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हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/भक्तिकाल/तुलसीदास (1532-1623 )

विकिपुस्तक से

तुलसीदास (1532-1623 )


गोस्वामी तुलसीदास के जन्म के विषय में एकाधिक मत हैं । बेनीमाधव दास द्वारा रचित गोसाईं चरित और महात्मा रघुबरदास द्वारा रचित तुलसी चरित, दोनों के अनुसार तुलसीदास का जन्म 1497 में हुआ था। शिवसिंह 'सरोज' के अनुसार सं. 1583 (1526) के लगभग हुआा था। प. रामगुलाम द्विबेदी इनका जन्म सं. 1589 (1532) मानते थे। यह निश्चित है कि ये महाकवि सोलहवीं शताब्दी में विद्यमान थे।

तुलसीदास मध्यकाल के उन कवियों में से हैं, जिन्होंने अपने बारे में जो थोड़ा-बहुत लिखा है, वह बहुत काम का है।

तुलसी का बचपन घोर दरिद्रता एवं असहायावस्था में बीता था। उन्होंने लिखा है, "माता-पिता ने दुनिया में पैदा करके मुझे त्याग दिया। विधाता ने भी मेरे भाल (भाग्य) में कोई भलाई नहीं लिखी"-


मातु पिता जग जाइ तज्यो, विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई।

'जैसे कुटिल कीट को पैदा करके छोड़ देते हैं, वैसे ही मेरे माँ-बाप ने मुझे त्याग दिया"

तनु जन्यों कुटिल कीट ज्यों तज्यो माता पिता हूँ।


हनुमानबाहुक से भी स्पष्ट है कि अंतिम समय में व भयंकर बाहु-पीडा से ग्रस्त थे-पाँव, पेट, सकल शरीर में पीड़ा होती थी, पूरी देह में फोड़े हो गए थे। यह मान्य है कि तुलसी की मृत्यु सं. 1680 अर्थात् 1623 में हुई। उनकी मृत्यु के विषय में यह दोहा प्रसिद्ध है-

संवत सोरह सौ असी असी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो सरीर ।।


उनके जन्मस्थान के विषय में काफ़ी विवाद है । कोई उन्हें सोरों का बताता है, कोई राजापुर का और कोई अयोध्या का। ज्यादातर लोगों का झुकाव राजापुर की ही ओर है। उनकी रचनाओं में अयोध्या, काशी, चित्रकूट आदि का वर्णन बहुत आता है। इन स्थानों पर उनके जीवन का पर्याप्त समय व्यतीत हुआ होगा। बालकांड के एक दोहे में उन्होंने लिखा है, " मैंने रामकथा 'सूकर खेत' में अपने गुरु के मुँह से सुनी।" इस सूकर खेत (शूकर क्षेत्र) को कुछ विद्वान सोरों मानते हैं, कुछ गोंडा ज़िले का 'सूकर खेत'।


गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 12 ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं- दोहावली, कवित्त रामायण (कवितावली) , गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञाप्रश्न , विनयपत्रिका, रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपिनी एवं श्रीकृष्णगीतावली। रामचरितमानस की रचना गोसाईं जी ने स. 1631 अर्थात् 1574 में प्रारंभ की. जैंसा कि उनकी इस अर्धाली से प्रकट है-

संवत सोरह सौ इकतीसा। करउँ कथा हरिपद धरि सीसा।।


तुलसी का काव्य-वैभव

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गोस्वामी तुलसीदास हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। उन्हें हिंदी का जातीय कवि कहा जाता है। उन्होंने हिंदी क्षेत्र की मध्यकाल में प्रचलित दोनों काव्य भाषाओं-ब्रजभाषा और अवधी में समान अधिकार से रचना का है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने मध्यकाल में व्यवहृत प्रायः सभी काव्य-रूपों का उपयोग किया है। केवल तलसीदास की ही रचनाओं को देखकर समझा जा सकता है कि मध्यकालीन हिंदी साहित्य में किन काव्य-रूपों में रचनाएँ होती थीं। उन्होंने वीरगाथा काव्य की छप्पय-पद्धति, विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, गंग आदि कवियों की कवित्त-सवैया पद्धति, रहीम के समान दोहे और बरवै, जायसी की तरह चौपाई-दोहे के क्रम से प्रबंध-काव्य रचे। पं. रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, "हिंदी काव्य की सब प्रकार की रचना-शैली के ऊपर गोस्वामी जी ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है । यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।"


