट्र के संत नामदेव से मिलने लगती है। संत नामदेव का जन्म 1267 में हुआ था। संत नामदेव ने हिंदी में भी रचनाएँ की हैं। भक्ति काव्य- धारा के अंतर्गत हिंदी में कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, रैदास और मीरा जैसी महान प्रतिभाओं ने रचनाएँ कीं। इन्हीं की रचनाओं के कारण भक्ति-युग को हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युग कहा जाता है।
प्रश्न यह है कि भक्ति आंदोलन का सामाजिक-ऐतिहासिक आधार क्या था? पं. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, भक्ति-भावना का कारण भारत में आक्रमण-कारी मुसलमानों का विजेता होना है। वे यह तो मानते थे कि भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ, लेकिन उनका विचार था कि अपने पौरुष से हताश हिंदू जाति के लिए भगवान की भक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था? संभवतः आचार्य शुक्ल उत्तर भारत की हिंदू जनता की पराजित मानसिकता को रेखांकित करना चाहते हों, जो भक्ति के प्रचार-प्रसार के लिए अनुकूल भूमि बनी।
पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार भक्ति आंदोलन भारतीय चिंता-धारा का स्वाभाविक विकास है। उत्तर भारत के नाथ -सिद्धों की साधना, अवतार, लीला की अवधारणा और जातिगत कठोरता दक्षिण भारत से आई हुई भक्ति धारा में घुल-मिल गई। द्विवेदी जी के अनुसार, भक्ति आंदोलन और भक्तिकाल का साहित्य लोकोन्मुख है। वह करुणा एवं परदुखकातरता से युक्त है। द्विवेदी जी कबीर की तेजस्विता को जुलाहा जाति की सामाजिक मर्यादा के प्रति असंतोष की भावना से जोड़ते हैं। हिंदुओं की पराजित भावना भक्ति का कारण होती तो वह उत्तर भारत में पहले आती।
इस बीच मध्यकाल पर काम करने वाले इतिहासकारों, विशेषत: इरफ़ान हबीब और रामशरण शर्मा ने अपने कार्यों से इस क्षेत्र पर ऐसा प्रकाश डाला है कि हिंदी के भक्ति काव्य के विषय में हमें नई बातों का पता चलता है। इरफ़ान हबीब के अनुसार उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन की निर्गुण धारा के उत्थान में शिल्पियों और जाटों-किसानों की प्रमुख भूमिका रही है। वे निर्गुण धारा को
'एकेश्वरवादी धारा' कहते हैं। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में नए शासकों की सत्ता स्थापित होने पर विलास-सामग्री और सुविधाओं की मांग बढ़ी। केंद्रीय सत्ता (खिलजी-तुगलक-सूरी शासकों की) स्थापित होने पर सड़कों, भवनों आदि का निर्माण तेजी से होने लगा। इससे अवर्ण, शिल्पियों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर उनमें अपनी सामाजिक मर्यादा को
ऊपर उठाने की भावना पैदा हुई। निर्गुण-पंथ के अवर्ण संतों की भावना का सामाजिक आधार यही था।
इस देश में जुलाहों की आर्थिक स्थिति प्राचीनतर काल से अच्छी रही है। उनमें अपनी सामाजिक मर्यादा के प्रति असंतोष का भाव भी पहले से रहा है। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में उनके साथ-साथ अन्य अवर्ण शिल्पियों की स्थिति भी बेहतर हुई होगी। खेतों की सिंचाई के नए तरीकों के उपयोग के कारण (इरफ़ान हबीब के अनुसार) जाटों-किसानों की स्थिति भी बेहतर हुई होगी। और ठीक इसी समय दक्षिण भारत से प्रवाहित दर्शन और विचारधारा ने भक्ति आंदोलन को तेजी से प्रचारित-प्रसारित किया।
यह तो उत्तर भारत की बात हुई। लेकिन यदि भक्ति आंदोलन की लहर दक्षिण भारत से उत्तर में आई तो हमें यह भी पता लगाना होगा कि दक्षिण भारत में वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण भक्ति भावना ने वहाँ आंदोलन का रूप ग्रहण किया।
दक्षिण भारत में पहली शताब्दी के बाद अनेक शताब्दियों तक सत्ता पराक्रमी शासकों के हाथों में रही। परवर्ती चोल साम्राज्य के शासकों के पहले ही करिकाल (चोलवंशी शासक) ने कावेरी के जल को नियंत्रित करके सिंचाई की बेहतर व्यवस्था की। श्रीलंका के युद्धबंदियों से कावेरी के मुहाने पर पुहार का बंदरगाह तैयार करवाया। उसके राज्य में व्यापार-उद्योग की अभूतपूर्व उन्नति हुई।
पल्लव शासक नरसिंह वर्मन ने स्थापत्य को अभूतपूर्व बढ़ावा दिया। उसने कांची का राजसिंहेश्वर मंदिर बनवाया। उसके राज्य में शिल्पियों का सम्मान बहुत बढ़ा। बुनकरों को दक्षिण में वैश्यों-व्यापारियों जैसा सम्मान मिला।
