हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/भक्तिकाल/रसखान (1548-1628 )
इनका वृत्तांत दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में मिलता है, और उससे प्रकट होता है कि ये लौकिक प्रेम से कृष्ण-प्रेम की ओर उन्मुख हुए। इनकी प्रसिद्ध कृति प्रेमवाटिका का रचनाकाल ।6।4 है। कहते हैं कि वे गोसाई विट्ठलनाथ के शिष्य थे।
रसखान ने कृष्ण का लीलागान गेयपदों में नहीं, सवैयों में किया है। रसखान को सबैया छंद सिद्ध था। जितने सरस, सहज, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य कवि के हों। रसखान का कोई ऐसा सवैया नहीं मिलता जो उच्च स्तर का न हो। उनके सरबैयों की मार्मिकता का बहुत बड़ा आधार दृश्यों और बाह्यांतर स्थितियों की योजना में है। वही योजना रसखान के सवैयों के ध्वनि प्रवाह में भी है। ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है। रसखान सूफ़ियों का हृदय कर कृष्ण की लीला पर काव्य रचते हैं। उनमें उल्लास, मादकता और उत्कृष्टता, तीनों का संयोग है। ब्रज-भूमि के प्रति जो मोह रसखान की कविताओं में दिखलाई पड़ता है, वह उनकी विशेषता है। रसखान प्रेम-भावना की अछूती स्थितियों की योजना करते हैं। इसलिए रसखान के यहाँ दूसरों की कही बातें कम मिलेंगी। निम्नलिखित सबैये में गोपियाँ की जिस मन:स्थिति का चित्र प्रस्तुत किया गया है, वह समृचे भक्ति काव्य में दुर्लभ है-
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितांबर लै लकुटी बन, गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।
अर्थात् सब स्वाँग किया जा सकता है, किंतु कृष्ण के अधरों पर रखा ईै मुरली को अपने अधरों पर रखने का स्वॉँग नहीं किया जाएगा। कृष्णभक्त कवियों की सुदीर्घ परंपरा है। स्वामी हरिदास (16वीं शती), हरीराम व्यास (16वीं शती), सुखदास (17वीं शती), लालचदास (16वीं शती), नरोत्तमदास (16वीं शती) आदि अन्य कृष्णभक्त कवि हैं। इनमें नरोत्तमदास का सुदामा-चरित अपनी मार्मिकता और सहज प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय है।