तुलसीदास ने अपने जीवन और अपने युग के विषय में हिंदी के किसी भी मध्यकालीन कवि से अधिक लिखा है। तुलसी राम के सगुण भक्त थे, लेकिन उनकी भक्ति में लोकोन्मुखता थी। वे राम के अनन्य भक्त थे। राम ही उनकी कविता के विषय हैं। नाना काव्य-रूपों में उन्होंने राम का ही गुणगान किया है, किंतु उनके राम परमब्रह्म होते हुए भी मनुज हैं और अपने देशकाल के आदर्शों से निर्मित हैं। तुलसी के राम ब्रह्म भी हैं और मानव भी। रामचरितमानस में अनेक मार्मिक अवसरों पर तुलसी पाठक को टोककर सावधान कर देते हैं कि राम लीला कर रहे। हैं, इन्हें सचमुच मनुष्य न समझ लेना। कारण यह है कि राम ब्रह्म होते हुए भी अवतार ग्रहण करके मानवी लीला में प्रवृत्त हैं । वस्तुत: रामचरितमानस के प्रारंभ में ही तुलसी ने कौशलपूर्वक राम के ब्रह्मत्व और मनुजत्व की सह-स्थिति के विषय में पार्वती द्वारा शंकर से प्रश्न करा दिया है और रामचरितमानस की पुरी कथा शंकर ने पार्वती को इस शंका के निवारणार्थ सुनाई है ।


तुलसी ने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुनः प्रतिष्ठित नहीं किया। उन्होंने रामचरितमानस में जिस राम को निर्मित किया. वे ब्रह्म होते हुए भी ऐतिहासिक स्थितियों के आधार पर व्यक्ति हैं। वे अपार मानवीय करुणा वाले हैं, 'गरीब निवाज' हैं, दरिद्रता रूपी रावण का नाश करने वाले और बड़वाग्नि से भी भयंकर पेट की आग को बुझानेवाले हैं। तुलसी के राम, तुलसी के व्यक्तिगत संघर्ष और उनके युग की विषमता के आलोक में प्रकाशित हैं


महान रचनाकारों की रचना में कोई-न-कोई द्वंद्र होता है। रचना इस द्वंद्व को पाटती है। दार्शनिक धरातल पर तुलसी के यहाँ यह द्वंद्व राम के ब्रह्मत्व और मनुजत्व को लेकर है, जिसे पार्वती के प्रश्न द्वारा प्रस्तुत किया गया है लौकिक धरातल पर यह द्वंद्व 'कलिकाल' और 'रामराज्य' में है। तुलसी की सभी रचनाएँ इस द्वंद्व को चित्रित करने और उन्हें शमित करने का आद्यंत प्रयास हैं।

तुलसी ने कलियुग का वर्णन विशेष रूप से कवितावली और रामचरितमानस के उत्तरकांड में किया है। । दरिद्रता, रोग, अज्ञान, कामासक्ति आदि का मार्मिक वर्णन किया है। कवितावली में 'लंका-दहन' के प्रसंग में आग लगने का जा वर्णन किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। चूँकि तुलसी ने अपने जीवन में अभावग्रस्तता और भूख का अनुभव किया था, इसलिए वे लोक में व्याप्त दरिद्रता का बहुत तीव्रता से अनुभव करते हुए व्यथित हुए। इसीलिए उन्होंने राम को 'गरीब-निवाज' और 'पेट की आग को बुझाने वाला' कहा है। इसीलिए उन्होंने दरिद्रता को जगत का सबसे पीड़ादायीं दुख कहा।