इन सब से प्रकट है कि उत्तर भारत में शिल्पियों और किसानों की आर्थिक बेहतरी के काफी पहले दक्षिण भारत के शिल्पियों और किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर हो गई थी। भक्ति के आद्य आचार्य रामानुज कांचीपुरम के ही थे। उनके एक गुरु कांचीपूर्ण शूद्र थे। अलवर दक्षिण के प्रारंभिक भक्त कवि थे। उनमें से अनेक अवर्ण थे। एक महिला भक्त अंदाल थीं जिन्हें दक्षिण की मीरा कहा जाना चाहिए। वे मीरा से कई शताब्दी पूर्व की थीं।
हम जानते हैं कि हिंदी के भक्ति काव्य में अवर्णों और नारियों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है। भक्तिकाल के बाद फिर आधुनिक काल में ऊपर की बातें उस सामाजिक-आर्थिक स्थिति को प्रकट करती हैं जिसने शिल्पियों, अवर्णों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठने की प्रेरणा दी। लेकिन यह बिना किसी पुष्ट विचारधारा के संभव नहीं था रामानुजाचार्य (11वीं शती) का विशिष्टाद्वैत दर्शन भक्ति का दार्शनिक या विचारधारात्मक आधार प्रस्तुत करता है। विशिष्टाद्वैत शांकर अद्वैत की तरह जगत को मिथ्या नहीं मानता। रामानुज का ब्रह्म विशेषण से युक्त अर्थात् विशिष्ट है। उनके अनुसार जगत मिथ्या नहीं, वास्तविक है। ब्रह्म जीव और जगत को धारण करता हुआ उसका नियमन करता है। जगत को वास्तविक मानकर उसको महत्त्व देने में ही भक्ति की लोकोन्मुखता निहित है। यदि लोक सत्य हैं, तो लोक-पीड़ा उपेक्षणीय नहीं। भक्तों ने लोक-पीड़ा को इतना महत्त्व नहीं दिया है। इसलिए वे करुणा के अन्यतम रचनाकार हैं।
कहा जाता है कि 'भक्ति द्रविड़ उपजी, लाए रामानंद'। रामानंद (1400-1470) रामानुज की ही परंपरा के आचार्य थे। भक्ति साधना के रूप में तो पहले से ही थी। रामानुजाचार्य ने उसे लोकोन्मुख बनाकर दार्शनिक-वैचारिक आधार दिया और रामानंद के व्यक्तित्व से वह उत्तर भारत में आंदोलन और साहित्य का स्रोत बनी। एक महत्त्वपूर्ण बात यह कि आधुनिक भारतीय भाषा हिंदी (और अन्य भारतीय भाषाएँ) धार्मिक वाङ्मय की अभिव्यक्ति का माध्यम बनीं।
नाथ-सिद्धों की साधना में अंतस्साधना पर बहुत बल था। सरहपा सहज साधना के विश्वासी साधक थे। वे माया को भी त्याज्य नहीं मानते थे। उनके यहाँ चित्त की निर्मलता और करुणा को महत्त्व दिया गया है। नाथ बाह्याचार का विरोध करते थे। उनकी साधना भक्ति-भावना में घुल-मिल गई। फलतः उत्तर भारत में आकर भक्ति-साधना उतनी निरीह नहीं रह गई। वह वर्ण-व्यवस्था और
कर्मकांड के प्रति आक्रामक बनी। उत्तर भारत में सूफ़ी साधना के रूप में इस्लाम भी भक्ति-मार्ग का सहचर बना।
भक्ति की धाराएँ: विभिन्न संप्रदाय
[सम्पादन]भक्ति की दो धाराएँ प्रवाहित हुईं-निर्गुण धारा और सगुण धारा। निर्गुण और सगुण धारा में अंतर इस बात का नहीं है कि निर्गुणियों के राम गुणहीन हैं और सगुण मतवादियों के राम या कृष्ण गुण सहित। निर्गुण का अर्थ संतों के यहाँ गुणरहित नहीं, गुणातीत है। निर्गुण और सगुण मतवाद का अंतर अवतार एवं लीला की दो अवधारणाओं को लेकर है। निर्गुण मत के इष्ट भी कृपालु, सहृदय, दयावान, करुणाकर हैं, वे भी मानवीय भावनाओं से युक्त हैं, किंतु वे न अवतार ग्रहण करते हैं न लीला। वे निराकार हैं। सगुण मत के इष्ट अवतार लेते हैं, दुष्टों का दमन करते हैं, साधुओं की रक्षा करते हैं और अपनी लीला से भक्तों के चित्त का रंजन करते हैं। अत: सगुण मतवाद में विष्णु के 24 अवतारों में से अनेक की उपासना होती है, यद्यपि सर्वाधिक लोकप्रिय और लोक-पूजित अवतार राम एवं कृष्ण ही हैं।
निर्गुण एवं सगुण, दोनों प्रकार की भक्ति का मुख्य लक्षण है- भगवद्विषयक रति एवं अनन्यता। नाथ-सिद्धों के आसन-प्राणायाम, सहज-समाधि, शरीर, प्राण, मन, वाणी की अचंचलता का योग-सब इसी महाराग में विलीन हो गए है भक्ति के अनेक संप्रदाय हैं।
उनमें से चार प्रमुख संप्रदायों और उनके आचार्यों का परिचय संक्षेप में दिया जा रहा है। ये हैं-श्री, ब्राह्म, रुद्र, सनकादि या निंबार्क।
1. श्रीसंप्रदाय- श्रीसंप्रदाय के आचार्य रामानुजाचार्य हैं। कहा जाता है कि लक्ष्मी ने इन्हें जिस मत का उपदेश दिया उसी के आधार पर इन्होंने अपने मत का प्रवर्तन किया। इसलिए इनके संप्रदाय को श्रीसंप्रदाय कहते हैं। इन्हीं की परंपरा में रामानंद हुए। रामानंद प्रयाग में उत्पन्न हुए थे। इनके गुरु का नाम राघवानंद था। रामानंद संस्कृत के पंडित, उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण थे, किंतु वे आकाशधर्मा गुरु थे। उन्होंने अवर्ण-सवर्ण, स्त्री-पुरुष, राजा-रंक सभी को शिष्य बनाया। उनका विचार था कि ऋषियों के नाम पर गोत्र और परिवार बन सकते हैं, तो ऋषियों के भी पूजित परमेश्वर के नाम पर सब का परिचय क्यों नहीं दिया जा सकता! इस प्रकार सभी भाई-भाई हैं, सभी एक जाति के हैं। श्रेष्ठता भक्ति से होती है, जाति से नहीं। इनके जो बारह शिष्य प्रसिद्ध हुए वे हैं- रैदास, कबीर, धन्ना, सेना, पीपा, भावानंद, नरहर्यानंद, सुखानंद, अनंतानंद, सुरसुरानंद, पद्मावती और सुरसुरी। रामानंद के रचनात्मक व्यक्तित्व का अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि उन्होंने हिंदी को अपने मत के प्रचार का माध्यम बनाया।
2. ब्राह्य संप्रदाय- ब्राहा संप्रदाय के प्रवर्तक मध्वाचार्य थे। उनका जन्म गुजरात में हुआ था। चैतन्य महाप्रभु पहले इसी संप्रदाय में दीक्षित हुए थे। इस संप्रदाय का सीधा संबंध हिंदी साहित्य से नहीं है।
3. रुद्र संप्रदाय- इसके प्रवर्तक विष्णुस्वामी थे। वस्तुतः यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुष्टि संप्रदाय के रूप में हिंदी में जीवित है। जिस प्रकार रामानंद ने 'राम' की उपासना पर बल दिया था, उसी प्रकार वल्लभाचार्य ने 'कृष्ण' की उपासना पर बल दिया। उन्होंने प्रेमलक्षणा भक्ति ग्रहण की। भगवान के अनुग्रह के भरोसे नित्यलीला में प्रवेश करना जीव का लक्ष्य माना। सूरदास एवं अष्टछाप के कवियों पर इसी संप्रदाय का प्रभाव है।
बल्लभाचार्य ने देश का काफ़ी भ्रमण किया था। वे महान विद्वान एवं दार्शनिक थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत लोकप्रिय एवं मानवीय रहा होगा। उनके जीवन की जो बातें इधर-उधर बिखरी मिलती हैं, उनसे लगता है कि मानव-मन में उनकी गहरी पैठ रही होगी।
4. सनकादि संप्रदाय- यह निबार्काचार्य द्वारा प्रवर्तित है। हिंदी भक्ति साहित्य को प्रभावित करने वाले राधावल्लभी संप्रदाय का संबंध इसी से जोड़ा जाता है। राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक गोसाईं हितहरिवंश का जन्म 1502 में मथुरा के पास बाँदगाँव में हुआ। कहा जाता है कि हितहरिवंश पहले माध्वानुयायी थे। इसमें राधा की प्रधानता है।
सूफी साधना
[सम्पादन]भक्ति आंदोलन इतना व्यापक एवं मानवीय था कि इसमें हिंदुओं के साथ मुसलमान भी आए। सूफ़ी यद्यपि इस्लाम मतानुयायी हैं, किंतु अपने दर्शन एवं साधना-पद्धति के कारण भक्ति आंदोलन में गणनीय हैं। इस्लाम एकेश्वरवादी है। किंतु सूफ़ी संतों ने 'अनलहक' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ' की घोषणा की। यह बात अद्वैतवाद से मिलती-जुलती है। सूफ़ी साधना के अनुसार मनुष्य के चार विभाग हैं-
1. नफ्स (इंद्रिय),
2. अक्ल (बुद्धि या माया),
3. कल्ब (हृदय),
4. रूह(आत्मा)।
यह साधना नफ्स और अक्ल को दबाकर कल्ब की साधना से रूह की प्राप्ति पर बल देती है। हृदय-रूपी दर्पण में परम सत्ता का प्रतिबिंब आभासित होता है। यह दर्पण जितना ही निर्मल होगा, रूप उतना ही स्पष्ट होगा, अर्थात् सूफ़ी साधना भी हृदय की साधना है। इसी से वह भक्ति है। आचार्य शुक्ल ने इसीलिए जायसी आदि सूफ़ी कवियों को कबीर, सूर, तुलसी की कोटि में रखा है। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि सूफ़ी संतों में भी प्राय: निम्न वर्ग के लोग थे और इसमें राबिया जैसी महिला साधिका प्रसिद्ध हैं। मुल्ला दाऊद (1379) हिंदी प्रथम सूफ़ी कवि हैं। सूफ़ी कवियों की परंपरा उन्नीसवीं शती तक मिलती है। सूफ़ी साधना का प्रवेश इस देश में बारहवीं शती में मोइनुद्दीन चिश्ती के समय से माना जाता है। सूफ़ी साधना के चार संप्रदाय प्रसिद्ध हैं-1. चिश्ती, 2. सोहरावर्दी, 3. कादरी और 4. नक्शबंदी। हिंदी का सूफ़ी काव्य अवधी भाषा में रचित मिलता है। सूफ़ी मुसलमान थे, लेकिन उन्होंने हिंदू घरों में प्रचलित कथा-कहानियों को अपने काव्य का आधार बनाया। उनकी भाषा और वर्णन में भारतीय संस्कृति रची-बसी है। प्रेम की पीर की व्यंजना इनकी विशेषता है।
अन्य मत
[सम्पादन]आधुनिक हिंदी क्षेत्र के बाहर पड़ने वाले दो संत कवियों- महाराष्ट्र के नामदेव (13 वीं शती) और पंजाब के गुरु नानक (15 वीं शती) ने हिंदी में रचनाएँ की हैं। अनुमानतः नामदेव पहले सगुणोपासक थे, बाद में ज्ञानदेव के प्रभाव के कारण नाथ पंथ में आए। इसी कारण नामदेव की रचनाएँ सगुणोपासना और निर्गुणोपासना, दोनों से संबंधित हैं। गुरु नानक का संबंध किसी संप्रदाय से जोड़ना कठिन है। वे दृष्टिकोण में कबीर से काफ़ी मिलते-जुलते हैं, यद्यपि उनका स्वर कबीर जैसा प्रखर नहीं, बल्कि शामक है। ये सिख संप्रदाय के प्रथम गुरु है|