तुलसी की रचनाओं में हमारा देश, उसकी प्रकृति, बन-नदियाँ, पशु-पक्षी, फसलें, भाषा, मुहावरे, सौंदर्य, कुरूपता सब बिखरे पड़े हैं । वे देश में बहुत घूमे थे और उन्हें देश से अपार प्रेम था। यद्यपि तुलसी को तत्कालीन नगर-जीवन का भी पर्याप्त अनुभव रहा होगा, तथापि वे प्रधानतः किसान जीवन के कवि हैं। अपनी प्रसिद्धतम रचना के प्रारंभ में जो विशाल रूपक उन्होंने बाँधा है, उससे प्रकट होता है कि उनका पर्यवेक्षण कितना गहरा था! इसी प्रकार, चित्रकूट के कोल-किरातों का उन्होंने जो वर्णन किया है उससे लगता है कि उनसे तुलसी की गहरी आत्मीयता रही होगी। इसी प्रकार उन्होंने नारी-जीवन के विविध चित्र खींचे हैं। उन्होंने नारी की निंदा भी बहुत की है, किंतु विभिन्न संदर्भों में उन्होंने नारी के प्रति अपार करुणा का भी भाव दिखलाया है। मध्यकाल में शायद ही किसी अन्य कवि ने नारी की पराधीनता का उल्लेख इतने स्पष्ट तौर पर किया हो-


कत बिधि सजी नारि जग मोही। पराधीन संपनेहुँ सुख नाहीं।।


कैकेयी-मंथरा संवाद और शूर्पनखा प्रसंग यह प्रकट करते हैं कि वे इस देश की नारियों को अनेक रूपों में जानते थे।

तुलसी नारी-निंदक ही नहीं, नारी-सौंदर्य से अत्यंत प्रभावित रचनाकार भी हैं, किंतु वे रीतिकालीन रीतिबद्ध कवियों के समान नारी को केबल भोग्यारूप में ही चित्रित नहीं करते थे उन्होंने सीता जी की जो वंदना की है, वह कन्या, माँ और प्रिया तीनों रूपों में-


जनकसुता, जगजननी जानकी। अतिसय प्रिय करुणानिधान की


तुलसौदास ने तत्कालीन सामंतों की लोलुपता पर प्रहार किया है। प्रजा-द्रोही शासक तुलसी को रचनाओं में प्राय: उनके कोपभाजन बनते हैं। उन्होंने अकाल महामारी के साथ-साथ प्रजा से अधिक कर वसूलने की भी निंदा की है। अनेक समय की विभिन्न धार्मिक साधनाओं के पाखंड का भी उन्होंने उद्घाटन किया है। तुलसी के अनुसार जो बुरा है, वह कलिकाल का प्रभाव् है। यहाँ तक कि यदि लोग वर्णाश्रम का पालन नहीं कर रहे हैं तो वह भो कलिकाल का प्रभाव है। विषमताग्रस्त कलिकाल तुलसीदास का युग है, जिसमें वे दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से रहित सर्वसुखद रामराज्य का स्वप्न बुनते हैं। रामराज्य तुलसी की आदर्श व्यवस्था है। इसके नायक एवं व्यवस्थापक तुलसी के राम हैं।


तुलसी आदर्श व्यवस्था का स्वप्न ही नहीं देरचते, उसके अनुसार वे अपने पात्रों को गढ़ते भी हैं। वे राम को आदर्श राजा, पुत्र, भाई, पति, स्वामी, शिष्यः सीता को आदर्श पत्नी और हनुमान को आदर्श संवक के रूप में चित्रित करते हैं। इससे यह न मानना चाहिए कि इन पात्रों के रूप में तुलसी केवल आदर्श निर्मित कर रहे हैं। वस्तुत: रामोन्मुखता तुलसी का सबसे बड़ा आदर्श और है। राम से विमुख होकर सभी संबंध त्याज्य हैं-


तजिए ताहि कोटि बैरी सम जदयपि परम सनेही ।


प्रबंधकार कवि के लिए कथा के उचित अवथवों में समीकरण की जो आवश्यकता पड़ती है, वह तुलसी में प्रचुर मात्रा में थी। कथा में कौन-सा प्रसंग कितनी दूर तक चलना चाहिए, इसकी उन्हें सच्ची पहचान थी इसके साथ उन्हें कथा के मार्मिक स्थलों की भी पहचान थी। रामचरितमानस या अन्य काव्यां में उन्होंने अधिक विस्तार उन्हीं अंशों को दिया है जो मार्मिक हैं, अर्थात् जिनमें मनुष्य का मन देर तक रम या रस-मग्न हो सकता है, जैसे-पुष्पवाटिका प्रसंग, राम-वन-गमन, दशरथ मरण, भरत की ग्लानि, वन-मार्ग, लक्ष्मण शक्ति।