इनके अतिरिक्त भी भक्ति के अनेक छोटे-छोटे संप्रदाय हैं, किंतु भक्ति का लक्षण भगवद्विषयक रति, अनन्यता, पूर्ण समर्पण सब में मिलता है। सदाचार, परदुखकातरता, प्राणिमात्र पर करुणा, समभाव, अनावश्यक लौकिक संपत्ति के प्रति उपेक्षा, अहिंसा आदि का भाव सभी प्रकार के भक्तों में पाया जाता है। इनमें निर्भीकता भी है।
भक्ति साहित्य के रूपात्मक स्रोत
[सम्पादन]भक्ति का प्रभाव मध्यकाल की सभी सांस्कृतिक गतिविधियों में देखा जा सकता है। इस काल के संगीतकार प्रायः भक्त भी हैं, जैसे स्वामी हरिदास। मूर्ति, चित्र, नृत्य सभी का विषय प्रधानतः भक्ति या भक्त है। विभिन्न कलाओं में राधा-कृष्ण की लीला अत्यंत लोकप्रिय है। कहा जा सकता है कि जिस प्रकार हिंदी साहित्य का भक्तिकाल है, वैसे ही अन्य कलाओं के इतिहास का भी भक्तिकाल होगा। भक्ति साहित्य के रूपात्मक स्रोतः भाषा, काव्य-रूप और छंद भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। इसका परिणाम यह हुआ कि लगभग पूरे देश में मध्यदेश की काव्य भाषा हिंदी ब्रजभाषा का प्रचार-प्रसार हुआ। नामदेव यदि अपनी भाषा अर्थात् मराठी में और नानकदेव पंजाबी में रचना करते थे, तो वे ब्रजभाषा में भी रचनाएँ करते थे। चौदहवीं शती में दिल्ली में केंद्रीय सत्ता स्थापित होने के बाद जब सड़कें आदि बड़े पैमाने पर बनीं, व्यापार की बढ़ोतरी हुई, तो देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का मिलना-जुलना भी ज्यादा बढ़ा। इनमें सैनिक, व्यापारी तथा साधु-संत अधिक होते थे। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- “पंद्रहवीं शती, सोलहवीं शती और सत्रहवीं शती में यहाँ व्यापार को बड़ी-बड़ी मंडियाँ कायम होती हैं, पचीसों नगर व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के केंद्र बनकर उठ खड़े होते हैं। लोहे और कपास का सामान काफ़ी बड़े पैमाने पर तैयार किया जाता है। सैकड़ों वर्ष के बाद सामाजिक जीवन की धुरी गाँव से घूमकर नगर की ओर आ जाती है। इस समय सामाजिक जीवन की बागडोर सामंतों के साथ-साथ व्यापारियों के हाथ में आ जाती है, सिक्कों का प्रचलन बढ़ जाता है, समाचार भेजने के लिए हरकारों की व्यवस्था होती है। आज की भाषा में कहें तो एक प्रकार की दूरसंचार व्यवस्था कायम होती है। इससे मध्यदेश की भाषा के प्रचारित-प्रसारित होने की स्थिति तैयार होती है। भक्ति साहित्य अखिल भारतीय है। किंतु उत्तर भारत के भक्ति साहित्य की विशेषता यह है कि इसमें मुसलमान भी शामिल हुए। दक्षिण भारत के भक्ति साहित्य में जायसी, रहीम और रसखान जैसे मुसलमान रचनाकारों का नाम नहीं सुनाई पड़ता। संभवतः भक्त कवियों की इतनी अधिक संख्या केवल हिंदी में है।"
भक्तिकालीन हिंदी काव्य की प्रमुख भाषा ब्रजभाषा है। इसके अनेक कारण हैं। परंपरा से पछाँही बोली शौरसेनी मध्यदेश की काव्य-भाषा रही है। ब्रजभाषा आधुनिक आर्यभाषा काल में उसी शौरसेनी का रूप थी। इसमें सूरदास जैसे महान लोकप्रिय कवि ने रचना की और वह कृष्ण-भक्ति के केंद्र ब्रज की बोली थी जिससे यह कृष्ण-भक्ति की भाषा बन गई। भक्ति काव्य की ब्रजभाषा प्रवाह के कारण ब्रजभूमि के बाहर भी काव्य-भाषा के रूप में स्वीकृत हुई। इसीलिए बाद में कहा गया कि “ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानौं"। पूर्व-मध्यकालीन साहित्य में ब्रजभाषा एक प्रकार से भक्ति काव्य का पर्याय बन गई है। । यहाँ तक
कि सुदूर दक्षिण और पूर्व के रचनाकारों ने भी ब्रजभाषा में रचना की। बंगाल-असम में ब्रजभाषा प्रभावित बंगला-असमिया को 'ब्रजबुलि' कहा गया।
भक्तिकाल की दूसरी भाषा अवधी है, यद्यपि यह ब्रजभाषा जितनी व्यापक नहीं। अवधी में काव्य रचना प्रधानतः रामपरक और अवध क्षेत्र के ही कवियों द्वारा हुई है। हिंदी के सूफ़ी कवि अवध क्षेत्र के ही थे। फिर भी यदि उन्होंने अवधी में प्रबंध-काव्य लिखे तो उसकी कोई परंपरा अवश्य रही होगी। प्राकृत पैंगलम् के अनेक छंदों की भाषा अवधी कहीं-कहीं व्यवस्थित रूप में दिखलाई पड़ती है। राहुल जी ने पउम चरिउ की भाषा में 'कुंजी' के शब्दों को अवधी कहा है। संभवतः अवध-क्षेत्र व्यापारिक या सैनिक दृष्टि से चौदहवीं और पंद्रहवीं शती में महत्त्वपूर्ण रहा हो। धार्मिक दृष्टि से राम की जन्मभूमि अयोध्या के कारण तो वह क्षेत्र महत्त्वपूर्ण था ही।