किसी स्थिति में पड़ा हुआ पात्र केसी चेष्टा करेगा -इसे जानने और चित्रित करने में तुलसी अद्वितीय हैं। वे मानव-मन के परम कुशल चितेरे हैं। चित्रकूट के राम और भरत-मिलन के अवसर पर जो सभा जुड़ती है उसमें राम, भरत, विश्वामित्र आदि के बक्तव्य मध्यकालीन शालीनता एवं वचन-रचना का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।


तुलसीदास जिस प्रकार ब्रजभाषा और अवधी, दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखते हैं, उसी प्रकार प्रबंध और मुक्तक दोनों की रचना में भी वे कुशल हैं। वस्तुत: तुलसी ने गीतावली, कवितावली आदि में मुक्तकों में कथा कही है। यह विरोधाभास इसलिए संभव हुआ, क्योंकि इन मुक्तकों को एक साथ पढ़िए तो प्रबंध का और अलग-अलग पढ़िए तो ये स्वतंत्र मुक्तकों का आनंद देते हैं। इनभें विनयपत्रिका की स्थिति विशिष्ट है । डॉ.रामविलास शर्मा के अनुसार रामचरितमानस में तुलसी की करुणा समाजोन्मुख है, विनयपत्रिका में यह आत्मोन्सुख है। व्यक्तिगत एकांतिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से बिनयपत्रिका भक्ति काव्य में अनूठी है।


तुलसीदास अपने वर्ण-विन्यास में तन्मय होकर रचना करने वाले कवि हैं। वे अंतर्दृष्टि से विषय को साक्षात् करके शब्दबद्ध करते हैं । अपने कवि-कर्म की असमर्थता बार-बार प्रकट करना उनकी महान रचनात्मक क्षमता की सूचना मात्र है। तुलसी विद्वान और दार्शनिक रचनाकार हैं। वे सामान्य जन जैसा अनुभव कर सकते हैं, सामान्य काव्य-भाषा में उसे व्यक्त कर सकते हैं, यह उनकी बहुत बड़ी शक्ति है। वे भक्त हैं, लेकिन उनके राम तक पहुँचानेवाला रास्ता इसी लोक से होकर जाता है। इसीलिए वे महान लोकसग्रही कवि हैं। तुलसी की काव्य- कला में उनकी नाद-बोजना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वे वर्णानुप्रास के कवि हैं। उन्होंने बोली, विशेषत: अवधी शब्दों में संस्कृत शब्दावली को ऐसा घुलाया कि पूरी पदावली अवधी के ध्वनिप्रवाह में ढल जाती है। इसीलिए वे हिंदी के सर्वाधिक स्मरणीय कवि हैं। उनकी पंक्तियाँ हिंदी भाषी जनता की बोली में घुल-मिलकर भाषा का मुहावरा बन गई हैं कोई भी शब्दकार इससे बड़ी सिद्धि की कल्पना नहीं कर सकता है। तुलसीदास ने एक आदर्श व्यवस्था का स्वप्न देखा था। उनका आदर्श प्रधानत: सवर्ण समाज का आदर्श है। वे वर्र्ण-व्यवस्था की अमानवीयता नहीं देखते। कबीर आदि निर्गुण भक्त स्वयं अवर्ण थे। इसलिए वे इस अमानवीयता का अनुभव तुलसी की अपेक्षा कहीं अधिक करते थे लेकिन निर्गुण भक्त कोई लोकिक व्यवस्था का स्वप्न नहीं देखते। वे लौकिक तापों से मुक्ति केवल शुन्य चक्र में ही पाते हैं।


तुलसी की रचनाओं से जहाँ एक ओर रामभक्ति शाखा की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि हुई, वहीं दूसरी ओर यह भी हुआ कि रामभक्ति-शासखा के साहित्य में होने वाले परवर्ती कवि उनके आगे धूमिल पड़ गए। इस प्रकार तुलसी परवर्ती सगुण राम-भक्त कवियों का साहित्यैतिहासिक महत्त्व अधिक है, साहित्यिक महत्त्व अपेक्षाकृत कम।