खड़ी बोली में उस समय रचना अवश्य होती रही होगी जैसा कि अमीर खुसरो की कविताओं से प्रकट है, किंतु उसको कोई परंपरा नहीं मिलती। भक्तिकाल में किसी महान कवि ने शुद्ध खड़ी बोली में कोई रचना नहीं की। उसका मिश्रित रूप सधुक्कड़ी अवश्य मिलता है, जो वस्तुत: पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, ब्रज और कहीं-कहीं अवधी का भी पंचमेल है।
भक्ति साहित्य अनेक विधाओं और छंदों में लिखा गया है, किंतु गेयपद और दोहा-चौपाई में निबद्ध कड़वकबद्धता उसके प्रधान रचना रूप हैं। गेयपदों की परंपरा हिंदी में सिद्धों से प्रारंभ होती है। नामदेव, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई आदि ने गेयपदों में रचना की है। गेयपदों में काव्य और संगीत एक-दूसरे से घुल -मिल-से गए हैं। संभवत: ये कवि राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर इन गेयपदों की रचना करते थे। गेयपदों की प्रारंभिक पंक्ति आवर्ती या टेक होती है अर्थात् वह केंद्रीय कथ्य होती है। बीच की पंक्तियों में उस कथ्य की व्याख्या होती है और अंतिम पंक्ति में रचनाकार अपना नाम डालकर गेयपद समाप्त करता है। वह अपने अनुभव से गेयपद के केंद्रीय कथ्य को सत्यापित करता है।
दोहा-चौपाइयों की परंपरा भी सरहपा से मिलने लगती है, किंतु सरहपा ने कोई प्रबंध-काव्य नहीं लिखा। लगता है, दोहा-चौपाइयों में प्रबंध काव्य लिखने के लिए अवधी की प्रकृति अधिक अनुकूल है। जायसी-पूर्व अवधी कवियों के भी अनेक काव्य चौपाई- दोहे में कड़वकबद्ध मिले हैं- जैसे भीम कवि का दंगवै पुराण, सूरजदास की एकादशी कथा, पुरुषोत्तम का जैमिनि पुराण, ईश्वरदास की सत्यवती कथा आदि। किंतु यह रचना-रूप सूफ़ी कवियों, विशेषत: जायसी के हाथों अत्यंत परिष्कृत हुआ। तुलसीदास ने इसे चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया।
दोहे की परंपरा अपभ्रंश में मिलने लगती है। सरहपाद का दोहा-कोष प्रसिद्ध है। दोहा नाम से आदिकाल में ढोला मारु रा दूहा जैसा प्रबंध-काव्य भी मिलता है। भक्ति काव्य में कबीर के दोहे 'साखी' के नाम से जाने जाते हैं। रामकथा 'दोहावली' में रची। दोहे का ही एक रूप सोरठा है।
छप्पय, सवैया, कवित्त, भुजंग प्रयात, बावै, हरिगीतिका आदि भक्ति काव्य के बहुप्रयुक्त छंद हैं। सवैया, कवित्त हिंदी के अपने छंद हैं, जो भक्ति काव्य में दिखलाई पड़ते हैं। इनकी स्पष्ट परंपरा पहले नहीं मिलती। तुलसीदास ऐसे भक्त कवि हैं, जिनकी रचनाओं में मध्यकाल में प्रचलित प्राय: सभी काव्य रूप मिल जाते हैं। तुलसी ने मंगलकाव्य, नहछु, कलेऊ, सोहर जैसे काव्य रूपों का भी उपयोग किया है। नहछ, कलेऊ विवाह के समय गाए जानेवाले और सोहर पुत्रजन्म के समय गाया जानेवाला गौत है।
आदिकाल में विविध छंदों में प्रबंध काव्य रचने की प्रवृत्ति थी। उदाहरण के लिए, पृथ्वीराज रासो में छंद बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं। सूरदास और तुलसीदास भी छंद परिवर्तन करते हैं, किंतु जल्दी-जल्दी नहीं। केशव की रामचंद्रिका में बहुत जल्दी-जल्दी छंद परिवर्तित हुए हैं।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि भक्ति आंदोलन के विकास में अनेक स्थितियों का योगदान है। भक्ति मूलतः एक धार्मिक साधना-पद्धति, ज्ञान योग, कर्म योग के समान एक योग है, किंतु ऐतिहासिक विकास के एक विशिष्ट दौर में वह एक लोकोन्मुख अखिल भारतीय धार्मिक आंदोलन बन गई। धर्म उसका रूप है और मानवीय करुणा उसकी अंतर्वस्तु। हिंदी साहित्य के इतिहास का भक्तिकाल इसी धार्मिक आंदोलन पर आधारित है। साहित्य में यह विविध विधाओं एवं कलात्मकता से युक्त होकर उत्कृष्ट रचनाओं के रूप में प्रकट हुआ।
अब हम भक्ति की निर्गुण और सगुण, दोनों काव्य-धाराओं तथा उनकी उपधाराओं के कवियों और उनकी रचनाओं पर विचार करेंगे।
निर्गुण काव्य:
[सम्पादन]निर्गुण काव्य की अन्य विशेषताएं
[सम्पादन]इनके अतिरिक्त सूफ़ी काव्य परंपरा के अन्य उल्लेखनीय कवि और काव्य। इस प्रकार हैं- उस्मान ने 1613 में चित्रावली की रचना की। शेख नवी ने 1619। में ज्ञानद्वीप नामक काव्य लिखा। कासिम शाह ने 1731 में हंस जवाहिर रखा। नूर मुहम्मद ने 1744 में इंद्रावती और 1764 में अनुराग बॉसुरी लिखा। अनरा बाँसुरी में शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर रूपक बाँधा गया है। इन्दोंसे चौपाइयों के बीच दोहे न रखकर बरवै रखे हैं। निर्गुण काव्य की सामान्य विशेषताएँ निर्गुण काव्य की दोनों शाखाएँ निर्गुण मत पर आधारित हैं। ये दोनों परम सत्ता को मानवीय भावना का आलंबन तो मानती हैं, किंतु लीलावाद एवं अवतारवाद पर विश्वास नहीं करतीं। कबीर और सूफ़ी कवि भगवत्प्रेम को मानव-जीवन की सार्थकता मानते हैं। वे निर्गुण को गुणरहित नहीं, गुणातीत मानते हैं और उससे अनेक प्रकार के संबंध जैसे माता, पिता, प्रिय, गुरु आदि का संबंध स्थापित करते हैं। कबीर के यहाँ प्रेम की उत्कटता कम तीव्र नहीं, कितु वे ज्ञान एव अंतस्साधना की उपेक्षा नहीं करते। कबीर के काव्य में निर्गुण मतवाद का विश्वबोध प्रकट है। वे सृष्टि की उत्पत्ति, नाश, जन्म, मृत्यु, मनुष्य की नाड़ियों, चक्रों आदि की बात काफ़ी करते हैं। वे ज्ञान को व्याकुल करने वाला या दाहक मानते हैं। उनके यहाँ ज्ञान की आँधी सब कुछ को अस्त-व्यस्त कर देती है। इसीलिए वे अपने घर को और अपने साथ चलने बालों के घरों को जलाने के बात करते हैं। प्रेम एवं भक्ति पर जोर होने के बावजूद उन्हें ज्ञानाश्रयी धारा का संत कहा जाता है। इस धारा के कवि अधिकांशत: अवर्ण हैं। उन्होंने वर्ण- व्यवस्था की पीड़ा सही थी। अत: उनमें वर्ण-व्यवस्था पर तीव्र आक्रमण करने का भाव है। इस धारा के कवियों पर नाथ-संतों की अंतस्साधना के साथ उनका दुरूह प्रतीक-शैली उलटबाँसी का भी प्रभाव है। इन्होंने गेयपद, दोहा, चौपाई के अतिरिक्त कुछ लोक-प्रचलित छंदों का भी उपयोग किया है। ज्ञानाश्रयी धारा किसी कवि द्वारा रचित कोई प्रबंध-काव्य प्रसिद्ध नहीं है।
प्रेमाश्रयी धारा के कवियों पर इस्लाम के सूफ़ी मत का सबसे अधिक प्रभाव है। सूफ़ी मत का अपना विश्व तत्त्वज्ञान है, किंतु वह सफ़ी कवियां में अलग से दिखलाई नहीं पड़ता। इसका एक कारण यह हो सकता है कि सूफी कवियों ने प्रबंध-काव्य लिखा है और तत्त्वज्ञान का आग्रह कथा-प्रबंधत्व के घुल-मिल गया है या छिप गया है। इसकी विशेषता यह है कि इन्होंने परम-सत्ता में मधुर या दांपत्य भाव ही जोडा है, अन्य भाव नहीं। संसार में उसकी प्रतिछवि है। प्रतिछवि में उसका प्रतीक है। सूफ़ी इस प्रतीक को प्रतीकार्थ का साधन बनाते हैं। यह प्रतीकार्थ परम सत्ता है। इसलिए उनके यहाँ प्रेम और उसमें भी विरह-स्थिति की प्रधानता है। इस मत पर आधारित काव्य में भी प्रेम की उत्कट विरह व्यंजना और प्रतीकात्मकता है। इसीलिए सूफ़ी कवि 'प्रेम की पीर' के या प्रेमाश्रयी धारा के कवि कहे गए हैं। इन कवियों ने प्रबंध-काव्य लिखे हैं। इनकी भाषा अवधी है। ये चौपाई-दोहे में कड़वकबद्ध हैं। एक सूफी काव नूर मुहम्मद ने अनुराग बाँसुरी में दोहे की जगह बरवै का ब्यवहार किया है । इन्होंने प्रायः भारत में लोक-प्रचलित कथाओं को अपने प्रबंध -काव्य का आधार बनाया है। उस कथा को बड़े कौशल से सूफ़ी मत के अनुकूल रूपायित किया है। इनमें भारतीय संस्कृति सुरक्षित ही नहीं, समृद्ध भी हुई है। सूफ़ी कवियों के साहित्य की आत्मा विशुद्ध भारतीय है, यद्यपि इसमें प्रेम और धर्म की विदेशी साधना भी घुल-मिल गई है। प्रबंध-काव्य मसनवी शैली में रचित है, अथात्स र्गबद्ध नहीं है। काव्य को घटनाओं के शीर्षकों में विभाजित किया गया है, किंतु इनका काव्य-रूप मध्यकाल की प्राकृत अपभ्रंश परंपरा के रोमांचक आख्यानों से जुड़ा है। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना के लिए पद्मावत के ही काव्य-रूपात्मक ढाँचे को चुना।
राम भक्ति धारा
[सम्पादन]राम की उपासना निर्गुण और सगुण, दोनों भक्त करते रहे हैं। राम नाम की उपासना कबीर और तुलसी, दोनों करते हैं। अंतर 'राम' के अर्थ को लेकर है। हिंदी कबीर के राम दशरथ के सुत नहीं, किंतु तुलसी के राम दशरथ के सुत क्षेत्र के भक्त कवियों का संबंध रामानंद से है। रामानंद जी राघवानंद के शिष्य एवं रामानुजाचार्य की परंपरा के आचार्य थे। वे अत्यंत उदारमना एवं आकाशधर्मा गुरु थे। सभी वर्णों के लोग उनके शिष्य हो सकते थे। हिंदी के निर्गुण और सगुण, दोनों प्रकार के संत कवियों का संबंध उनसे जुड़ता
रामानंद पंद्रहवीं शताब्दी में विद्यमान रहे होंगे। उनके नाम से अनेक रचनाएँ प्रचलित हैं। उनका एक पद हनुमान जी पर मिलता है। उनका कोई काव्य ग्रंथ नहीं मिलता। योग चिंतामणि भी उनकी रचना के रूप में प्रसिद्ध है, जिसमें बिंदु हठयोग की बातें हैं। इसी तरह उनके नाम से प्रसिद्ध एक रचना रामरक्षा-स्तोत्र है। उनके नाम के दो पद गुरुग्रंथ साहब में भी संकलित हैं। किंतु उनकी प्रामाणिक रचनाएँ दो ही मानी जाती हैं- वैष्णव मताब्ज भास्कर और श्रीरामार्चन पद्धति । दोनों ग्रंथ संस्कृत में हैं।
भक्ति के लिए रामानंद ने वर्णाश्रम व्यवस्था को ब्यर्थ बताया। उन्होंने भक्ति को सभी प्रकार की संकीर्णवादिता से दर करके इतना व्यापक बनाया कि उसमें गरीब-अमीर, स्त्री-पुरुष, निर्गुण-सगुण, सवर्ण-अवर्ण, हिंदू-मुसलमान सभी आ सकें। रामानंद का दूसरा महत्त्व यह है कि उन्होंने लोकभाषा को अभृतपूर्व महत्त्व प्रदान किया। रामानंद के शिष्यों की सूची भक्तमाल में इस प्रकार दी हुई है-
अनंतानंद कबीर सुखा सुरसुरा पदमावति नरहरि
पीपा भावानंद रैदास धना सेन सुरसुर की घरहरि।
'सुरसुर की घरहरि' अर्थात् सुरसुरानंद की घरवाली। रामानंद ने सुरसुरानंद की पत्नी को भी दीक्षा दी। ऐसे ही उदारमना माननीय महान गुरु को कबीर अपना गुरु बना सकते थे।
रामानंद के शिष्य अनंतानंद थे। इनके शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने जयपुर के निकट गलता नामक स्थान पर रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। रामानंद और उनके शिष्यों द्वारा प्रचारित राम-भक्ति के ही वातावरण मं रामकथा के श्रेष्ठ हिंदी गायक तुलसीदास का आविर्भाव हुआ।
पीछे हम यह बता चुके हैं कि तुलसीदास ने रामचरितमानस का काव्य- रूपात्मक ढाँचा जायसी से लिया। मुल्ला दाऊद और जायसी के सूफ़ी प्रबंध-काव्यों का मूल ढाँचा अपभ्रंश कवि स्वयंभू के पउम चरिउ का है, जो कड़वकबद्ध है। स्वयंभू का पउम चरिउ पद्धड़िया छंद में है, जो चौपाई से बहुत मिलता-जुलता है
तुलसीदास के पूर्व सत्यवती कथा जैसी लोक-प्रचलित कथाएँ चौपाई-दोहे में ही रचित हैं। कुछ पौराणिक एवं रामकथा पर आधारित रचनाएँ भी जायसी के पूर्व रचित मिलती हैं। यह बात भी महत्त्वपूर्ण समझी जानी चाहिए कि ये कथाएँ अवधी में हैं।
राम भक्त कवि
[सम्पादन]कृष्ण भक्ति धारा
[सम्पादन]महाप्रभु वल्लभाचार्य ने कृष्ण-भक्ति धारा की दार्शनिक पीठिका तैयार की और देशाटन करके इस भक्ति का प्रचार किया। भागवत धर्म का उदय प्राचीनकाल में ही हो गया था। श्रीमद्भागवत के व्यापक प्रचार से माधुर्य भक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ। वर्लभाचार्य ने दार्शनिक प्रतिपादन और प्रचार से उस रास्ते को सामान्य जन-सुलभ बनाया।
महाप्रभु वर्लभाचार्य का जन्म 1477 में और देहांत 1530 में वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित मार्ग को 'पुष्टिमार्ग' कहते हैं। वर्लभाचार्य के अनुसार यह सारी सृष्टि लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति है। जीव ब्रह्म का अंश है। ब्रह्म अपनी अचित्य शक्ति से जगत के रूप में भी परिणत होता है और उससे परे भी रहता है। वह सच्चिदानंद है। जड़ में सत् किंतु जीव में सत् और चित्, दोनों होते हैं। आनंद का पूर्ण आविर्भाव पुरुषोत्तम कृष्ण में है। वे अपने भकतों के रंजनार्थ नित्य लीला करते हैं। वल्लभाचार्य ने ब्रह्म के सगुण रूप को पारमार्थिक और निर्गुण को उसका अपूर्ण रूप कहा।
वर्लभाचार्य के अनुसार जीव तीन प्रकार के हैं- 1. 'प्रवाह जीव' जो सांसारिक प्रवाह में पड़े रहते हैं; 2. 'मर्यादा जीव' जो विधि-निषेध का पालन करते हैं और 3. 'पुष्टि जीव' जो भगवान का अनुग्रह प्राप्त कर लेते हैं। वे की नित्य लीला का अनुभव कर सकते हैं। वल्लभाचार्य ने भक्ति में निहित माहात्म्य या श्रद्धा के अवयव की उपेक्षा करके प्रेम के तत्त्व को ही अपनाया है। वल्लभाचार्य के अनेक ग्रंथ हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- पूर्व मीमांसा भाष्य, अणुभाष्य, श्रीमद्भागवत की टीका, अणुभाष्य एवं मीमांसा या ब्रह्मसूत्र कृष्ण का भाष्य।
महाप्रभु वर्लभाचार्य परम विद्वान, सत्संगी एवं परदुखकातर व्यक्ति थे। उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में घूमकर जन-संपर्क और शास्त्रार्थ किया। श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी का विशाल गोवर्धन मंदिर बनवाया और वहीं अपनी गद्दी भी स्थापित की। इस मंदिर में श्रीकृष्ण की जो उपासना होती थी उससे हिंदी साहित्य की कृष्ण-भक्ति धारा का बहुत गहरा संबंध है।
अन्य कृष्ण भक्त कवि
[सम्पादन]राधा-वल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक हितहरिवंश का उल्लेख और थोड़ा परिचय भक्तिकाल के प्रारंभ में ही दिया जा चुका है। इनका जन्म 1502 में हुआ था। इनका रचनाकाल सन् 1543 से 1583 तक माना जाता है। इन्होंने 1525 मं श्रीराधावल्लभ की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की। ये संस्कृत के विद्वान थे इन्होंने संस्कृत में भी अत्यंत सरस रचना की है। हितचौरासी में इनकी कविताएँ संकलित हैं। हितहरिवंश द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय में राधा की भक्ति की प्रधानता है। इसमें विधि-निषेध का त्याग है। हितहरिवंश ने राधा-विषयक अत्यंत सरस रचनाएँ की हैं। इनकी रचनाएँ कम संख्या में उपलब्ध हैं ।
कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएं
[सम्पादन]कृष्ण-भक्ति साहित्य प्रधानत: भगवान के लोकरंजक रूप को उजागर करता है। यह ऐकांतिक भाव का साहित्य है। यह ध्यान देने की बात है कि यद्यपि कृष्ण के चरित्र में सामाजिकता और लोकमंगल की भावना के समावेश का पूरा अवकाश है, किंतु हिंदी के कृष्ण-भक्त कवियों का ध्यान उधर नहीं गया। सूरदास की कविता में लोक की रक्षा का पक्ष न सही, किंतु रंजन पक्ष विद्यमान है। परवर्ती कवियों की विषयवस्तु सीमित होती गई इसी कारण इस धारा के कवियों ने अधिकांशत: मुक्तकों में ही रचना की अष्टछाप के कवियों में तत्कालीन पर्व, उत्सव, रीति-रिवाज, आभूषण, वस्त्रादि का वर्णन मिलता है। कृष्ण-भक्ति काव्य की मधुरता ने मुसलमान कवियों को भी पर्याप्त संख्या में अपनी ओर आकृष्ट किया। कृष्ण-भक्ति काव्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही। भक्ति प्रचार के साथ-साथ ब्रजभाषा का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि वह शताब्दियों तक हिंदी क्षेत्र की तो प्रमुख काव्य-भाषा बनी ही रही, हिंदी क्षेत्र के बाहर सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी काव्य-रचना के लिए व्यवहृत हुई। कृष्ण-भक्ति काव्य में रामचरितमानस जैसा कोई विशद महाकाव्य तो नहीं रचा गया, लेकिन इसने सामान्य गृहस्थों के दैनंदिन जीवन को कृष्णचरित के उल्लास और व्यथा से भर दिया। श्रृंगार के क्षेत्र में तो कृष्ण-भक्त काव्य का ही वर्चस्व रहा, राम-काव्य का नहीं
हिंदी भक्ति काव्य की विशेषताएं
[सम्पादन]भक्ति का शास्त्र यद्यपि दक्षिण में बना, तथापि उसका पूर्ण उत्कर्ष उत्तर में हुआ। भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। भारत की सभी भाषाओं और साहित्य पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव है। लोक-साहित्य पर भी इसका प्रभाव कम नहीं। फलत: यह 'शास्त्र की उपेक्षा' करनेवाला लोकोन्सुख आंदोलन था इसीलिए यह लोक जीवन में इतना रस संचित कर सका। हिंदी भक्त कवियों ने आध्यात्मिक साधना की ही बात नहीं की, उन्होंने सामंतवादी युग में सामंतवादी व्यवस्था की अमानवीयता की आलोचना भी की तथा यथासंभव हर प्रकार की पीड़ा और हिंसा का विरोध भी किया। सांसारिक अन्यायी शक्ति को परम सत्ता या अलौकिक शास्त्र संपन्न सगुण रूप को सामने रखकर उसे तुच्छ दिखाया। इसलिए यह उल्लास और जीवन का साहित्य है।
भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। अतः उसने भारत की सांस्कृतिक एकता को पुष्ट किया। इसके कारण पूरे भारत में एक प्रकार की साधना की लहर जन-मानस में दौड़ी। इसके साथ हिंदी भक्ति आंदोलन और साहित्य की कुछ निजी विशेषताएँ भी हैं। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल दीर्घ व्यापी, लगभग तीन शताब्दियों तर्क प्रभावी रहा। शायद ही किसी अन्य भारतीय भाषा में इतनी संख्या में श्रेष्ठ कवि-कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा आदि जैसे हुए हों। फिर हिंदी भक्ति साहित्य में मुसलमान कवियों का योगदान भी अन्यत्र नहीं मिलता। सगुण भक्ति साहित्य में अन्यत्र कहीं रसखान, रहीम आदि जैसे कवि हैं, यह भी संदिग्ध है। प्रबंधकार सूफ़ी कवि भी अन्य भाषा-साहित्य में शायद ही मिलें। इसका कारण यह है कि इस्लामी संस्कृति का प्रभाव सबसे पहले उत्तर भारत में हुआ। उसकी पहली टक्कर यहीं हुई, इसलिए साधनाओं का समन्वय भी यहाँ अधिक दिखलाई पड़ा।
इसीलिए हिंदी के साहित्य में एक व्यापक मानवीय संवेदना के साथ-साथ व्यवस्थाओं को चुनौती देने का एक स्वर भी है।